उत्तराखंड में राष्ट्रीय आंदोलन: प्रथम चरण की महत्वपूर्ण घटनाएँ (National Movement in Uttarakhand: Important Events of the First Phase)
उत्तराखंड में राष्ट्रीय आंदोलन: प्रथम चरण की महत्वपूर्ण घटनाएँ
उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम में गढ़वाल और कुमाऊं के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ के लोगों ने सामाजिक सुधार, वन अधिकारों और करों के खिलाफ आवाज उठाई। इस लेख में हम उत्तराखंड के प्रथम चरण के राष्ट्रीय आंदोलन की महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करेंगे।

1. गढ़वाल यूनियन अथवा गढ़वाल हितकारिणी सभा (1901)
गढ़वाल की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को दूर करने के लिए 19 अगस्त 1901 को तारादत्त गैरोला, जो एक प्रथम श्रेणी के वकील थे, ने 'गढ़वाल यूनियन' अथवा 'गढ़वाल हितकारिणी सभा' की स्थापना की। इस सभा के माध्यम से गढ़वाल के कई नवयुवकों ने समाज में सुधार और जागृति का संदेश फैलाने का कार्य किया।
प्रमुख योगदान:
गिरिजाशंकर नैथानी के नेतृत्व में मई 1905 में 'गढ़वाली' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
1903 में लैंसडौन से गिरिजादत्त नैथानी ने 'गढ़वाल समाचार' नामक पत्रिका का प्रकाशन किया, जिसका उद्देश्य गढ़वाल में सामाजिक व राजनीतिक चेतना फैलाना था।
1908 में मथुरा प्रसाद नैथानी ने लखनऊ में "गढ़वाल भ्रातृ-मंडल" की स्थापना की, जिसने गढ़वाल के समाज को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सत्य प्रसाद रतूड़ी की कविताएँ भी इस जागरण में प्रभावी रहीं। उनकी पहली कविता 'उठा गढ़वालियों का' 1905 में 'गढ़वाली' पत्रिका में प्रकाशित हुई।
2. कुंजणी वन आंदोलन (1904)
टिहरी गढ़वाल राज्य में महाराज कीर्तिशाह के शासनकाल में नई वन व्यवस्था लागू की गई, जिससे किसानों और ग्रामीणों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस वन नीति के खिलाफ अमर सिंह के नेतृत्व में कुंजणी पट्टी में एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ। यह आंदोलन हेंवल नदी घाटी तक फैल गया।
आंदोलन की प्रमुख घटनाएँ:
किसानों ने नई वन नीति और बढ़े हुए करों का विरोध किया।
जब विरोध बढ़ा तो स्वयं महाराज कीर्तिशाह आंदोलन क्षेत्र में पहुंचे और जनता की माँगें स्वीकार कर लीं।
इस आंदोलन ने गढ़वाल में जनजागरण की भावना को और अधिक मजबूत किया।
3. खास पट्टी वन आंदोलन (1906-1907)
गढ़वाल में नई भूमि बंदोबस्त नीति के तहत गाँव के आसपास की खाली पड़ी बंजर भूमि और वनों को आरक्षित घोषित किया जा रहा था। इससे ग्रामीणों को घास, लकड़ी और वन उपज प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, जंगलात विभाग के अधिकारी ग्रामीण महिलाओं को परेशान करते थे।
आंदोलन का नेतृत्व:
बलवती देवी, भगवान सिंह बिष्ट और भरोसा राम ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया।
ग्रामवासी आमड़ी मैदान में एकत्र हुए और अधिकारियों से वार्ता की माँग की, लेकिन प्रशासन ने इसे अस्वीकार कर दिया।
आंदोलनकारियों ने जंगलात विभाग के उच्च अधिकारी सदानंद गैरोला (कंजरवेटर) सहित कई कर्मचारियों को पकड़कर रस्सियों से बाँधकर गिरफ्तार कर लिया।
आंदोलन के प्रभाव:
स्थिति को गंभीर देखकर महाराज कीर्तिशाह को समझौता करना पड़ा।
बाद में महाराज समझौते से मुकर गए और आंदोलन के नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
इस अन्याय के कारण जनता में राजशाही के खिलाफ गुस्सा और असंतोष बढ़ गया।
इस आंदोलन का प्रभाव लंबे समय तक बना रहा और आजादी तक यह जनभावनाओं को प्रभावित करता रहा।
भविष्य में जनहितकारी सुधारों के रूप में 'किसान बैंक' की स्थापना की गई।
निष्कर्ष:
उत्तराखंड के इन शुरुआती आंदोलनों ने यहाँ के लोगों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना जागृत की। गढ़वाल हितकारिणी सभा और वन आंदोलनों ने जनता को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी। इन संघर्षों ने भविष्य में राष्ट्रीय आंदोलन को और अधिक सशक्त बनाया।
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