उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन का द्वितीय चरण (The second phase of the freedom movement in Uttarakhand.)

उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन का द्वितीय चरण

भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के प्रथम चरण में अपेक्षाकृत धीमी गति से आन्दोलन आगे बढ़ा। इसका प्रमुख कारण इस क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी का देर से प्रवेश एवं यहाँ की भौगोलिक दुर्गमता थी। लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन को एक नई गति मिली।

संयुक्त प्रान्त के पर्वतीय क्षेत्र की जनता मुख्यतः कृषि, पशुपालन एवं वनों पर निर्भर थी। ब्रिटिश प्रशासन ने इस क्षेत्र में जंगलों की नई प्रशासनिक व्यवस्था लागू कर जनता के पारम्परिक अधिकारों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। इससे असंतोष की भावना पनपने लगी और लोग मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन करने लगे। गढ़वाल की जनता को शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ापन महसूस हुआ, साथ ही बरा-बेगार, कुली-बर्दायश, गाड़ी सड़क एवं डोला पालकी जैसी कुप्रथाओं से भी उन्हें जूझना पड़ा। इसलिए अपने अधिकारों की प्राप्ति एवं जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए जनता गांधीवादी आन्दोलन से जुड़ गई। गढ़वाल के स्थानीय नेताओं ने भी इस क्षेत्र की उन्नति के लिए लोगों को प्रेरित किया। कांग्रेस ने इस आन्दोलन के लिए एक मंच प्रदान किया, जिससे कुमाऊँ, गढ़वाल एवं टिहरी रियासत के लोग संगठित होने लगे। स्वतंत्रता आन्दोलन का द्वितीय चरण असहयोग आन्दोलन के साथ प्रारम्भ हुआ और इसे 1926 के बाद तीव्र गति मिली। इस चरण के प्रमुख आन्दोलन निम्नलिखित हैं:

असहयोग आन्दोलन

महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन का प्रभाव उत्तराखण्ड में बेगार एवं वन आन्दोलन के रूप में देखा गया। गढ़वाल के सामाजिक जीवन में उस समय दो प्रकार की विचारधाराएँ थीं। पहली विचारधारा के लोग सरकार से सीधे टकराव से बचते हुए अपनी माँगें धीरे-धीरे प्रस्तुत कर जनता को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रहे थे। इस वर्ग में राय बहादुर तारादत्त गैरोला, राय बहादुर पातीराम, गंगादत्त जोशी, घनानन्द खण्डूरी, राम बहादुर, जोध सिंह नेगी आदि प्रमुख थे। दूसरी विचारधारा के लोग राष्ट्रीय आन्दोलन में स्थानीय समस्याओं को जोड़कर इसे व्यापक स्तर पर ले जाना चाहते थे। इनमें बैरिस्टर मुकुन्दी लाल, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा एवं प्रताप सिंह नेगी प्रमुख थे।

बैरिस्टर मुकुन्दी लाल एवं अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल में रौलेक्ट एक्ट का विरोध किया और 1919 में अमृतसर में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। इसके बाद गढ़वाल लौटकर उन्होंने कांग्रेस कमेटी की स्थापना की। यह गढ़वाल का पहला राजनीतिक संगठन था।

गढ़वाल में असहयोग आन्दोलन

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं काशी विद्यापीठ के गढ़वाली छात्रों, जैसे भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त चदोला, जीवनानंद बड़ोला एवं गोवर्धन बड़ोला ने मुकुन्दी लाल, ईश्वरदत्त ध्यानी, मंगतराम खन्तवाल एवं अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के साथ मिलकर गढ़वाल में पदयात्राएँ कीं और जनता को बेगार न देने के लिए प्रेरित किया। महात्मा गांधी के केसरे-हिन्द उपाधि के परित्याग से प्रभावित होकर पौड़ी जनपद के बीरोंखाल क्षेत्र के थोकदार ने अपने पद से इस्तीफा देकर प्रशासन से असहयोग किया।

असहयोग आन्दोलन में कुमाऊँ की भूमिका

असहयोग आन्दोलन में कुमाऊँ क्षेत्र ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जागेश्वर में सरयू नदी तट पर 4000 से अधिक लोगों ने अंग्रेजी सरकार को किसी भी प्रकार का सहयोग न देने की शपथ ली। विभिन्न स्थानों पर रैलियाँ एवं प्रदर्शन हुए। पूर्णानंद तिवारी ने वन विभाग की नौकरी से त्यागपत्र देकर असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। 1923 में कुमाऊँ परिषद् का कांग्रेस में विलय कर दिया गया।

प्रमुख घटनाएँ

  • दुगड्डा में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई।

  • बेगार आन्दोलन के माध्यम से जनता ने ब्रिटिश प्रशासन के साथ असहयोग की नीति अपनाई।

  • विभिन्न स्थानों पर आयोजित सम्मेलनों ने आन्दोलन को बल प्रदान किया।

  • 1919 में गढ़वाल में कांग्रेस कमेटी की स्थापना हुई, जिससे गढ़वाल की जनता राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने लगी।

टिहरी रियासत में स्वतंत्रता आन्दोलन

टिहरी रियासत में भी स्वतंत्रता आन्दोलन की लहर फैलने लगी थी। 1920 के दशक में यहाँ के युवाओं ने कांग्रेस के आदर्शों को अपनाकर विरोध प्रदर्शन किए। प्रजामंडल आंदोलन ने टिहरी में लोकतांत्रिक सुधारों की माँग उठाई। श्रीदेव सुमन ने टिहरी में जन जागरूकता अभियान चलाया और राजशाही के खिलाफ आंदोलन किया। उन्हें कैद कर यातनाएँ दी गईं, लेकिन उनके बलिदान ने टिहरी में स्वतंत्रता संघर्ष को और तेज कर दिया।

इस प्रकार, उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन के द्वितीय चरण में असहयोग आन्दोलन ने जनता को संगठित कर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जागरूकता पैदा की और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की।

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