अपना उत्तराखंड,जाने कहाँ गए वो दिन
एक समय था जब गाँव में और ना ही गाँव के आस पास में टेंट हुआ करता था कोई पारवारिक काम होता तो गाँव से ही सभी समान जुटाया जाता था बिस्तरा,तकिया, दरी,दूध, दही बहुत ही कम चीज़ शहर से लानी पड़ती थी सामाजिकता व उधार का भाव था! आज उनकी तो कल अपने ज़िम्मेदारी का अहसास होता था बारात आती थी तो पूरा गाँव पाँव पर खड़े रहता था पूरे गाँव ही एक घर था! बुज़ुर्ग लोग तब तक बिना खाये मेहमानवाजी में खड़े रहते थे जब तक गाँव के बच्ची के फेरे की रस्म पूरी नही हो जाती थी
ऐसा लगता था शादी नही सामाजिक एकता का मेला हो🙏
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