उत्तराखंड/ उत्तरांचल का प्राचीन काल

 प्राचीन काल 

उत्तराखंड (Uttarakhand) का इतिहास पौराणिक काल जितना पुराना हैं । उत्तराखंड का उल्लेख प्रारम्भिक हिन्दू ग्रंथों में भी मिलता हैं, जहाँ पर केदारखंड (Kedarkhand) (वर्तमान गढ़वाल) और मानसखंड (Manaskhand) (वर्तमान कुमाऊॅ) का जिक्र किया गया हैं। वर्तमान में इसे देवभूमि के नाम से भी जाना जाता हैं। लोककथाओं के आधार पर पाण्डव यहाँ पर आये थे और महाभारत और रामायण की रचना यहीं पर हुई थी। प्राचीन काल से यहाँ मानव निवास के प्रमाण मिलने के बावजूद इस क्षेत्र के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती हैं। 
आज उत्तराखंड दो मंडलों में सिमट के रह गया हैं, लेकिन उत्तराखंड कत्यूरी , चन्द राजवंशों, गोरखाराज और अंग्रेजो (British) के शासनाधीन रहा हैं। 2500 ई.पू. से 770 ई. तक कत्यूरी वंश, 770 ई. से 1790 ई. तक चन्द वंश, 1790 ई. से 1815 ई. तक गोरखा शासकों के और 1815 ई. से भारत के आज़ादी तक अंग्रेज शासकों के अधीन रहा। कत्यूरी राजवंश के बाद चन्द्रवंश के चंदेल राजपूतों ने लगभग 1000 वर्षों तक शासन किया। बीच में खस राजा ने भी लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। 
कुणिन्द शासक 
कुणिन्द राजवंश प्राचीन हिमालय, उत्तराखंड और उत्तर भारत में लगभग दूसरी-तीसरी शताब्दी के आस-पास के शासक थे। कुणिन्दों का साम्राज्य मूलतः गंगा, यमुना के उपजाऊ क्षेत्र के आस-पास था। 
उत्तराखंड में सबसे पहले शासन करने वाली कुणिन्द जाति थी, उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में तीसरी-चौथी ई. तक इनका शासन था। प्रारंभ में कुणिन्द लोग मोर्यों (Morya) के अधीन थे। कुणिन्द वंश का सबसे शक्तिशाली शासक अमोघभूति (Amoghbhuti) था। इन्होने रजत और कास्य की मुद्राओं का प्रचालन किया जिसमे देवी और मृग अंकित थे। अमोघभूति के मृत्यु के बाद शकों (Shakon) ने इनके मैदानी भागों पर अधिकार कर लिया। 
शक शासन 
शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाले स्किथी लोगों की एज जनजातियों का एक समूह था। जो बाद में भारत, चीन, ईरान, यूनान आदि देशो में जाकर बसने लगे। शकों का द्वारा भारतीय इतिहास में गहरा रहा है, शको के भारत में प्रवेश के बाद, अपना बहुत बड़ा साम्राज्य भारत में स्थापित किया। आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय कैलेंडर ‘शक संवत’ कहलाता है। 
कुमाऊॅ क्षेत्र में शक संवत का प्रचलन तथा सूर्य मन्दिरों मूर्तियों की उपस्थिति शकों के शासन की पुष्टि करते हैं, अल्मोड़ा के कोसी के पास स्थित कटारमल सूर्य मंदिर स्थित हैं। शकों के शासन के बाद तराई भागों में कुषाणों ने अपना अधिकार स्थापित किया। 
कुषाण शासक 
कुषाण शासन के कुछ अवशेष वीरभद्र (ऋषिकेश), मोरध्वज (कोटद्वार) और गोविपाषाण (काशीपुर) से प्राप्त हुए हैं। कुषाण शासकों के पतन के समय यहाँ पर कुछ नये राजवंशों का शासन था, जिन में योधेयों शासक (Yodheyon Shasak) प्रमुख थे। 
5 वीं शताब्दी में नागों ने कुणिन्द राजवंश का अंत कर उत्तराखंड पर अधिकार कर लिया। 
6 वीं शताब्दी कन्नोजों के मौखरि राजवंश (Maukhri Rajvansh) ने नागों की सत्ता समाप्त कर उत्तराखंड पर अधिकार किया। 
मौखरि राजवंश के अंत के बाद मौखरि राज्य हर्षवर्धन (Harshvardhan) के अधीन हो गया। 
कार्तिकेयपुर (कत्यूरी) राजवंश 
कत्यूरी राजवंश शक वंशावली के माने जाते है, लेकिन इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे जी का मानना है, की कत्यूरी वंश अयोध्या से आए थे। कत्यूरीयों ने अपने राजवंश को कुर्माञ्चल कहा जो वर्तमान कुमाऊँ है। 
हर्षवर्धन के मृत्यु के बाद उत्तराखंड में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई, शुरू में लगभग 300 वर्षों तक इनकी राजधानी जोशीमठ (चमोली)के पास कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी, बाद में इनकी राजधानी अल्मोड़ा के कत्युर घाटी में स्थित बैजनाथ बनायी गई । इस राजवंश को कुमाऊॅ का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश (Historical Dynasty) माना जाता हैं। 
बागेश्वर लेख के अनुसार राजवंश के प्रथम राजा बसंतदेव थे, तथा इसके बाद खर्परदेव थे। पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने के कारण कार्तिकेयपुर वंश में निम्बर वंश की स्थापना हुई। 
कार्तिकेयपुर राजवंश के शासन काल में ही उत्तराखंड में अदि गुरु शंकराचार्यजी का आगमन हुआ था, जिन्होंने केदारनाथ (Kedarnath) तथा बद्रीनाथ (Badrinath) का पुनरुद्धार किया और ज्योर्तिमठ (Joshimath) की स्थापना की। 
निम्बर वंश 
बागेश्वर शिलालेख के अनुसार त्रिभुवन-राज के पश्चात् एक नया राजवंश सत्ता में आया, जिससे निम्बर के नाम से जाना जाता हैI जिसकी स्थापना निम्बर ने की थी। अभिलेखों को आधार मान कर कहा जा सकता है, की निम्बर का पुत्र इष्टगण इस वंश का पहला स्वतन्त्र शासक रहा होगा, क्योंकि उनके लिए अभिलेखों में परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर शब्द प्रयोग किया गया है। इष्टगण और रानी वेगदेवी के पुत्र ललितशूर के 21वें और 22वें राज्यवर्ष के दो ताम्रपत्र पाण्डुकेश्वर में सुरिक्षत हैं। ललितशूर देव (Lalitshur Dev) के बाद यहाँ का राजा भूदेव (Bhudev) बना, जिस ने बोद्ध धर्म का विरोध किया। 
सलोणादित्य वंश 
पाण्डुकेश्वर तथा बागेश्वर ताम्रपत्रों के अनुसार निम्बर वंश के पश्चात सलोणादित्य के पुत्र इच्छटदेव ने नए राजवंश की स्थापना की।सुभिक्षराज के पाण्डुकेश्वर लेख में उसके लिए भुवन-विख्यात-दुर्मदाराति-सीमन्तिनी-वैधव्यदीक्षादान-दक्षेक गुरू: का विश्लेषण प्रयुक्त है। कुमायूं-गढ़वाल से प्राप्त किसी भी राजा के लिए अभी तक ऐसा विश्लेषण नहीं मिला है।

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