मृग मरीचिका सा प्रेम

 मृग मरीचिका सा प्रेम


ये मरुस्थल रूपी प्रेम की डगर

जहाँ दूर तक सुनहरी रेत सा 

फैला विश्वास का सागर

ये रेत कभी उड़ती कभी ठहर जाती

कभी टीला बन जाती तो कभी

ग़ुबार बन कर लिपट जाती मेरे तन को

मैं सुनहरी रेत में लिपटी एक मूर्ति

टकटकी लगाए बैठी हूँ प्रेम की प्रतीक्षा में

कभी रेतीली आँधी उड़ा देती है विश्वास को एकत्रित करती हूँ बिखरी हुई रेत को

फिर साहस बटोरती हूँ 

एक मृग मरीचिका के पीछे भागती हूँ

ये प्रेम ना जीने दे ना मरने दे

ज्वार भाटा बन बस छलता है अपने आप को

कभी सुख की अनुभूति कभी काली रात

आँसुओं  की छटा और दर्द

प्रेम एक तृष्णा है जो बहका देती है 

डूबती उतरती चली जा रही हूँ अकेली 

इस प्रेम के मरुस्थल में

यथार्थ के पटल पर सब नामुमकिन है

पर फिर भी चल रही हूँ

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