बातों-बातों में:-
भूली बिसरी
इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल का इंतजार था। समय के पहिए के साथ-साथ ऋतुओं के चक्र को आगे बढ़ना ही है। हर वर्ष पहाड़ से मैदान और फिर मैदान से पहाड़ तक मीलों लम्बे सफर यूँ ही चलते रहे।
प्रवासी यात्राएं चाहे उच्च हिमालयी क्षेत्रों के शौका-भोटियों की हों या काली-कुमाऊं के मलोटियों (माल प्रवास वाले) की। अब ऐसी प्रवासी यात्राएं नहीं के बराबर ही रह गई ।
माल प्रवास के लिए अपने पछेटियों (साथियों) के साथ छोटी-छोटी आँखों वाले विशन सिंह जिन्हें सब 'काकू' (चाचा) के नाम से जानते थे, एक बार फिर उसी यात्रा के रास्ते में थे। हालांकि पिचहत्तर साल के काकू अभी भी अपने साथ चल रहे उन पछेटिया नौजवानों से कम न थे। पैर के मौजों से लेकर सिर की टोपी तक पूरी की पूरी ऊनी वेश-भूषा। सैकड़ों भेड़, कुछ मैमने, पाँच जुमली प्रजाति के घोड़े और तीन बड़े झबरीले काले बालों वाले भोटिया कुकुर (कुत्ते) गलचौड़ा की देवदार वनी से आगे बढ़ने को तैयार थे।
झुलमुल अंधेरे में काकू का यह कारवां निकल पड़ा। छमनिया चौड़ के बाद लूघाट (लोहाघाट) की बाजार भी पार हो गई। जब रिखेश्वेर (ऋषेश्वर) मंदिर के सामने काफिले की भेड़ें पहुँची तब तक उजाला भी हो चुका था। उधर मंदिर में बज रही घंटियों की टनटनाहट तो इधर मोटर रोड में भेड़ों की भें-भें..., में-में...। घोड़ों के गले में लटकी घांड़ें-खाखरों की टनटन के साथ काकू के मुख से निकल रही आ....आ.. ले..ले... छू...छू.....सी....सी...... और सीटी की आवाज सुबह के सन्नाटे को तोड़ते हुए चौड़ीभाट गाँव के घरों तक जा रही थी। चलते-चलते यह पूरा झुंड मानेश्वर के पास लमाई के दयार (देवदार) वाले तप्पड़ में पहुँच गया। अब आने वाले दो-तीन दिन उन सभी को इसी सराय पर रहना था।
काकू ने अपने कंधे से भारी पिट्ठू नीचे रखने के बाद घोड़ों में लदा हुआ सामान भी नीचे उतारा। बोझ हल्का हो या भारी, पीठ का हो अथवा सिर का, उतारे जाने के बाद ही आराम मिलता है। इसलिए घोड़े भी जमीन में लोटपोट हो कर अपनी थकान मिटाने लगे । पछेटियों ने पहले तम्बू की तिरपाल कसनी शुरू की और फिर दिन का भोजन-पानी का प्रवन्ध करने लगे।
इसके बाद काकू लमाई के दयार की धार (ऊँची पहाड़ी) में जाकर अपनी देखरेख में भेड़ें चराने लगे। उन्हें हुक्का-चिलम गुड़गुड़ाने का शौक जवानी के दिनों से रहा। फ़ुर्सत मिलते ही जेब से तमाख (तंबाकू) की थैली निकाली। हुक्के में भर कर सुलगाई और कश खींचने लगे। इससे उनको यह महसूस होता कि कुछ हद तक थकान मिट गई। रास्ते की शेष थकावट उस धार से इधर-उधर का मनोरम दृश्य देखकर समाप्त होने लगी।
एक तरफ चंद राजाओं की राजधानी रहा हुआ चंपावत नगर, तो दूसरी ओर अंग्रेजों का प्रिय स्थान लोहाघाट। यहाँ से दोनों ही स्थान बहुत साफ-साफ नजर आ रहे थे। सामने खूनाबोरा और खूनामलक नाम के दो गाँव, जिसे अब सभी लोग खूना के नाम से ही जानते और पहचानते। तम्बाकू की आखिरी कश का धुआं उड़ाते-उड़ाते काकू पुरानी यादों के आसमान में उड़ने लगे।
अहा रे! उन्हें खूना वाला अपना पुराना दोस्त लतीफ अहमद याद आ गया। बरसों पहले उस दिन भोला-भाला सा वह लड़का लतीफ जब इसी जगह अपनी भैंसों को चरा रहा था, तभी बातों-बातों में उनका याराना शुरू हुआ। कहते हैं कि मित्रता में उम्र नहीं देखी जाती। फिर तो उनकी ऐसी दोस्ती जमी कि वे हर वर्ष मिलते ही रहे। बाद में लतीफ ड्राइवर बन गया और टनकपुर से धारचूला चलने लगा। बार-बार बातें-मुलाकातें होती रहती। पिछले साल एक दिन जब खबर आई कि घाट वाली बस दुर्घटना में वह नहीं रहा तो काकू भी अपने आंसू रोक न पाए थे।
बड़ा मजाकिया ठहरा लतीफ। कहता था-"काकू तुम ये कैसी हिन्दी बोलते हो- मेरा घोरा (घोड़ा) आ रही है और तेरी गारी (गाड़ी) जा रहा है।" फिर दोनों खिलखिला कर हँसने लगते।
लतीफ अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए शौकाओं के रीति- रिवाज पूछता तो काकू उनकी इस्लामी परम्पराओं के बारे में जानकारी लेते। लतीफ ने ही बताया कि यह खूनामलक ग्राम मनिहारों का गाँव हुआ। मनिहार मुस्लिम बिरादरी के वे लोग हुए जो चूड़ी बनाने और पहनाने का पेशा करते थे। इसलिए उन्हें चूड़ीदार भी कहा गया।
एक बार काकू ने उससे पूछा था कि- "लतीफ भाई ! एक बात बता, तुम लोग यहां काली-कुमाऊं में कब और कैसे आये?"
"काकू! हम मनिहारों के दो-तीन परिवारों को चंपावत के चंद राजा अपने शासनकाल में पाँच-छः सौ साल पहले यहाँ लाए ठहरे बल। राजमहल में रानियों को चूड़ी पहनाने के वास्ते। कहते हैं चंद राजाओं की रानियां चूड़ियां पहनने की बडी शौकीन होती थीं। कुछ तो दिन में एक-दो बार चूड़ियां बदलवाती थीं। मनिहार लोग रंग-बिरंगी चूड़ी बनाने और उन्हें पहनाने में माहिर थे। ऐसे मनिहार जो लाख की चूड़ियां बनाते उन्हें लखेड़े और जो कांच की चूड़ियां बनाते उन्हें कंचेड़े कहा गया।
उसने यह भी बताया था कि हमारे पूर्वज दिल्ली के निकट पालम से शेरकोट (बिजनौर) आये, फिर वहाँ से चम्पावत। धीरे-धीरे जब उनके परिवार बढ़ते गए तो चंद राजाओं ने खूना और मानेश्वर के बीच सारी ज़मीन उन्हें दे दी। इस तरह उनका यह गाँव बसता चला गया।
काकू ने यह भी सुना था कि जब पन्द्रहवी सदी में चंद शासकों ने अपनी राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की तो मनिहारों के परिवार खूना के ही हो कर रह गए। उस जमाने में पहाड़ों में जनसंख्या कम थी। चूड़ी बनाने और गाँव- गाँव जाकर चूड़ी पहनाने का काम इतना अधिक न था कि वहाँ के सभी मनिहार लोगों का इस काम से पेट पल सके। इसलिए मनिहारों ने कृषि और पशुपालन कार्य में ज्यादा तबज्जो देनी शुरू कर दी। हुनरमंद मनिहारों ने बढ़ई गिरी, लकड़ी कटान-चिरान का काम सीख लिया तो कुछ लोग मजदूरी करने लगे। समय के साथ-साथ इन मनिहारों ने भी पढ़-लिख कर अपने रोजगार के अलग-अलग साधन चुन लिए।
काकू को यह पता था कि यहाँ के मनिहार गर्मियों में खूना और और जाड़ों में टनकपुर के मनिहार गोठ बहुत पहले से ही प्रवास करते थे। ब्रिटिश काल में टनकपुर में भी एक सिंचाई नहर थी जो अब टूट गयी। इस नहर के पानी से इन लोगों ने जिस स्थान पर कृषि कार्य किया वह जगह मनिहार गोठ कहलाई। बाद में खूनामलक के अधिकांश परिवार मनिहार गोठ में ही रहने लगे।
लतीफ की मनिहारी बोली काकू को बड़ी प्यारी लगती थी। पिछले पाँच-छः सौ सालों में मनिहारों ने काली-कुमाऊं की कुमय्या बोली को अपने लम्बे और धीरे-धीरे वाले लहजे में बोलना सीखा, तो यह परंपरा आगे बढ़ती ही गई और अब उसने मनिहारी बोली का रूप ले लिया।
बातों-बातों में लतीफ ये भी कहता काकू जैसे तुमसे मेरी गहरी दोस्ती है। उसी तरह खूनाबोरा के बोरा लोगों से हम मनिहारों का आत्मीय लगाव है। यहाँ सब एक-दूसरे के दुःख-सुख का ध्यान रखते आये।
अब रोजगार की तलाश में खूना के ज्यादातर मनिहार लोग इस गाँव से पलायन कर चुके हैं। उनके काले पाथरों की छत और पटालदार आँगनों वाले घरों की लंबी-लंबी बाखलियां (पट्टियां) की चहल-पहल अब सूनेपन में बदल गयी थी। जिन खेत-खलिहानों में फसलें दिखती थी, वे भी सब बंजर दिख रहे थे। लतीफ के उस गाँव को देखते-देखते काकू भूली बिसरी यादों में खोये थे। वह तब उठ खड़े हुए, जब उनके साथी ने धात(आवाज) लगाई कि " शिकाड़-भात तैयार हो गया....आओ..... खाना खा लो.....।"
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