टिंचरी माई.
नशा हमेशा से ही उत्तराखण्ड की प्रमुख समस्या रहा है.
Tincture Mai. Movement of Nasha Mukt Uttarakhand |
दीपा नौटियाल उर्फ़ टिंचरी माई का जन्म 1917 में ग्राम मंज्युर, तहसील थलीसैण, पौड़ी-गढ़वाल के एक गरीब परिवार में हुआ था. जिंदगी ने दीपा की नियति में कई कड़े इम्तहान तय किये थे. 2 साल की उम्र में दीपा ने अपनी माँ को खो दिया. इससे पहले कि दीपा माँ और उसकी ममता जैसे शब्दों से परिचित होती. उन भावों के अपनी जिंदगी में न होने के अर्थ को समझ पाती, महसूस कर पाती, उनके पिता भी इस दुनिया में नहीं रहे. इस समय दीपा मात्र पांच साल की थी.
ये वो दौर था जब लड़कियों की स्कूली शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जाता था. फिर दीपा तो उन पहाड़ों में रहने वाली थी जहाँ तब लड़कों की पढ़ाई भी दूर की कौड़ी हुआ करती थी. बाल-विवाह उन दिनों एक सामान्य भारतीय रिवाज था. लड़कियों को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था. माता-पिता की मृत्यु के बाद दीपा के दयालु चाचा ने उनकी परवरिश की और उस वक़्त के सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उनका बाल-विवाह कर दिया. इस समय दीपा की उम्र मात्र 7 साल थी. सेना में सिपाही गणेश राम उनका पति हुआ, जो दीपा से उम्र में 17 साल बड़ा था. दीपा की खुशकिस्मती कि उन्हें गणेश के रूप में एक अच्छा और समझदार पति मिला. गणेश उस वक़्त ब्रिटिश आर्मी के लिए रावलपिंडी में तैनात थे. उन्होंने दीपा को एक बच्ची की तरह से प्यार-दुलार दिया. ड्यूटी में जाने से पहले गणेश दीपा को अपने हाथों से नहलाते-धुलाते और तैयार करते थे. लावारिस बचपन जीने के बाद अब दीपा का बाकी का बचपन और किशोरावस्था अपने पति के साथ ठीक-ठाक मजे में कट रहे थे.
वक़्त का अगला इम्तहान दीपा के लिए तय था सो उनके पति विश्व युद्ध में मारे गए. इस समय दीपा 19 साल की थी. किशोरावस्था में ही दीपा न सिर्फ विधवा हो गयी थी बल्कि अब उनका इस दुनिया में कोई नहीं था. न माता-पिता न पति. डिविजन अफसर ने दीपा को अपने पति का पैसा ले जाने के लिए बुलाया. पैसा दीपा को सौंप दिया गया. अब दीपा के पास इतना पैसा था कि वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू कर सके. लेकिन सवाल यह था कि दीपा जाये तो कहाँ जाए.
इस मुश्किल वक़्त में दीपा ने आत्मनिर्भर बनने का फैसला लिया और लैंसडाउन आ गयी. एक ब्रिटिश अफसर ने सेना से प्राप्त धनराशि को यहाँ के एक पोस्ट ऑफिस में जमा करवा दिया और एक ग्राम प्रधान को जिम्मेदारी दी की वह दीपा को उसके ससुरालियों के पास पहुंचा दे. ससुराल में कोई भी नहीं चाहता था कि दीपा यहाँ रहे लिहाजा यहाँ उसके साथ दुर्वयवहार होने लगा. उस समय यूँ भी विधवाओं के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार किया जाता था. उन्हें घरों से भगा दिया जाता, वे यहाँ-वहां भटककर खानाबदोश जिंदगी जीतीं या फिर घुट-घुटकर मर जातीं. लेकिन जिजीविषा का ही दूसरा नाम दीपा था. हर बार पटककर गिरा दिए जाने के बाद दोबारा तनकर खड़ी होने वाली दीपा.
ससुराल के उत्पीड़न से तंग आकर दीपा ने अपना ससुराल छोड़ने का फैसला किया और लाहौर आ गयी. लाहौर में वे एक मंदिर में आश्रय लेकर रहने लगीं. यहाँ दीपा की जिंदगी का एक नया अध्याय लिखा जाना था. यहाँ दीपा की मुलाकात एक सन्यासिन से हुई और उसके सानिध्य में दीपा ने संन्यास लेने का फैसला किया. संन्यास ने दीपा को नया नाम दिया –इच्छागिरी माई.
1947 में इच्छागिरी माई बन चुकी दीपा हरिद्वार आ पहुंची. यहाँ वह चंडीघाट में रहने लगीं. यहाँ रहते हुए इच्छागिरी माई ने पाया कि साधू-संत, सन्यासी अफीम, दम-दारू के नशे समेत कई व्यसनों में डूबे हुए हैं. दीपा को यह देखकर बहुत अफ़सोस हुआ कि जिन साधू-महात्माओं में लोगों की गहन आस्था है वे ही व्यसनी, कुकर्मी हैं. उन्होंने भक्तों-श्रद्धालुओं के सामने इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश करने का निश्चय किया. यहाँ से उनके जीवन की नयी भूमिका शुरू होने वाली थी. माई अकेली थी और उनके दुश्मनों की तादाद काफी ज्यादा थी और वे एकजुट भी थे. इन कुकर्मी संतों का पर्दाफाश कर वे यहाँ से कोटद्वार के लिए चल पड़ी.
कोटद्वार के भाबर सिगड़ी गाँव में उन्होंने उन्होंने अपने हाथों से कुटिया बनायी और उसमें रहने लगीं. जल्द ही माई का सामना इस गाँव के भीषण जल संकट से हुआ. गाँव की महिलाओं को पानी लाने के लिए बहुत दूर-दूर जाना पड़ता था. अब माई ने गाँव के जल संकट को ख़त्म करने को ही अपना मिशन बना लिया. वे इस समस्या के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने लगीं. किसी ने भी उनकी सुनवाई नहीं की. इसके बाद माई ने वह किया जिसके लिए आज भी अच्छे-अच्छों की हिम्मत नहीं पड़ सकती है.
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