अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है यादे ही शेष है / Now I wonder who is in real darkness, only memories remain.

अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है यादे ही शेष है / Now I wonder who is in real darkness, only memories remain.

लगभग जमीन को छूता हमारा सर और मध्यम सी रोशनी, लेकिन फिर भी काम चल ही जाता था। लम्फू मेरे तरफ कर, नहीं मेरे तरफ कर इसमें लड़ाई भी हो जाती थी। ईजा गोठ से आवाज लगातीं- "भतेरपन किकाट-भिभाट किले पाड़ि रहो छा" (अंदर हल्ला क्यों मचा रखा है)। ईजा की आवाज़ सुनते ही हम चुप हो जाते थे। फिर लिखना -पढ़ना शुरू हो जाता था। 

          कभी-कभी तो झुके होने के कारण सर के बाल भी लम्फू की लौ से जल जाते थे। पहले तो पता नहीं चलता था पर जब बालों से 'भड़ेन' (बालों के जलने की बदबू) आने लगती थी तो पता चलता था। तब तक कुछ बाल जल चुके होते थे। उसके बाद तो कुछ देर बालों पर ही हाथ रहता था।
    
          लम्फू की रोशनी इतनी कम होती थी कि उसको घेर कर बैठ जाने से पूरे भतेर में अंधेरा हो जाता था। हम में से कोई भी 'दिहे' (बाहर, देहरी ) की तरफ नहीं बैठना चाहता था। अंधेरा होने के कारण डर लगता था कि कहीं देहरी से आकर बाघ न ले जाए। कभी -कभी तो एक- दूसरे को डरा भी देते थे- "ऊ देख त्यर पच्छिन के छु" (वो देख तेरे पीछे क्या है)।
          भतेर से गोठ तब तक नहीं आते थे जबतक ईजा खाने के लिए आवाज न लगा दें। रोटी बनते ही ईजा "धात" (आवाज) लगाती थीं - "रोट खेहें आवो रे" (रोटी खाने के लिए आओ)। हम ईजा की धात का ही इंतजार कर रहे होते थे। कान में आवाज पड़ते ही 'चट' (तुरंत) किताब बंद, लम्फू अपनी जगह पर रखकर, भागे-भागे गोठ पहुंच जाते थे। ईजा वहीं से कहती- "अरामेल अया लफाईला" (धीरे-धीरे आना, गिरोगे)। बाहर इतना अंधेरा होता था कि डर के मारे हम भाग कर ही आते थे।
          गोठ में ईजा के साथ बैठकर रोटी खाते थे। लम्फू की रोशनी मुश्किल से ही सब्जी की कटोरी तक पहुंच पाती थी। फिर भी एक अभ्यास बन चुका था। हाथ अंधेरे में भी कटोरे में ही पड़ता था। कभी खाते हुए लम्फू बुझ जाता था तो ईजा कहती थीं- "यक खानी ड्यां अन्हारी हैं छ" (खाते समय ही अंधेरा होता है)। बाद में वो अंधेरा दूसरे रूप में बढ़ता गया।
          लम्फू के बाद लालटेन, टेबल लम्फू, 'गैस' (पेट्रोमैक्स) और बिजली तक का सफर रोशनी के घेरे ने तय किया। पहाड़ में जैसे-जैसे रोशनी का घेरा बढ़ा वैसे-वैसे घरों में अंधेरे भी बढ़ने लगा। गाँव के गाँव बढ़ती रोशनी के बावजूद भी अंधेरे की भेंट चढ़ गए। 
          
          ईजा ने अब भी लम्फू की जगह, और लम्फू को जिंदा रखा है। वह आज भी तेज रोशनी की आदी नहीं हैं। घर में बिजली के बावजूद मध्यम रोशनी के बल्ब ही ईजा ने लगा रखे हैं। आज भी उनको वही रोशनी अच्छी लगती है जिसके घेरे से हम जगमगाती दुनिया में आ गए। ईजा वहीं, उसी अंधेरे में रह गईं। 
अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है यादे ही शेष है ।

टिप्पणियाँ