फुलदेई पर टोकरी में फूल लेकर घर-घर पहुंचते हैं बच्चे 💐 14 को मनाया जाएगा

 फुलदेई पर टोकरी में फूल लेकर घर-घर पहुंचते हैं बच्चे 💐 14 को मनाया जाएगा

फूलेदई, छम्मा देई, 
दैणी द्वार, भरी भकार, 
ये देली स बारंबार नमस्कार, 
पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार...
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 (आपकी देहरी (दहलीज) फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली (क्षमाशील) हो, घर व समय सफल रहे, भंडार भरे रहें, इस देहरी को बार-बार नमस्कार, द्वार खूब फूले-फले...) गीत की पंक्तियों के साथ उत्तराखंड में फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।
उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है। कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है। वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है।
फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल की टोकरी लेकर फ्यूंली, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहरियों में फूल बिखेरते हैं। इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहरियों में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है।) बनाने की परंपरा भी है।
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‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार’ गीत गाते हुए बच्चों को लोग इसके बदले में दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा (रुपए) दान करते हैं। पूरे माह में यह सब जमा किया जाता है। इसके बाद घोघा (सृष्टि की देवी) पुजाई की जाती है। चावल, गुड़, तेल से मीठा भात बनाकर प्रसाद के रूप में सबको बांटा जाता है। कुछ क्षेत्रों में बच्चे घोघा की डोली बनाकर देव डोलियों की तरह घुमाते हैं। अंतिम दिन उसका पूजन किया जाता है। 
पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है। यह त्योहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। बच्चों से जुड़ा त्योहार होने के चलते इसे खूब पसंद भी किया जाता है। 

पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह पर्व मनाया जाता है। रोम में फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, जिसके हाथों में फूलों की टोकरी है। देवी के सिर पर फूलों और पत्तों का ताज होता है। 
फूलदेई पूरी तरह बच्चों का त्योहार है। इसकी शुरुआत से लेकर अंत तक का जिम्मा बच्चों के पास ही रहता है। इस त्योहार के माध्यम से बच्चों का प्रकृति और समाज के साथ जुड़ाव बढ़ता है। यह हमारी समृद्ध संस्कृति का पर्व है।

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