गढ़वाल का राजा पृथ्वीपतशाह सम्वत् 1697

पृथ्वीपतशाह

गढ़वाल  का राजा  पृथ्वीपतशाह सम्वत् 1697

इतिहासकारों का मत है कि पृथ्वीपतशाह 7 वर्ष की अल्पायु में गद्दी पर बैठा था। अतः महीपतशाह की रानी एवं पृथ्वीपत की माँ रानी कर्णावती ने उसकी संरक्षिका के रूप में गढ़वाल की सत्ता की सम्भाली। वह गढ़वाल के इतिहास में 'नाककटटी रानी' के नाम से प्रसिद्ध है। उनका सवंत् 1697 (1640 ई0) के ताम्रपत्र' से जो हाट ग्राम निवासी एक हटवाल ब्राह्मण को भूमिदान के पट्टे पर देने का है। इसके अनुसार पृथ्वीशाह की माताश्री महाराणी कर्णावती द्वारा सन् 1640 ई0 में हाट के ब्राह्मण को भूमि दान दिया गया। रानी कर्णावती का उल्लेख हस्तलिखित 'साँवरी ग्रन्थ' में भी आया है।

डॉ० डबराल ने रानी कर्णावती का साम्य 'नाक कटी रानी' नाम से किया है। ऐसा उन्होंने एक मुगल वृतांत के आधार पर किया है जिसके अनुसार मुगल सम्राट इस तथ्य से परिचित थे कि गढ़राज्य में एक स्त्री शासन कर रही है। 'स्टोरियो डू मोगोर के लेखक के अनुसार शाहजहाँ के शासनकाल में मुगलों की एक लाख पदाति एवं तीस हजार घुडसवारों की सेना को गढराज्य पर आक्रमण के लिए भेजा गया। इस आक्रमण में गढराज्य के वीरों ने रानी कर्णावती के निर्देशन में मुगल सेना को तहस-नहस कर दिया और जीवित पकड़े सैनिकों की नाक काट दी गई। 'महासिरूल उमरा में भी गढ़राज्य के इस शौर्य का वर्णन है। इसके अनुसार इस आक्रमण का मुगल सेनापति 'नजावत खॉ' था जिसने दिल्ली जीवित पहुँचकर आत्महत्या कर ली। इससे भी बचे सैनिकों की नाक काटने की घटना की पुष्टि होती है।

मुगल शासक शायद इस अपमान को भुला नहीं पाये किन्तु यह रानी कर्णावती की योग्यता का ही प्रमाण है कि इस आकमण का बदला लेने के लिए भारत के सम्राट को 19 वर्ष इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1655 ई0 में खल्लीतुल्ला के नेतृत्व में गढराज्य पर पुनः मुगल आक्रमण हुआ। पिछले आकमण में मुँह की खाने के कारण इस बार मुगल सेना ने सिरमौर राजा मान्धाता प्रकाश और कुमाऊँ के चन्द राजा बाजबहादुर की सहायता ली। फिर भी वे दून घाटी एवं कुछ किलों को ही विजित करने में सफल रहे। 'ओरिएण्टल सीरीज' के अनुसार राजधानी श्रीनगर अविजित ही रही। सम्भवतः इस बीच समझौता सम्पन्न हो गया क्योंकि गढ़ राजकुमार मेदनीशाह दिल्ली गए जहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया था।

उत्तराधिकार युद्ध में औरंगजेब अन्ततः विजित हुआ। पराजित राजकुमार दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को शरण देने के कारण कालान्तर में मुगलों से गढ़राज्य सम्बन्ध तनावपूर्ण हुए। औरंगजेब ने पृथ्वीपत को पत्र द्वारा भगोड़े राजकुमार को
दिल्ली को सौपने के लिए लिखा। पृथ्वीपतशाह ने मुगल चेतावनी को नजरअंदाज ही किया। फलतः 'ट्रैवल्स इन इडिया के अनुसार मुगल आक्रमणों के द्वारा गढ़राज्य को भयभीत करने का प्रयास किया गया किन्तु गढ़वाल की सेना ने हर बार मुगल सेना को अपार क्षति पहुँचाई। अन्ततः औरंगजेब ने कूटनीति का सहारा लिया। कानूनगों के अनुसार राजा जयसिंह ने श्रीनगर दरबार के अधिकारियों को प्रलोभन दिए। राजकुमार सुलेमान को विष देकर मरवाने का प्रयत्न किया। हर तरह से असफल होने पर उन्होंने पृथ्वीपत के पुत्र राजकुमार मेदिनी से अपने पिता के विरूद्ध षडयंत्र करवाया। पृथ्वीपत द्वारा अपने गद्दार सरदार का सरकलम करने के कारण अन्य सरदारों एवं राजपरिवार के सदस्यों में भय उत्पन्न हुआ फलतः मेदिनी के नेतृत्व में पृथ्वीपतशाह के विरूद्ध विद्रोह हो गया। इस बीच राजा जयसिंह का पुत्र रामसिंह सुलह के लिए गढ़वाल आया किन्तु पृथ्वीपत ने पुनः राजकुमार सुलेमान की रक्षा का प्रण दोहराया। इस बीच षडयंत्र के डर से सुलेमान स्वयं ही भाग खड़ा हुआ जिसे गढ़वाल के सीमाप्रान्त के ग्रामीणों ने पकड़कर मेदनीशाह को सौप दिया। मेदनी सुलेमान को पकड़कर दिल्ली में ले गया, जिसकी 1662 ई0 में दिल्ली में मुत्यु हुई। इस घटना का उल्लेख औरंगजेब के पृथ्वीशाह को लिखे पत्र से होता है। इसके अतिरिक्त के०पी० श्रीवास्तव की पुस्तक 'मुगल फरमान' से भी होता है। इसी पुस्तक में 1665 ई0 का एक फरमान संग्रहीत है जिसमें औरंगजेब ने पृथ्वीपतशाह की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठने के लिए पृथ्वीपत के पौत्र फतेशाह को बधाई दी गई है। अतः राजकुमार मेदनीशाह को गद्दी पर बैठने अवसर ही नहीं मिला।

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