1857 के पश्चात् उत्तराखण्ड.जाति आधारित संस्थाएं, जाति निरपेक्ष संस्थाएं

1857 के पश्चात् उत्तराखण्ड: जाति आधारित संस्थाएं और जाति निरपेक्ष संस्थाएं

1857 ईस्वी के बाद भारत में राजनैतिक चेतना का एक नया दौर शुरू हुआ, जो विशेष रूप से उत्तराखण्ड क्षेत्र में गहरे प्रभावी हुआ। इस समय का एक प्रमुख पहलू था—सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का विकास। ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष बढ़ने के साथ ही, उत्तराखण्ड में भी कई परिवर्तन हुए। यह परिवर्तन न केवल सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे, बल्कि राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली साबित हुए।


1857 के पश्चात उत्तराखण्ड की स्थिति

1857 के विद्रोह के बाद उत्तराखण्ड में राजनीतिक और सामाजिक चेतना का एक नया दौर शुरू हुआ। 1870 ई. में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब की स्थापना की गई, जिसने मिशन स्कूलों के माध्यम से शिक्षा और सामाजिक सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। इसके माध्यम से नरम दलीय चेतना का प्रसार हुआ और अल्मोड़ा अखबार ने ब्रिटिश प्रशासन की नीतियों पर आलोचना शुरू की।

साथ ही, 1901 में देहरादून में "गढ़वाल यूनियन" की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य बेगार प्रथा और अन्य समस्याओं को प्रांतीय कौन्सिल और गर्वनर जनरल की कौन्सिल तक पहुँचाना था। इस समय तक गढ़वाल क्षेत्र में भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष की भावना पनपने लगी थी, और अल्मोड़ा अखबार ने इस असंतोष को आवाज देने का काम किया।

प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का विकास

1883 में अल्मोड़ा में इलबर्ट बिल के समर्थन में एक सभा आयोजित की गई, जिसमें बुद्धिबल्लभ पंत ने नेतृत्व किया। 1897 में, दयानंद सरस्वती ने हरिद्वार कुम्भ में 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई और इस अवसर पर महन्त नारायण दास भी उपस्थित थे। इस समय के प्रमुख आंदोलनों में एक और महत्वपूर्ण घटना थी जब दयानंद सरस्वती को धर्मान्तरण रोकने के लिए देहरादून बुलाया गया। उनके प्रभाव से देहरादून क्षेत्र में धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया पर काबू पाया गया।

ब्रिटिश शासन के तहत कुमाऊं और गढ़वाल में कई सुधारों की शुरुआत की गई, लेकिन कर्टिस और वेस्टन महोदय जैसे अधिकारियों ने उत्तराखण्ड को 'गैर आइनी क्षेत्र' घोषित कर दिया, जिससे इन सुधारों का लाभ यहाँ के लोगों को नहीं मिल सका। इसके बाद कुमाऊं में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, और अंततः 1916 में कुमाऊं कमिश्नरी को एक नामजद सदस्य मिला।

उत्तराखण्ड की सामाजिक संस्थाओं का योगदान

1857 के बाद उत्तराखण्ड में सामाजिक जागरूकता बढ़ी, और इसके साथ ही कई जाति आधारित और जाति निरपेक्ष संस्थाओं की स्थापना हुई। इन संस्थाओं ने सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया और क्षेत्रीय असंतोष को एक संगठित रूप दिया।

  1. जाति आधारित संस्थाएं:

    • सरोला सभा: 1884 में तारादत्त एवं उनके साथियों द्वारा ब्राह्मणों के सामाजिक उत्थान के लिए सरोला सभा की स्थापना की गई।
    • गोरक्षणी सभा: 1907 में धनीराम वर्मा द्वारा कोटद्वार में गोरक्षणी सभा की स्थापना की गई।
    • गढ़वाल भ्रात्री मंडल: 1907 में मथुरा प्रसाद नैथानी ने लखनऊ में गढ़वाल भ्रात्री मंडल की स्थापना की। इस मंडल का उद्देश्य बंधुत्व और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना था।
    • गढ़वाल सभा: 1914 में गढ़वाल क्षेत्र में सुधारवादियों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें विभिन्न संस्थाओं और समाचार पत्रों के एकीकरण पर विचार किया गया। 1915 में दुगड्डा में स्टोवल प्रेस की स्थापना की गई।
  2. जाति निरपेक्ष संस्थाएं:

    • कुमाऊं कांग्रेस: 1912 में कुमाऊं क्षेत्र में कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसका श्रेय उदारवादी नेताओं को दिया जाता है। स्वामी सत्यदेव ने 1913 में कुमाऊं क्षेत्र का भ्रमण किया और शुद्ध साहित्य संस्था की स्थापना की।
    • होमरुल आंदोलन: 1914 में यहाँ के लोगों ने होमरुल आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज की, जिसमें मोहन जोशी, चिरंजीलाल, और बदरीदत्त पाण्डे जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में सहयोग किया।
    • कुमाऊं परिषद: 1916 में गोविंदबल्लभ पंत और प्रेम बल्लभ ने मिलकर कुमाऊं परिषद की स्थापना की। इस परिषद ने कुली-उतार, वन कानून लाइसेंस, और नयाबाद जैसे मुद्दों पर आवाज उठाई। 1923 में कुमाऊं परिषद का विलय कांग्रेस में कर दिया गया।

1870 से 1980 तक का कृषि और पलायन का प्रभाव

1870 से 1980 तक गढ़वाल क्षेत्र में अकाल की स्थितियों ने यहाँ की आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया। इसके परिणामस्वरूप पलायन की प्रक्रिया तेज हुई, जिससे मनीआर्डर अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासन के तहत बेगार प्रथा और वन कानूनों में बदलाव से स्थिति और भी विकट हो गई। इस दौरान असंतोष और सामाजिक जागरूकता बढ़ी, और इसे रोकने के लिए कई सामाजिक संस्थाओं का निर्माण हुआ।

निष्कर्ष

1857 के बाद उत्तराखण्ड में जाति आधारित और जाति निरपेक्ष दोनों प्रकार की संस्थाओं ने सामाजिक सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन संस्थाओं के माध्यम से क्षेत्रीय असंतोष को संगठित किया गया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ जन जागरूकता का प्रसार किया गया। इस समय के सामाजिक आंदोलनों ने भविष्य में उत्तराखण्ड के राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया और एक मजबूत सामाजिक ढांचे की नींव रखी।

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