1857 के पश्चात् उत्तराखण्ड.जाति आधारित संस्थाएं, जाति निरपेक्ष संस्थाएं

1857 के पश्चात् उत्तराखण्ड.जाति आधारित संस्थाएं, जाति निरपेक्ष संस्थाएं

1857 के पश्चात् उत्तराखण्ड

1857 ई0 के पश्चात् क्रमशः राजनैतिक चेतना के एक नए युग का आरम्भ हुआ। 1870 ई0 में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब की स्थापना की गई। इसने मिशन स्कूलों के प्रसार में सहयोग कर एवं अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से नरम दलीय चेतना का प्रसार शुरू किया। वर्ष 1901 में देहरादून में "गढ़वाल यूनियन" की स्थापना हुई जिसके प्रयासों के बाद बेगार सम्बन्धी प्रश्न प्रान्तीय कौन्सिल और गर्वनर जनरल की कौन्सिल में प्रथमतः उठाए गए। आंग्ल प्रशासकों का अधिक समय नैनीताल में व्यतीत होता था। फलतः अल्मोड़ा अखबार ने गढ़वाल की सड़कों इत्यादि की उपेक्षा पर चिन्ता जताते हए सुधार की मांग की। इस प्रकार आंग्ल प्रशासन की विसंगतियों के विरोध एवं असंन्तोष के स्वरों को नवशिक्षित सुधारवादियों ने आन्दोलन के द्वार तक पहुँचाने का प्रयास किया।
1883 ई0 में अल्मोड़ा में इलबर्ट बिल के समर्थन में सभा आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता बुद्धिबल्लभ पंत ने की थी। वर्ष 1897 ई0 में दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार कुम्भ में 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई, इस अवसर पर महन्त नारायण दास उपस्थित रहे। दयानन्द सरस्वती को धर्मान्तरण की प्रकिया को रोकने के लिए देहरादून आमंत्रित किया गया। उन्होंने आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार किया एवं उनके प्रभाव के परिणामस्वरूप देहरादून क्षेत्र में हो रही धर्म परिवर्तन की प्रकिया पर काफी हद तक रोक लगी। दयानन्द सरस्वती की भाँति विवेकानन्द ने भी उत्तराखण्ड का भ्रमण कर पुर्नजागृति के संदेश का प्रसार किया।

महारानी के शासन में कौंसिलों का जन्म हुआ जिसमें सरकारी एवं गैरसरकारी सदस्यों का मनोनयन होता था। किन्तु कर्टिस महोदय एवं वेस्टन महोदय के कारण उत्तराखण्ड क्षेत्र को इन सुधारों का लाभ नहीं मिला क्योंकि इन्होंने इस क्षेत्र को 'गैर आइनी क्षेत्र' घोषित कर दिया था। अतः इसके विरूद्ध कुमाऊँ क्षेत्र में आन्दोलन हुए। अन्ततः 1916 ई0 में कुमाऊँ कमिश्नरी को एक नामजद मेम्बर मिला एवं तारादत्त गैरोला को सरकार द्वारा कौंसिल सदस्य नामजद किया गया। यद्यपि कुमाऊँ कमिश्नरी को अपना प्रतिनिधि छाँटने का वास्तविक अधिकार 1921 ई0 में प्राप्त हुआ।

1870 से 1980 के मध्य उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में निरन्तर पड़ने वाले अकाल से यहाँ की आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था का अन्त हो गया। इस कारण पलायन इस क्षेत्र की मजबूरी बन गयी जिसके कारण मनीआर्डर अर्थव्यवस्था का उदय भी इसी चरण में हुआ। अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के साथ बेगार प्रथा एवं वन कानून को ब्रिटिश हित के अनुक्रम में परिवर्तित किए जाने से स्थिति और भी विकट होने लगी। धीरे-धीरे असंतोष सम्पूर्ण क्षेत्र में व्याप्त होने लगा। इस असंतोष के फलस्वरूप सामाजिक क्षेत्र में जन-जागरण की तंरगे उत्पन्न हुई। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कई सामाजिक संस्थाओं की स्थापना हुई। ये सामाजिक संस्थाए दो प्रकार की थी-
1. जाति आधारित संस्थाएं
2. जाति निरपेक्ष संस्थाएं
'सरोला सभा' इस क्षेत्र की प्रथम जाति आधारित संस्था थी जिसकी स्थापना 1884 में तारादत्त एवं साथियों ने ब्राह्मणों के सामाजिक उत्थान के लिए किया। धनीराम वर्मा ने 1907 में कोटद्वार नगर में गोरक्षणी सभा की स्थापना की। इसके पश्चात् 1907 में मथुरा प्रसाद नैथानी के प्रयासो से लखनऊ में गढ़वाल भृात्र मण्डल की स्थापना की गई जिसका प्रथम सम्मेलन कुलानन्द बड़थ्वाल की अध्यक्षता में 1908 ई० में कोटद्वार में हुआ। इस मण्डल का मुख्य उद्देश्य बन्धुत्व एवं सहयोग की भावना का प्रसार करना था। 1914 ई० में सुधारवादियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें गढ़वाल क्षेत्र में विद्यमान सभी सभाओं एवं समाचार पत्रों के एकीकरण पर विचार हुआ। साथ ही इसमें गढ़वाल सभा की भावी रूपरेखा का भी निर्धारण किया गया। इसके साथ ही दुगड्डा में स्टोवल प्रेस की स्थापना 1915 में की गई।

कुमाऊँ क्षेत्र में कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1912 ई0 में हुई। इस क्षेत्र में कांग्रेस की स्थापना का श्रेय उदारवादी वाचस्पति दत्ता, ज्वालादत्त जोशी, हरिराम पाण्डे, सदानंद सनवाल आदि को दिया जा सकता है। 1913 में स्वामी सत्यदेव ने कुमाऊँ क्षेत्र का भ्रमण किया और शुद्ध साहित्य नामक संस्था की स्थापना की। 1914 में आरम्भ होमरुल में भी यहाँ के लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। मोहन जोशी, चिरंजीलाल, बदरीदत्त पाण्डे इत्यादि ने इस क्षेत्र में होमरुल की स्थापना कर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग किया। 1916 ई० में गोविन्दबल्लभ पंत, प्रेम बल्लभ इत्यादि ने मिलकर "कुमाऊँ परिषद" की स्थापना की। इसका प्रथम अधिवेशन 1917 ई0 में अल्मोड़ा में हुआ जिसकी अध्यक्षता जयदत्त जोशी ने की। परिषद् ने कुली-उतार, वन कानून लाईसेंस, नयाबाद एवं बंदोबस्त जैसे मुद्दो के विरोध में अपनी आवाज बुलन्द की। कालान्तर में वर्ष 1923 में परिषद् का विलय कांग्रेस में कर दिया गया।

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