युगवाणी, प्रजाबन्धु, प्रारम्भिक स्वरुप, द्वितीय स्वरुप,

युगवाणी, प्रजाबन्धु,  प्रारम्भिक स्वरुप, द्वितीय स्वरुप

युगवाणी (साप्ता/मासिक), 1947 ई0

टिहरी जनक्रान्ति के महानायक रहे श्रीदेव सुमन की शहादत के बाद प्रजामंडल आन्दोलन में शिथिलता आ गई थी। रियासत में एकबार पुनः चारों ओर राजशाही का खौफ फैल गया। अब प्रजामंडल के शीर्ष कार्यकर्ताओं द्वारा रियासत से दूर देहरादून से आन्दोलन का संचालन करने का निर्णय लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर टिहरी के कुछ बुद्धिजीवियों तथा प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं ने देहरादून में एक सम्मेलन में प्रजामंडल आन्दोलन पुनः प्रारम्भ करने का निश्चय किया तथा आन्दोलन को उचित दिशा निर्देश देने व उसके समाचारों को जन सामान्य तक पहुँचाने के उददेश्य से एक समाचार पत्र प्रकाशित करने का भी निर्णय किया गया।


इसके लिए भी टिहरी रियासत की बजाय देहरादून को ही उपयुक्त माना गया। अतः टिहरी के मूल निवासी काशी विद्यापीठ के प्राचार्य भगवती प्रसाद पांथरी के सम्पादन में 15 अगस्त 1947 को देहरादून से युगवाणी नामक समाचार पत्र का पहला अंक प्रकाशित हुआ। प्रजामंडल के सकिय कार्यकर्ता तेजराम भट्ट का इसके प्रकाशन में भी सक्रिय सहयोग रहा। प्रारम्भ में कुछ समय पाक्षिक प्रकाशन के बाद इसका स्वरूप साप्ताहिक हो गया और अब सम्पादन का पूर्ण दायित्व आचार्य गोपेश्वर कोठियाल पर आ गया।
चूंकि 'युगवाणी' का प्रकाशन स्वतंत्रता के दिन से प्रारम्भ हुआ था। अतः इस पत्र का देश की आजादी में कोई योगदान नहीं था किन्तु टिहरी जनक्रान्ति में रियासत के विरूद्ध इस पत्र की अहम् व महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस पत्र ने रियासत में राजा के द्वारा किये जा रहे जोर जुल्मों को प्रचार तो किया ही साथ ही इनका पुरजोर विरोध भी किया। अतः इसका राजा का कोपभाजन बनना स्वभाविक था। 'राजाज्ञा से इसका रियासत में प्रवेश वर्जित हो गया किन्तु फिर भी हर क्रान्तिकारी के पास इसकी प्रति हुआ करती थी। सन् 1949 में टिहरी रियासत का उत्तर प्रदेश में विलय हो गया। इसके साथ ही रियासत के विरुद्ध चलाये जा रहे सभी आन्दोलन भी समाप्त हो गये तो 'युगवाणी' के आक्रामक तेवर भी नरम पड़ने लगे। अब 'युगवाणी' द्वारा आम जनता के उत्थान हेतु रचनात्मकता की ओर रूख कर लिया।टिहरी रियासत की जनक्रान्ति में 'युगवाणी' की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण थी कि इतिहासकारों ने इसे रूस की क्रान्ति में लेनिन द्वारा सम्पादित पत्र 'इस्त्रां' के समकक्ष रखा। गोविन्द नेगी 'आग्नेय' तथा अन्य कई पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत इसी पत्र से की। पत्रकारिता व साहित्य के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को प्रेरित करने व आगे बढ़ाने में भी 'युगवाणी' की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गोपेश्वर कोठियाल की मृत्यु के पश्चात् उनके सुपुत्र संजय कोठियाल पत्र के सम्पादन का दायित्व निभा रहे है। सन् 2001 से 'युगवाणी' मासिक पत्रिका के रूप में नियमित प्रकाशित हो रही है।

प्रजाबन्धु (साप्ता0), 1947 ई०

रानीखेत के मूल निवासी स्वतंत्रता सेनानी जयदत्त वैला ने सन् 1947 में प्रजाबन्धु नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन रानीखेत से प्रारम्भ किया। यह पत्र प्रारम्भ से ही कांग्रेसी विचारधारा का समर्थक रहा किन्तु कुछ समय नियमित चलने के पश्चात् यह बन्द हो गया।

स्वाधीनता पूर्व की पत्रकारिता के 105 वर्षों के उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से ज्ञात होता है कि भले ही हम अध्ययन की सुविधा हेतु इन 105 वर्षों को तीन चरणों में विभक्त कर लें किन्तु यदि इन तीनों चरणों की पत्रकारिता को सम्मिलित रूप से देखे तो इसके स्वरूप को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

  • प्रारम्भिक स्वरुप

इस दौर की पत्रकारिता में उपनिवेशवाद की झलक मिलती है। चूंकि अधिकांश समाचार-पत्र अंग्रेजी प्रशासन के अनुरूप छपते थे। अतः उनमें उतनी ही सूचना जन-सामान्य के लिए होती थी जितनी की अंग्रेजी सरकार चाहती थी। साथ ही कभी-कभी सामाजिक पिछड़ेपन के मुददों को भी उजागर किया जाता किन्तु इनके सम्बन्ध में भी अंग्रेजों के अनसार ही विचार व्यक्त किये जाते।

  • द्वितीय स्वरुप

इसमें पत्रकारिता ने राष्ट्रीयता की ओर रूख किया। बीसवीं सदी का पहला दश्क समाप्त होते-होते देश में राष्ट्रीयता का प्रसार तीव्रता से होने लगा। अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन का दौर प्रारम्भ होने लगा। इसका प्रभाव तत्कालिक पत्रकारिता पर भी पड़ा। अब पत्रकारों व सम्पादकों के विचारों में परिवर्तन आने लगा। परिणामस्वरूप अब समाचार पत्रों का स्वरूप बदलने लगा। अंग्रेजी सरकार का यशोगान करने वाले पत्र अब राष्ट्रीय विचारों के सम्वाहक बन गये। 'अल्मोड़ा' और 'गढ़वाली' नामक समाचार-पत्र इसका उदाहरण है जो प्रारम्भ में सत्तान्मुखी थे किन्तु 1910-11 के बाद ये राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार करने लगे। दूसरे दशक के मध्याहन के पश्चात् पत्रकारिता के स्वरूप में थोड़ा और परिवर्तन हुआ। अब समाचार पत्र के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारों का सम्प्रेषण और शासन की नीतियों की आलोचना के साथ-साथ अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले सामाजिक उत्पीड़न व शोषण (कुली बेगार) कुली बर्दायश, बरा-बेगार, प्रभु सेवा तथा हक हकूकों का हनन जैसे विचारणीय मुददों पर भी अपनी-अपनी अभिव्यक्तियां प्रकट की जाने लगी। इसका एक प्रमुख परिणाम यह देखने को मिला कि अब अंग्रेजी प्रशासन को राष्ट्रीय व सामाजिक दोनों आन्दोलनों का साथ-साथ सामना करना पड़ा। स्वाधीनता पूर्व की पत्रकारिता जन जागृति की पत्रकारिता थी। अभी व्यवसायिक अथवा अर्थोपार्जन हेतु पत्रकारिता का जन्म नहीं हुआ था। राजनैतिक-आर्थिक संघर्षो के बाद भी उनकी चेतना व प्रखरता में कभी कोई कमी नहीं देखी गई। प्रायः कुछ अपवादों को छोड़कर स्वाधीनता पूर्व के अधिकांश समाचार पत्र अल्पजीवी रहे तथा उनके अल्पजीवन के पीछे कारण भिन्न-भिन्न थे किन्तु सभी पत्रों का उद्देश्य एक ही था- "देश की स्वाधीनता।"

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