चंद वंशचंद वंश के ऐतिहासिक स्त्रोत
कुर्मांचल पर कत्यूरियों के बाद शासन करने वाले 'चंद'वंश के इतिहास को जानने के हमारे पास पुरातात्विक, साहित्यक एवं लोक गाथाएँ उपलब्ध हैं। इनका विवरण इस प्रकार है -पुरातात्विक
यह चंद वंश के इतिहास को जानने के मुख्य स्त्रोत है। इनमें से मुख्य हैं - बालेश्वर मंदिर से प्राप्त क्राचल्लदेव का लेख, बास्ते' ताम्रपत्र, गोपेश्वर त्रिशूल लेख, बोधगया शिलालेख, लोहाघाट एवं हुडैती अभिलेख, गड्यूड़ा ताम्रपत्र, विजयचन्द्र का पाभै ताम्रपत्र, कलपानी-गाड़भेटा से प्राप्त कल्याण चंद का ताम्रपत्र, खेतीखान ताम्रपत्र, सीरा क्षेत्र से प्राप्त 1353 ई0 एवं 1357 ई0 के मल्ला ताम्रपत्र से भी इस वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। सेरा-खडकोट एवं मझेडा ताम्रपत्र से चन्दों के बम शासकों से सम्बन्धों की जानकारी होती है। बास्ते ताम्रपत्र में मांडलिक राजाओं की लम्बी सूची दी गई। इस प्रकार हमें चंदवंश से सम्बन्धित लगभग हर शासक द्वारा जारी ताम्रपत्र मिलते हैं। उपरोक्त के अतिरिक्त मूनकोट ताम्रपत्र, बरग से प्राप्त ताम्रपत्र, झिझाड़ ताम्रपत्र, लखनऊ संग्रहालय का ताम्रपत्र संख्या 51.284 इत्यादि महत्वपूर्ण ताम्रपत्र है।लिखित स्त्रोत
कुमाऊँ के चंद वंश के सम्बन्ध में लिखित स्त्रोतों से भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। मानोदय अथवा ज्ञानोदय काव्य में चंद राजाओं की वंशावली दी गई है। पंवाड़े चंद राजाओ की जानकारी से भरे पड़े है जैसे भारतीचंद का पंवाडा, लिखित स्त्रोतो की श्रेणी में लोकगीतों एवं लोकगाथाओं में चंद राजाओं की यशगाथाओं का वर्णन है।राज्य विस्तार
प्रारम्भ में चंद राज्य काली नदी की उपत्यका तक ही सीमित था किन्तु कालान्तर में इसका विस्तार तराई-भाबर क्षेत्र, सोर, सीरा दारमाजोहार, व्यास-गणकोट एवं सम्पूर्ण अल्मोड़ा जनपद तक हो गया था। डोटी की राजधानी अजमेरगढ़ एवं जुराइल-दिवाइल कोट तक इन्होंने विजय हासिल की। इनकी प्रारम्भिक राजधानी चंपावती नदी तट पर बसी चंपावत नगरी थी। राजधानी के लिए 'राजबुगा' अथवा 'राजधाई' शब्दों का प्रयोग हुआ है। देवीसिंह के समय राजधानी 'देवीपुर' भी रही। राजा के महल को 'चौमहल' कहते थे। बालू कल्याण चंद के काल में 'अल्मोड़ा' को पूर्णतः चदों की राजधानी के रूप में स्थापित किया गया।चंद वंश की स्थापना
दसवीं शताब्दी के अंत अथवा ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कूर्मांचल पर एक नए राजवंश का शासन स्थापित हुआ जिसे 'चंद' वंश के नाम से जाना जाता है। इस वंश ने कुमाऊँ पर लम्बे समय तक शासन किया। किन्तु इस वंश की स्थापना को लेकर इतिहास विद्वानों के मध्य मतैक्य का अभाव है। चंद वंश की स्थापना को लेकर विद्वानों ने अलग-अलग मत प्रतिपादित किए है जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैलोहाघाट के निकट काली कुमाऊँ क्षेत्र में प्राचीन सुई राज्य था। 10वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इस राज्य पर ब्रह्मदेव का शासन था। ब्रह्मदेव महत्वकांक्षी शासक था और उसने सीमांत खस राज्यों को विजित करने का निश्चय किया। इस प्रकिया से सारे कुमाऊँ क्षेत्र में अव्यवस्था फैल गयी। ऐसी स्थिति में काली कुमाऊँ के प्रमुख ने गंगा मैदान की और योग्य शासक की खोज में दल भेजा। यह दल इलाहाबाद के निकट झूसी से सोमचंद नामक व्यक्ति को कुमाऊँ लाये और उसे काली-कुमाऊँ का राजा बनाया।
गणेश सिंह वेदी की पुस्तक 'शशिवंश विनोद' के अनुसार-" चंदेरी के राजा हरिहरचंद के 5 बेटे थे, वीरचंद, कबीरचंद, गम्भीरचंद, सबरीचंद और गोविन्दचंद। इनमें से वीरचंद ने 'छनेहनी' राज्य और सवीरचंद ने 'खलूर' राज्य की स्थापना की। कबीरचंद कुमाऊँ क्षेत्र में आया और वहाँ के राजा के यहाँ नौकरी करने लगा। उसकी योग्यता से प्रसन्न होकर राजा ने उसे दत्तक पुत्र के रूप में अपनाया। इस प्रकार कालान्तर में वह कुमाऊँ का शासक बना।
एक अन्य परम्परा के अनुसार - झुसी' से एक चन्द्रवंशी राजकुमार सोमचन्द्र अपने साथ ब्राह्मणों और राजपूतों की एक टोली के साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर आया था। सौभाग्यवश एक राजकुमार के सुई क्षेत्र में आने का समाचार ब्रह्मदेव को मिला, उसने उसे अपने दरबार में आने का न्यौता दिया। वह सोमचन्द्र के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। उसने उसे कुमाऊँ में रूकने और अपनी इकलौती पुत्री से विवाह का प्रस्ताव दिया। सोमचन्द्र ने प्रस्ताव स्वीकार किया। उसे दहेज में 15 बीसी के बराबर का भू-दान मिला। सोमचंद ने यहाँ एक भव्य गढ़ का निर्माण कराया जिसका नाम 'राज बुंगी' रखा गया। कालान्तर में यह स्थल 'चम्पावत' नाम से प्रसिद्ध हुआ और 1560 ई0 तक यह नगरी चंदवंश की राजधानी रही।
एटकिन्सन महोदय ने एच०एम० ईलयट के मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि सोमचन्द्र चन्देल वंशी राजकुमार था न कि चन्द्रवंशी एवं वह झूसी से नहीं बल्कि झांसी से काली कुमाऊँ आया था।
वस्तुतः यह स्पष्ट है कि कुर्मांचल में चंद वंश की स्थापना बाहर से आये एक राजकुमार ने की। अब प्रशन उठता है कि वह राजकुमार कब इस क्षेत्र में आया था। इस पर भी विद्वानों में मतभेद है। सामान्यतः 7 वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के बीच की तिथियाँ विद्वानों ने सुझायी हैं। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त तिथि 1025 ई०की प्रतीत होती है क्योंकि इस तिथि के आस-पास ही कत्यूर वंश के राजकुमार अन्यत्र स्थान्तरित हुए। इनमें से सर्वाधिक घाटी छोड़कर मणकोट, अस्कोट, डोटी, लखनपुर-बैराट और मनिला-सल्ट की ओर स्थान्तरित हुए। अतः 11 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कत्यूरियों का शासन अवसान पर था।
चूँकि इस नए राजवंश के सभी शासकों के अन्त में चंद उपसर्ग लगा था। इसी आधार पर इतिहासकारों ने 'चंद' उपसर्ग के कारण ही इस नए राजवंश को चंद राजवंश का नाम दिया।
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