जैसे "कविता" (पहाड़ी कविता)

 बस यों ही .....


यादों के पहाड़ में 
सभी कुछ 
हरा - भरा हो 
संभव ही नहीं है .......
वहाँ 
गाड़ - गधेरे 
दाड़िम , अनार , पुलम 
और अलबखर के साथ 
चूक , नारंगी , माल्टा 
अखरोट और 
" रीठा " भी होता है 
पेड़ों में ......
हिसालु ,किनमड़ और 
काफल खूब होने वाले हुए
गीतों में .......
अब 
बाड़न में पाऊँ , हालंग 
चू , लाई , उगल नहीं होता ...
पक्षियों के घौंसलों में 
चूँ - चूँ करते 
बच्चे जरुर होते हैं .... 
गोठ में 
ढोर - डँगर के साथ 
लकड़ियाँ सजी रहती हैं 
चौमास के लिए ......
गाज्यो , पराल होता है 
लुटाँणि के अतिरिक्त 
अटिक - बटिक समय के लिए 
........ भकार में 
ग्यूँ - धान भी रखती है 
आमा 
भरबाटुन में 
दया्व रखती है , जहाँ 
खुटकूँण से जाना होता है 
केले चुराकर खाने के लिए 
..... रौन छैं 
तिपाई पर बैठी 
काली केतली के नीचे 
" राख " में सदैव 
उजाला लुका रहता है 
इसीलिए 
अँधेरा कभी नहीं होता 
पहाड़ी घरों में 
फू - फू करते ही 
पसर जाता है ......
मैं , यहाँ भी 
यादों के पहाड़ में 
कुछ इसी तरह 
उजाला ढूँढ लेता हूँ 
या कहूँ 
कि , " छिलुक " ढूँढता हूँ ।                    
                                                

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