क्षत्रिय वीर, तरूण कुमाऊँ,तरूण कुमाऊँ,अभय,स्वाधीन प्रजा (साप्ता)

क्षत्रिय वीर, तरूण कुमाऊँ,तरूण कुमाऊँ,अभय,स्वाधीन प्रजा (साप्ता)

क्षत्रिय वीर, 1922 ई0


विशाल कीर्ति के पश्चात् पौड़ी से निकलने वाला यह दूसरा पत्र था। 15 जनवरी 1922 से इस पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। यह एक जातिवादी समाचार पत्र था जिसका मूल उद्देश्य क्षत्रिय जाति का सामाजिक व शैक्षणिक विवरण प्रस्तुत करना था। प्रारम्भ में प्रताप सिंह नेगी द्वारा इसका सम्पादन किया जाता था। इनके बाद यह पत्र एडवोकेट कोतवाल सिंह नेगी एवं शकर सिंह नेगी के सम्पादन में सन् 1938 तक प्रकाशित होता रहा।

आगरा से छपने वाले इस समाचार-पत्र के संस्थापक ग्राम सूला, असवालस्यूं पट्टी, गढवाल के रायबहादुर जोध सिंह नेगी थे। वे कट्टर राजपूत विचारधारा के थे तथा इसी के चलते इन्होंने 'क्षत्रिय-वीर नामक अखबार की नींव रखी थी। इस समाचार पत्र में 'क्षत्रिय जाति तथा उनके उत्थान से सम्बन्धित सूचनाओं को प्रमुखता दी जाती थी। फलतः जोध सिंह नेगी पर समय-समय पर क्षत्रिय समर्थक व ब्राह्मण विरोधी होने के आरोप लगते रहे। कुमाऊँ कुमुद (पाक्षिक), 1922 ई0- उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के इतिहास में लगभग ढाई दशक तक नियमित रूप से प्रकाशित होने वाले इस समाचार पत्र 'कुमाँऊ कुमुद' का प्रकाशन सन् 1922 में बसन्त कुमार जोशी द्वारा अल्मोड़ा में प्रारम्भ किया गया। यह समाचार पत्र राष्ट्रीय विचारधारा का प्रबल समर्थक था परन्तु इसकी नीतियाँ 'शक्ति' से भिन्न थी। इसके सम्पादकीय तीखे व धारदार होते थे। साथ ही इसमें सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन सम्बन्धी लेख भी छपते रहते थे। इसके बावजूद समय-समय पर इस पत्र पर सरकार समर्थक होने का भी आरोप लगाता रहा। इसे 'बाजार समाचार' भी कहा जाता था। यह समाचार पत्र तात्कालिक लोकभाषी रचनाकारों को निरन्तर प्रोत्साहित करता रहा।

तरूण कुमाऊँ, (1922-23) ई0

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने सन् 1922 में लैन्सडौन से 'तरूण कुमाऊँ' नामक एक हिन्दी साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस समाचार पत्र में बैरिस्टर लाल के राष्ट्रवादी व प्रगतिशील विचारों की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी। इस साप्ताहिक का नाम बैरिस्टर साहब ने मैजनी के 'यंग इटली' की तर्ज पर रखा था। सन् 1923 में वे कौंसिल के लिए चुन लिए गये फलतः लगभग डेढ़ वर्ष तक नियमित चलने के पश्चात् 'तरूण कुमाऊँ का प्रकाशन बन्द हो गया।

अभय, 1928 ई0

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सामान्य जन के साथ ही साधु सन्यासी वर्ग ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन्ही में एक थे स्वामी विचारानन्द सरस्वती जो देहरादून के एक आश्रम में रहते थे, साथ ही अभय नामक एक प्रिन्टिग प्रेस चलाते थे। अपने राष्ट्रवादी विचारों से सामान्य जन को स्वाधीनता हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से इन्होंने सन् 1928 में इसी प्रिन्टिग प्रेस से 'अभय' नामक एक हिन्दी साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया जो कई वर्षों तक नियमित चलता रहा। 
    पुरुषार्थ, 1917-21ई0-'गढ़वाल सरकार के बंद होने के पश्चात् आर्थिक तंगी के कारण गिरिजादत्त नैथाणी का दुगड्डा का प्रेस भी बन्द हो गया। तब उन्होंने अल्पावधि के लिए दो बार 'गढवाली' का सम्पादन किया। इतना करने के पश्चात् भी जब गिरिजादत्त नैथाणी की पत्रकारिता के प्रति ललक कम न हुई तो उन्होंने अक्टूबर 1917 में 'पुरुषार्थ' नामक एक मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पुरूषार्थ का मुद्रण बिजनौर में होता था परन्तु इसका प्रकाशन कभी दुगड्डा से तो कभी उनके पैतृक गांव नैथाणा से होता था। इसके कुछ अंक बाराबंकी से भी छपे। कुछ समय चलने के पश्चात् यह अखबार भी बन्द हो गया। अपने पत्रकारिता प्रेम के चलते उन्होंने 1921 में अपने गांव नैथाणा से पुरूषार्थ का पुनः प्रकाशन प्रारम्भ किया। किन्तु कुछ अंक निकलने के बाद यह पुनः बन्द हो गया। पत्रकारिता के प्रति उनके लगाव का परिचय इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल के अन्तिम समय में पुरूषार्थ का तीसरी बार प्रकाशन प्रारम्भ किया। किन्तु अभी इसका एक ही अंक निकला था कि 21 नवम्बर 1927 को गढवाल में पत्रकारिता के जनक के निधन के साथ ही पुरूषार्थ एक बार पुनः बन्द हो गया।

स्वाधीन प्रजा (साप्ता), 1930 ई0

'शक्ति' तथा 'कुमाऊँ कुमुद' के पश्चात् कुमाऊँ क्षेत्र से प्रकाशित होने वाला यह तीसरा महत्वपूर्ण समाचार पत्र था। इस समाचार पत्र का संचालन व सम्पादन पूर्ण रूप से 'कुमाऊँ' के बेताज बादशाह व भारतीय ईसाई समुदाय के अग्रणी रहे मोहन जोशी द्वारा किया जा रहा था। सम्भवतः बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उत्तराखण्ड की जनता स्वतंत्रता हेतु प्रेरित करने का कार्य सर्वाधिक समर्पित व सशक्त ढंग से मोहन जोशी द्वारा ही किया गया। अनेक सन्दर्भों में मोहन जोशी तत्कालीन अन्य पर्वतीय नेताओं से अधिक स्पष्ट व आक्रामक थे। उनकी इसी प्रवृत्ति की परिणति थी, 'स्वाधीन प्रजा' का प्रकाशन ।
1 जनवरी 1930 को 'स्वाधीन प्रजा' का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ। इस अंक के प्रथम पृष्ठ पर 'स्वाधीन प्रजा' नाम से छपा अग्रलेख ही सामान्य जन को स्वाधीनता हेतु उत्साहित व प्रेरित करने के लिए पर्याप्त था। इस अंक ने जोशी जी के अंग्रेज विरोधी विचारों को स्पष्ट कर दिया था। मोहन जोशी एक उत्कृष्ट लेखक तो थे ही, साथ ही एक प्रमुख कांग्रेसी नेता भी थे। वे अपने विचारों को तत्स्वरूप में अभिव्यक्त करने के लिए जाने जाते थे। उनकी इसी निर्भीकता की झलक उनके द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र में भी दिखने लगी। जन सामान्य में यह पत्र लोकप्रिय होने लगा। फलतः शीघ्र ही यह पत्र अंग्रेजी प्रशासन को खलने लगा तथा 10 मई 1930 को इस पत्र से छः हजार रूपये की जमानत मांगी गई जो अब तक की मांगी गई सर्वाधिक जमानत थी। इतना होने पर भी मोहन जोशी ने हार नहीं मानी तथा भगतसिंह की फांसी की सूचना को 'स्वाधीन प्रजा' में सरकार का गुंडापन बताकर छापा गया। इसके बाद पत्र का छपना और भी असम्भव हो गया तथा इसके उन्नीसवें अंक के दो पृष्ठ बिना छपे ही रह गये।

अक्टूबर 1930 में 'स्वाधीन प्रजा' पुनः प्रकाशित होने लगा। कृष्णानन्द शास्त्री के सम्पादन में दो वर्ष तक नियमित प्रकाशित होने के पश्चात् सन् 1932 में एक बार फिर यह पत्र बन्द हो गया। पत्र के बंद होने के कारण मोहन जोशी का मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगा। 'स्वाधीन प्रजा' भले ही मात्र दो वर्ष का अल्पावधि तक ही प्रकाशित हो सका। परन्तु इसने इसी अल्पावधि में कुमाऊँ के वातारण में जागृति की लहर उत्पन्न की एवं साथ ही ईसाई समुदाय को भी स्वाधीनता संग्राम से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। बीसवीं सदी के 7वें दशक में लगभग 35 वर्ष बाद पूर्ण चन्द्र अग्निहोत्री के सम्पादन में स्वाधीन प्रजा का प्रकाशन पुनः प्रारम्भ हुआ। यह साप्ताहिक आज भी अपनी उसी पुरानी पूर्वाग्रहिता व स्पष्टता के लिए चर्चित है तथा इसे सदैव से ही उत्कृष्ट सम्पादकीय लेखों के लिए सराहा जाता रहा। सम्प्रति में प्रकाश पाण्डे 'स्वाधीन प्रजा' का सम्पादन कर रहे है।

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