प्रदीपशाह की मृत्यु के पश्चात् ललितशाह गढ़राज्य की गद्दी पर आसीन

ललित शाह
प्रदीपशाह की मृत्यु के पश्चात् ललितशाह गढ़राज्य की गद्दी पर आसीन 

Lalit Shah After the death of Pradipshah, Lalit Shah ascended the throne of Garhrajya. 

प्रदीपशाह की मृत्यु के पश्चात् (29 गते मंगसीर, 1829) दिसम्बर 1772ई0 में ललितशाह गढ़राज्य की गद्दी पर आसीन हुए। इनके शासन काल की मुख्य घटनाएँ इस प्रकार है -

1. ललितशाह के काल में सिक्खों ने दो आक्रमण किए। 1775 ई0 एवं 1778 ई0 के दोनों आक्रमण में ललितशाह कुछ विशेष प्रतिरोध नहीं कर पाए फिर भी सिक्खों के आक्रमण का प्रभाव दून के आस-पास तक ही सीमित रहा।

2. सिक्खों के विरूद्ध ललितशाह की नाकामयाबी का कारण गढ़वाल एवं कुमाऊँ के मध्य तनावपूर्ण वातारण था। 

नरेश दीपचन्द के कार्यकाल में कुमाऊँ में गृहकलेश की स्थिति उत्पन्न हुई। चारों ओर अशान्ति द्वेष का वातावरण था। मोहन सिंह रौतेला ने दीपचन्द के जीवित रहते हुए भी 1717 ई0 में स्वयं को कुमाऊँ का शासक घोषित कर दिया। लेकिन मन्त्रियों ने मोहन सिंह को सहयोग नहीं किया एवं मंत्री हर्षदेव जोशी ने गढ़नरेश ललितशाह को कूर्मांचल विजय के लिए आमंत्रित किया। ललितशाह स्वयं सेना के साथ गए और मोहन सिंह को पराजित किया। कुर्मांचल विजय के पश्चात् उन्होंने अपने द्वितीय पुत्र प्रद्युम्नशाह को कुर्मांचल के शासन की बागडोर सौंपी। हर्षदेव जोशी को

उसका प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इसके पश्चात् ललितशाह वापस अपने राज्य लौट आए। यद्यपि मार्ग में ही ढुलड़ी नामक स्थल पर मलेरिया के कारण उनकी मृत्यु हो गई। ललितशाह के दो पुत्र जयकृतशाह और प्रद्युम्नशाह सौतेले भाई थे और दोनो के सम्बन्ध कटुतापूर्ण थे। सम्भवतः जयकृत पिता की मृत्यु के पश्चात् गढ़नरेश बने। हरिकृष्ण रतुडी ओर बद्रीदत्त पाण्डे ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। बैकेट की सूची में जयकृत के शासनकाल की अवधि 1780-86 ई०, मुकन्दीलाल के अनसार 1780-85 ई० दी गई जबकि यहाँ भी हरिकृष्ण रतुड़ी द्वारागई तिथि मेल नहीं खाती है।

राज्यारोहण के बाद भी दोनो भाईयों के मध्य कटुता कम नहीं। यहाँ तक जयकृत शाह ने प्रद्युम्न को कुर्मांचल के शासन से अपदस्त करने के लिए मोहन सिंह रौतला को सहायता दी। प्रतिउत्तर में प्रद्युम्न ने देवलगढ़ एवं श्रीनगर पर आक्रमण किया। श्रीनगर में वह तीन वर्ष रहा तत्पश्चात् कुमाऊँ लोट गया। मौलाराम ने इस तथ्य की पुष्टि की है।

जयकृतशाह के काल में दरबारी गुटबन्दी मुख्य समस्या रही। इनमें मुख्यतः डोभाल व खण्डुरी थे जो राज्य के उच्च पदों पर आसीन थे। इनमें भी कृपाराम डोभाल की तानाशाही प्रवृत्ति ही इस तनावपूर्ण वातावरण के लिए अधिक जिम्मेदार थी। इस व्यक्ति की तानाशाही प्रवृत्ति इतनी बढ़ चुकी थी कि तनिक भी विरोध करने वाले को "मौत" मिलती थी। इस प्रकार के दूषित वातावरण से निकलने के लिए "नेगी" जाति के सदस्यों ने देहरादून से श्रीनगर तक के राज्यपाल "घमण्ड सिंह मियाँ को आमंत्रित किया गया। घमण्ड सिंह ने भरे दरबार में कृपाराम डोभाल की गर्दन काट दी और श्रीनगर का राजकोष लूटकर गढ सैनिकों का वेतन भुगतान कर दिया लेकिन इससे गढ़राज्य में आतंक का माहौल उत्पन्न हो गया।

मौलाराम का कथन है कि निराश जयकृतशाह ने उन्हें मंत्रणा के लिए बुलाया। तत्पश्चात् सिरमौर शासक को मदद के लिए पत्र लिखवाया। सिरमौर नरेश जगत प्रकाश अपनी सेना सहित गढनरेश की सहायता के लिए बढ़ा। विजयराम नेगी ने उसका मार्ग रोकने का प्रयास किया किन्तु वह जगतप्रकाश के वीरत्व के आगे ठहर नहीं पाया। कपरौली नामक स्थल पर विजयराम नेगी वीरगति को प्राप्त हुआ। जगत प्रकाश की सेना का अब मुकाबला घमण्ड सिंह की सेनाओं से हुआ। घमण्ड सिंह भी लड़ते हुए मारे गये। तत्पश्चात् सिरमौर नरेश जयकृतशाह के दरबार पहुँचे। गढ़राज्य में शांति एवंव्यवस्था बनाकर जगत प्रकाश अपने राज्य लौट गए।

लेकिन कहते हैं कि भाग्य भी भाग्यशाली का ही साथ देता है और जयकृत के भाग्य में सुख नहीं था, सिरमौर नरेश के लौटने के बाद जब वह देवलगढ़ अपनी कुलदेवी की पूजा के लिए गया तो प्रद्युम्न शाह ने आक्रमण कर दिया। हताश जयकृत देवप्रयाग के रघुनाथ जी के मन्दिर चले गए, जहाँ उनकी मृत्यु हुई। उनकी चार रानियां भी उनके साथ सती हुई।

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