उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास का इतिहास

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता के विकास का इतिहास

भारत में विधिवत् समाचार पत्रों का प्रारम्भ यूरोपीय देशों के यहाँ आने के पश्चात् ही हुआ। यद्यपि भारत में अंग्रेजी शासन काल से पूर्व भी सूचनाओं का प्रचार प्रसार होता था परन्तु उस युग में इसका स्वरूप आज से भिन्न था। चूंकि तब तक मुद्रण तकनीक का अविष्कार नहीं हुआ था। अतः अधिकांश सूचनाएं हस्तलिखित होती थी। राज्य प्रशासन की ओर से निर्गत आदेशों को हस्तलिखित कर एक कर्मचारी द्वारा सम्पूर्ण राज्य के विभिन्न चौराहों पर खड़े होकर जोर-जोर से पढ़ा जाता था। यह व्यवस्था 'मुनादी' के नाम से जानी जाती थी। अतः कहा जा सकता है कि उस युग में 'मुनादी' के माध्यम से ही सूचनाओं व आदेशों का प्रचार-प्रसार किया जाता था। कभी-कभी सूचनाएं पत्र के रूप में लिखकर विभिन्न चौराहो पर चिपका दी जाती था। परन्तु शिक्षा के अभाव के कारण सूचनाओं का मुख्य साधन मुनादी ही हुआ करते थे। डॉ० राम विलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'सन् सत्तावन की राज्य क्रांन्ति" में लिखा है कि दिल्ली से लगभग सवा सौ हस्तलिखित पत्र निकलते थे।
History of Development of Journalism in Uttarakhand

भारत में सर्वप्रथम प्रिन्टिंग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को जाता है। सर्वप्रथम मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में सन् 1557 में पुर्तगाली मिशनरी द्वारा पहला प्रिटिंग प्रेस गोवा में स्थापित किया गया। प्रायः यूरोपीय देशों का भारत आने का एक मूल उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना भी था तथा इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु यहाँ प्रिन्टिंग प्रेस की स्थापना की गयी। इसी प्रेस में ईसाई साहित्य छापकर ईसाई पादरियों द्वारा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया जाने लगा। इस प्रकार 1557 में गोवा के पादरियों ने अपनी पहली पुस्तक भारत में छापी। वहीं दूसरी ओर जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के अत्याचार धीरे-धीरे बढ़ने लगे तथा कम्पनी के कर्मचारी अब कम्पनी के मंसूबों को समझने लगे, वे कम्पनी के कार्यों से असन्तुष्ट थे तथा कम्पनी के मसूबों को समाज के समक्ष लाने का प्रयत्न करने लगे। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु कम्पनी के असन्तुष्ट कर्मचारियों द्वारा ईसाई पादरियों के धर्म प्रचार की प्रणाली को अपनाते हुए भारत में पहला समाचार पत्र निकालने का प्रयास किया गया। सन् 1776 में एक अंग्रेज कर्मचारी विलियम बोल्ट्स ने त्यागपत्र देकर समाचार पत्र निकालने की योजना बनायी परन्तु वह असफल हुआ तथा उसे वापस इंग्लैण्ड भेज दिया गया। चार वर्ष बाद सन् 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिक्की भारत में पहला समाचार पत्र प्रकाशित करने में सफल हुए। अतः 29 जनवरी 1780 को भारत में मुद्रित पहला समाचार पत्र 'द बंगाल गजट' अथवा 'द कलकता जनरल एडवटाइजर' के नाम से प्रकाशित हुआ। यद्यपि इस प्रेस को भी कुछ समय पश्चात नष्ट कर दिया गया। नवम्बर 1780 में प्रकाशित 'इण्डिया गजट' दूसरा भारतीय पत्र था। किसी भी भारतीय द्वारा प्रकाशित प्रथम समाचार-पत्र "गंगाधर भट्टाचार्य का साप्ताहिक 'बंगाल गजट' था, जो अंग्रेजी भाषा में मुद्रित था। इसका प्रकाशन् 1816 में किया गया। सन् 1818 में कुछ ब्रिटिश व्यापारियों द्वारा जेम्स सिल्क बकिंघम नामक पत्रकार को कलकता जनरल का सम्पादक नियुक्त किया गया। पत्रकारिता के इतिहास में बकिंघम का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने बहुत से अन्य पत्रकारों को प्रोत्साहित किया, इन्होंने ही प्रेस को जनता का प्रतिबिंब बनाया। वर्तमान में हम प्रेस के जिस रूप को देखते है, इस स्वरूप को देने का श्रेय भी इन्हें ही जाता है। भारत में पत्रकारिता के इस प्रारम्भिक दौर में प्रकाशित समाचार पत्रों का कार्यकाल बहुत अधिक लम्बा नहीं होता था। अधिकाश पत्र सालभर में ही बंद करवा दिये जाते थे। चूंकि अभी तक समाचार पत्र सम्बन्धी कोई कानून नहीं बना था अतः ये समाचार पत्र पूर्णतया कम्पनी की दया पर निर्भर होते थे। जो समाचार पत्र कम्पनी के विरूद्ध मुद्रित होता था उसे बंद करवा दिया जाता अथवा संचालक को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे अधिकारियों की नियुक्ति कर दी जाती थी। भारत में जैसे-जैसे अंग्रेज जनता के प्रति कठोर होते गए फलस्वरूप भारतीय जनता में असन्तोष फैलने लगा जिसका परिणाम राष्ट्रीय चेतना के रूप में सामने आया। कालान्तर में राष्ट्रीय चेतना का विकास तीव्र गति से होने लगा। इसमें देश के बुद्धिजीवी वर्ग का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसी बुद्धिजीवी वर्ग ने सामान्य जन के नेतृत्व की बागडोर सम्भाली। इन राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय चेतना व नवीन जागृति उत्पन्न करने के लिए समाचार पत्रों को उपयोग करना प्रारम्भ किया। फलतः अब समाचार पत्रों की संख्या व वितरण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। सभी राष्ट्रीय नेता अपने विचारों को विभिन्न समाचार पत्रों के माध्यम से सामान्य जन तक पहुँचाने लगे।
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उत्तराखण्ड में वर्ष 1624 में अन्तोनियो दे अनद्रादे नामक व्यक्ति पहला ईसाई था जो श्रीनगर पहुँचा। उस समय श्रीनगर गढराज्य की राजधानी हुआ करती थी। अन्द्रादे एक पुर्तगाली जेसुएट पादरी था। इस प्रकार देखा जाय तो उत्तराखण्ड में प्रवेश करने वाले पहले यूरोपीय पुर्तगाली थे। अन्द्रादे दिल्ली से तीर्थयात्रियों के साथ यहां पहुचा। गढनरेश ने पादरी के साथ अच्छा व्यवहार किया और अपने राजप्रासाद के निकट उन्हे स्थायी निवास बनाने के लिए भूमि का टुकड़ा देने को भी तैयार हो गए थे। चूंकि वह स्थान काफी समय तक पादरीबाड़ा के नाम से जाना जाता रहा इसलिए सम्भव है कि उन्होंने वहां गिरिजाघर की स्थापना भी की हो। बाद में राजा के वजीर ने पादरीबाड़ा में शंकरमठ की स्थापना की जिसे वर्तमान में भी वहां देखा जा सकता है।

कुमाऊँ में सन् 1850 में ईसाई मिशनरी का कार्य प्रारम्भ हंआ, जब लन्दन मिशनरी सोसाइटी का पादरी रेवरेण्ड बढन अल्मोड़ा पहुंचा। इससे पूर्व वह बनारस व मिर्जापुर में ईसाई धर्म का प्रचारक था। उन्होंने अल्मोड़ा में एक अग्रेजी स्कूल की स्थापना की, जहां बच्चों को हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भी पढानी शुरु की। इससे पूर्व 1815-16 में अग्रेजों का गढवाल और कुमाँऊ पर अधिकार स्थापित हो चुका था। अतः यहाँ ईसाई धर्म का प्रचार कार्य आसान हो गया था। सन् 1853 में मंसूरी में अन्दरिया नामक एक कबीर पंथी साधू ईसाई बना। वह देवभूमि के नाम से जानी जाने वाली उत्तराखण्ड की भूमि पर ईसाई धर्म की दीक्षा लेने वाला पहला व्यक्ति था। ईसाई धर्म की दीक्षा लेने वाला पहला गढ़वाली 'ख्याली ओड' था जो पेशे से एक राज मिस्त्री था। उसने सन् 1867 में ईसाई धर्म की दीक्षा ली।

गोरखा युद्ध में टिहरी नरेश की सहायता करने के साथ ही सन् 1815 में अंग्रेजो ने गढ़वाल क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सन् 1815 से 1900 तक अंग्रेजों के 85 वर्ष के शासनकाल में यहां की जनता अंग्रेजी राज्य की भक्त बनी रही तथा अंग्रेजो ने यहाँ बेखौफ राज किया। सन् 1900 के बाद उत्तराखण्ड की जनता को अपनी पराधीनता का एहसास होने लगा। धीरे-धीरे जनता अपनी स्वाधीनता के लिए प्रयास करने लगी। समूचे राज्य में एक नई जागृति की लहर दौड़ गई। शिक्षा के प्रसार ने इस जागृति को एक नई ऊर्जा प्रदान की। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण देश में बहने वाली राष्ट्रभक्ति की लहर, काग्रेस पार्टी का उदय, उच्च शिक्षा प्राप्त लोगो का पुनः घर लौटना तथा बाहय सम्पर्क और देश के विभिन्न क्षेत्रों से वापस लौटे उत्तराखण्डियों के अनुभवों ने भी स्थानीय जनता को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया। साथ ही अब जनता पृथक-पृथक प्रयास करने के बजाय संगठित रूप से कार्य करने लगी। इसी प्रयास के परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक में गढ़वाल में ब्राह्मण सभा, सरोला सभा, गढ़वाल हितैषिणी सभा, गढ़वाल भ्रातृ मण्डल, क्षत्रिय महासभा, गढ़वाल यूनियन, युवक संघ (पौड़ी) और कुमाऊँ में शुद्ध साहित्य समिति, राजपूत रात्रि पाठशाला, स्टुडेण्ट कल्चरल एसोसियेशन, टम्टा सुधारिणी सभा, शुद्धिकरण समारोह, किश्चियन यंग पीपुल्स सोसाइटी, कुमाऊँ परिषद्, नायक सुधार सभा, प्रेम सभा काशीपुर जैसे संगठन अस्तित्व में आये। इन संगठनो के नाम व काम में भिन्नता अवश्य थी परन्तु इन सभी का उद्देश्य एक था- स्वाधीनता ।

देश की चिन्ता-चेतना और पराधीनता से निकलने की वैचारिक प्रेरणा को क्रान्ति के स्तर तक जन-जन में प्रचारित-प्रसारित करने का दायित्व तत्कालिक हिन्दी पत्रकारिता ने बखूबी निभाया। साथ ही तत्कालीन आंचलिक समाचार पत्रों ने भी भाषा तथा साहित्य, इतिहास बोध, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

सन् 1870 में अल्मोड़ा में पहली बार सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु 'डिबेटिंग क्लब' नामक एक छोटी सी संस्था आस्तित्व में आयी। सन् 1871 में अल्मोड़ा से ही देश का पहला हिन्दी भाषी आंचलिक समाचार पत्र 'अल्मोड़ा अखबार' प्रकाशित हुआ। यद्यपि इससे पूर्व सन् 1868 में 'समय विनोद' नाम से एक हिन्दी सामाचार पत्र नैनीताल से जय  दत्त जोशी नामक वकील के सप्पादन में प्रकाशित हुआ था। परन्तु यह आज भी अपरिचित व गुमनाम है। इन आंचलिक हिन्दी समाचार पत्रों से पहले सन् 1842-1870 के मध्य कुछ आंग्लभाषी समाचार-पत्र प्रकाशित तो हुए किन्तु एक-दो को छोड़कर सभी अल्पजीवी रहे। सन् 1842 में एक अंग्रेज व्यावसायी व समाजसेवी जान मेकिन्न द्वारा उत्तर भारत का पहला समाचार पत्र 'द हिल्स' का मंसूरी से प्रकाशन किया गया। 7-8 वर्ष चलने के पश्चात् इसे बन्द कर दिया गया। लगभग एक दशक तक अखबारविहीन रहने के पश्चात् सन् 1860 में एक बार पुनः उतरी भारत में डॉ० स्मिथ द्वारा इस समाचार-पत्र का पुनः प्रकाशन प्रारम्भ किया गया, परन्तु 5 वर्ष चलने के बाद यह अखबार सन् 1865 में हमेशा के लिए बन्द होकर इतिहास का एक छोटा सा हिस्सा बन गया। 'मसूरी एक्सचेज' 'मसूरी सीजन' तथा 'मंसूरी क्रानिकल' नामक कुछ आंग्लभाषी समाचार-पत्रों का क्रमशः सन् 1870, 1872 तथा 1875 में मसूरी से प्रकाशन शुरू हुआ परन्तु इनमें से कोई भी अधिक समय तक न चल सका। इनके अतिरिक्त इसी दशक में 'बेकन' और 'द ईगल' नामक दो अंग्रेजीभाषी अखबारों का भी प्रकाशन हुआ परन्तु ये दोनो भी अल्पजीवी रहे।

इसी समय झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के वकील रह चुके मि. जान लेंग द्वारा अंग्रेज विरोधी समाचार पत्र 'मेफिसलाइट' का प्रकाशन मसूरी से किया गया। कुछ इतिहासकार इसका प्रकाशन वर्ष सन् 1845 को मानते है एवं हमें इस समाचार पत्र के बन्द होने की भी कोई प्रमाणित तिथि उपलब्ध नहीं होती है। इसके सन् 1882-83 के प्रकाशित अभिलेखों के कुछ अंको से ज्ञात होता है कि मि० लिडिल इसके तत्कालीन सम्पादक थे। लगभग 130 वर्षों के लंबे अन्तराल के पश्चात् पत्रकार जयप्रकाश 'उत्तराखण्डी' द्वारा 'मेफिसलाइट' को पुर्नजीवित किया गया। सन् 2003 से आप इस समाचार पत्र को हिन्दी-अंग्रेजी में साप्ताहिक प्रकाशित कर रहे है।
20वीं सदी के पहले समाचार पत्र 'द मंसूरी टाइम्स' का मि० बॉडीकार द्वारा सन् 1900 में मंसूरी से प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष बाद तक यह छपता रहा। बाद के वर्षों में इसका प्रबन्धन भारतीयों के हाथों में आ गया था। लगभग 30 वर्षों के पश्चात् श्रीनगर गढ़वाल के एक जुझारू पत्रकार हुकुम  सिंह पंवार द्वारा इस नाम को पुर्नजीवित करते हुए 20वी सदीं के 7वें दशक में 'द मंसूरी टाइम्स' के हिन्दी संस्करण का मसूरी से प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। वर्तमान में इसका सम्पादन व स्वामित्व युवा पत्रकार अनिल पाँधी के द्वारा किया जा रहा है। सन् 1924 में मसूरी के एक प्रतिष्ठित नागरिक 'बनवारी लाल वेदम' द्वारा एक और अंग्रेजी भाषी समाचार पत्र 'द हेराल्ड वीकली' का प्रकाशन किया गया। टिहरी जन क्रान्ति की खबरें इस अखबार की विशेषता थी। गढ़वाल के प्रसिद्ध पत्रकार 'श्याम चन्द्र नेगी' इस अखबार के लिए बराबर लिखते रहे। 11, फरवरी 1914 को गढ़वाली प्रेस, देहरादून से 'देहरा-मसूरी एडवाइजर' नामक अखबार छपना प्रारम्भ हुआ परन्तु यह अखबार केवल विज्ञापनों तक ही सीमित रहा।

सन् 1842-2003 के मध्य उत्तराखण्ड की पत्रकारिता कुल 161 वर्षों का इतिहास रहा है जिसमें 105 वर्षों का इतिहास स्वतंन्त्रता पूर्व पत्रकारिता का रहा है पत्रकारिता की इस कालाविधि को 3 भागों में विभाजित किया जा सकता है। 

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