नरेन्द्रशाह के काल प्रजामण्डल का गठन एवं श्रीदेव सुमन

नरेन्द्रशाह के काल  प्रजामण्डल का गठन एवं श्रीदेव सुमन

प्रजामण्डल का गठन एवं श्रीदेव सुम

नरेन्द्रशाह के काल की यह द्वितीय घटना है जिसने राज्य की निरंकुश नौकरशाही के कृत्य को उजागर किया। यद्यपि राजा ने श्रीदेव सुमन को रिहा करने का आदेश अपने नरेन्द्रमण्डल सम्मेलन में मुम्बई के लिए रवाना होने से पूर्व दे दिया था तब भी राज्य पदाधिकारियों की स्वार्थपरता के चलते 1944 ई0 में सुमनजी की कारागार में ही मृत्यु हो गई।
Formation of Praja Mandal and Sridev Suman of Narendra Shah


नरेन्द्रशाह के काल  प्रजामण्डल का गठन एवं श्रीदेव सुमन


रवांई काण्ड के पश्चात् टिहरी राज्य में जन-आकोश में वृद्धि हुई। इसी का परिणाम था, 1935 ई0 में सकलाना पट्टी के उनियाल गाँव में सत्यप्रसाद रतूड़ी द्वारा 'बाल सभा' की स्थापना करना। इस सभा का उद्देश्य छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार करना था। इसके साथ ही 1936 ई० दिल्ली में 'गढ़देश सेवा संघ' की स्थापना हुई। इसके सदस्यों ने टिहरी रियासत की जनता के मध्य कार्य करने का निर्णय लिया। मार्च, 1938 ई0 को दिल्ली में अखिल पर्वतीय सम्मेलन हुआ जिसमें स्वयं बद्रीदत्त पाण्डे व श्रीदेव सुमन ने भाग लिया। इसी कम में श्रीनगर गढवाल में एक राजनैतिक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। इस सम्मेलन में सुमनजी ने टिहरी राज्य की प्रजा के कष्टों से सम्बन्धित एक प्रस्ताव भी पारित करवाया था। जून, 1938 ई0 में मानवेन्द्र नाथ की अध्यक्षता में ऋषिकेश के सम्मेलन में टिहरी राज्य की जनता की समस्याओं पर मंथन हुआ और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मांग की गई। अतः 1938 के उपरान्त राज्य से बाहर रह रहे रियासत के युवकों ने प्रजामण्डल की शाखाएँ स्थापित करनी प्रारम्भ की क्योंकि 1938 ई0 के गुजरात काग्रेस अधिवेशन में देशी राज्य की प्रजा के अधिकारों की रक्षा 'प्रजामण्डल' द्वारा संचालित करने का निर्णय लिया गया।

माना जाता है कि टिहरी राज्य प्रजामण्डल की स्थापना देहरादून में श्याम चन्द्र नेगी के आवास पर हुई थी। उसके प्रारम्भिक सदस्य टिहरी महराजा के अधीन ही उत्तरदायी शासन की स्थापना चाहते थे। श्रीदेव सुमन, गोविन्दराम भट्ट, तोताराम गैरोला, महिमानन्द डोभाल इत्यादि इसके संस्थापक सदस्यों में थे। स्वयं श्रीदेव सुमन भी महाराज का बड़ा सम्मान करते थे। उनका स्वयं का कथन है कि 'टिहरी राज्य में मेरा तथा प्रजामण्डल का ध्येय वैध व शांतिपूर्ण ढंग से श्रीमहाराज की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन प्राप्त करना है।' श्री महाराज भी सुमन की योग्यता से परिचित थे किन्तु उनके स्वार्थी अधिकारी ऐसा नहीं चाहते थे अतः रवांई काण्ड की भाँति उन्हें भ्रमित किया गया।

टिहरी दरबार उत्तरदायी शासन की मांग से चिन्तित था क्योंकि ऐसा होने पर उनके एकाधिकार खत्म हो जाते। अतः प्रजामण्डल की मांगों की अनदेखी कर "रजिस्ट्रेशन ऑफ एसोशिएशन एक्ट" पारित कर दिया गया जिसके तहत किसी भी स्वतंत्र संस्था के रियासत के अन्दर कार्य करने पर प्रतिबन्ध लग गया। श्रीदेव सुमन और शंकरदत्त डोभाल ने टिहरी के अन्दर ही प्रजामण्डल की स्थापना की कोशिश करनी चाही। सुमन के पीछे पुलिस लगा दी गई। 9 मार्च 1941 को पहली बार उन्हें उनकी ससुराल पडियार गाँव से गिरफ्तार किया गया। श्रीदेव सुमन जन सम्पर्क वाले नेता एवं समाचार पत्रों एवं कई संस्थाओं से जुड़े व्यक्ति थे। जब उन पर दो माह तक रियासत में घुसने पर प्रतिबन्ध लगाया तो उसकी सर्वत्र निदां हुई। वे कर्मभूमि पत्र के सम्पादक मण्डल के सदस्य थे। अतः कर्मभूमि एवं अल्मोड़ा से प्रकाशित 'शक्ति' पत्र निरन्तर टिहरी राज्य से सम्बंधित समाचार प्रकाशित करते थे।

अगस्त 1942 ई0 को देवप्रयाग में सकलानन्द डोभाल की अध्यक्षता में हुई सभा में आन्दोलन को आक्रामक बनाने का निर्णय हुआ। ब्रिटिश सरकार द्वारा देवप्रयाग में आन्दोलन के नेताओं को गिरफ्तार कर लिए जाने का भारी विरोध हुआ। 29 अगस्त को श्रीदेव सुमन भी देवप्रयाग में बन्दी बनाए गए। पहले उन्हें देहरादून जेल एवं फिर आगरा जेल स्थान्तरित कर दिया गया। जेल से मुक्त होने के बाद दिसम्बर 1943 ई० में वे अपने गाँव जौल पहुँचे। 17 दिसम्बर, 1943 ई0 को उन्हें टिहरी जाते हुए चम्बा में रोक लिया गया। 30 दिसम्बर, 1943 को उन्हें टिहरी जेल में भेज दिया गया। 29 फरवरी, 1944 को उन्होंने यहीं अनशन शुरू किया, किन्तु राज्य की बेरूखी को देखकर 3 मई, 1944 से उन्होंने आमरण अनशन शुरू किया जो कि 25 जुलाई को उनकी मृत्यु पर ही समाप्त हुआ।

श्रीदेव सुमन ने लगभग 209 दिन कारावास में बिताए जिसमें से अन्तिम 84 दिन भूख हड़ताल पर रहने के बाद अपने प्राण त्याग दिये। शेखर पाठक ने उनकी भूख हड़ताल को 'ऐतिहासिक अनशन' की संज्ञा दी। उनकी शहादत ने टिहरी में जन आन्दोलन को ओर मजबूत किया। प्रजामण्डल को वैधानिक मान्यता मिली जिसका कार्यालय टिहरी नगर में स्थापित हुआ। आजाद हिन्द फौज के सैनिक भी टिहरी जन आन्दोलन के समर्थन में वर्ष 1946 ई0 गढ़वाल आए। उन्हीं के प्रयासों से वर्ष 1946 ई0 की 26 जुलाई को प्रथम बार सुमन दिवस मनाया गया।

सकलाना विद्रोह एवं कीर्तिनगर आन्दोलन

टिहरी रियासत के साथ में अंग्रेजो ने एक छोटी सी जागीर को भी जोड़ा। 700 वर्ग किमी में टिहरी के पश्चिम और देहरादून के उत्तरपूर्व स्थित यह क्षेत्र सकलियाना जागीर के नाम से जानी जाती थी। इस क्षेत्र के मुऑफीदार शिवराम एवं काशीराम ने गोरखों के विरूद्ध अंग्रेजों को सहायता दी थी। अतः अंग्रेजो ने उनकी परम्परागत स्थिति बनाए रखी और उन्हें कुमाऊँ कमिश्नर के अधीन दीवानी एवं राजस्व मामलों में द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेटी अधिकार भी दिए। अतः वे स्वयं को टिहरी के महाराज से ऊपर समझने लगे। उन्होंने जनता का शोषण आरम्भ किया, फलतः जन आन्दोलन की एक श्रृंखला प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में इस क्षेत्र के मुऑफीदार अपने को कम्पनी के निकट जान स्वतंत्र रियासत का स्वप्न देख रहे थे। किन्तु जनता के मनोबल को देखते हुए उन्होंने 15 दिसम्बर, 1947 ई0 को पंचायत को समस्त अधिकार सौंप दिये। सकलाना विद्रोह की सफलता ने राज्य के भावी जन आन्दोलनों के लिए प्रेरणा का कार्य किया। शीघ्र ही बढियारगढ, देवप्रयाग, कीर्तिनगर इत्यादि क्षेत्रों में आजाद पंचायत का गठन हुआ।

29 अगस्त, 1946 ई० को राजदरबार और प्रजामण्डल के मध्य "अगस्त समझौता" हुआ था कि प्रजामण्डल राज्य के कार्यों में बाधा नहीं डालेगा एवं दरबार राजबन्दियों को बिना शर्त रिहा कर देगा। किन्तु कीर्तिनगर, डांगीचौरा क्षेत्र से कृषक आन्दोलन के नेता नागेन्द्र सकलानी, दौलतराम एवं परिपूर्णानन्द को मुक्त करने की बजाय कारावास की सजा दी गई। राज्य कर्मचारियों ने अगस्त समझौता भंग कर दिया एवं दमनचक चालू रखा। फलतः टिहरी जेल में ही दौलत राम, नागेद्र सकलानी, भूदेव लखेड़ा, इन्द्र सिंह एवं परिपूर्णानन्द ने भूख हड़ताल आरम्भ कर दिया। उनकी मांग थी कि रजिस्ट्रेशन एक्ट समाप्त हो एवं अत्याचारों की निष्यक्ष जाँच कराई जाये। जयनारायण व्यास एवं राजदरबार के आश्वासन पर 22 सितम्बर को इन्होंने अपनी हड़ताल वापस ले ली।

5 अक्टूबर, 1946 को नरेन्द्रशाह ने स्वास्थ्य अच्छा न होने के कारण अपने पुत्र के पक्ष में सिहांसन त्याग दिया। जनता को आशा थी कि युवराज मानवेन्द्र के राज्यभिषेक पर राजनैतिक बन्दियों को छोड़ा जायेगा किन्तु इसके विपरीत नवम्बर, 1946 ई में बिना सुनवाई के बन्दियों को कठोर सजा दे दी गई। जनवरी 1947 ई0 को कोटद्वार में प्रजामण्डल, आजाद हिंद फौज एवं कांग्रेस के सदस्यों का एक संयुक्त अधिवेशन हआ। कर्नल पित्तशरण रतूड़ी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक के बाद टिहरी के सैशन जज के सम्मुख राजनैतिक बन्दियों की अपीलें प्रस्तुत की गई।

अप्रैल, 1947 ई0 में दरबार ने शान्ति रक्षा अधिनियम लागू किया। इसके द्वारा प्रजामण्डल के कार्यकलाप, सभा, जूलूस एवं सब प्रकार की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 26-27 मई, 1947 के प्रजामण्डल के वार्षिक अधिवेशन को रियासत के अधिकारी नहीं होने देना चाहते थे। अतः धारा 144 लगा दी गई, फिर भी जयनारायण व्यास, मोहन लाल एवं कुशलानन्द ने इसे सफलता पूर्वक करवाया। राज्य का दमनचक इस हद तक बढ़ा कि अगस्त 1947 ई0 को अन्य लोगों के साथ ही अव्यस्क छात्रों को भी जेल में डाल दिया गया। काश्तकारों की फसलों को नष्ट करवा, निर्दयतापूर्वक वसूली, नीलामी इत्यादि के द्वारा जनता को आतंकित करने का प्रयास किया गया।

इस बीच सकलाना के मुऑफीदारों द्वारा पंचायत को समस्त अधिकार सौंप दिए जाने के बाद बलपूर्वक शासन को अपने हाथ में लेने का निर्णय लिया। अब रियासत की सेना व जनता के मध्य तीव्र संघर्ष प्रारम्भ हुआ। डिप्टी कॅलक्टर के नेतृत्व में अश्रु गैस छोड़ी गई किन्तु स्थिति बेकाबू होते देख कर्मचारी भागने लगे। इस घटनाक्रम में डीसी की गोली से नागेन्द्र सकलानी एवं मोलूराम की मृत्यु हो गई। आन्दोलनकारियों ने दोनों अधिकारियों को पकड़कर कैद कर लिया एवं शहीदों के शव के साथ टिहरी प्रस्थान का निश्चय किया। देवप्रयाग एवं खास पट्टी होता यह जन सैलाब 15 जनवरी 1948 ई0 को टिहरी पहुँचा। प्रताप इण्टर कॉलेज के मैदान में वीरेन्द्रदत्त सकलानी की अध्यक्षता में आजाद पंचायत का गठन हुआ। टिहरी के पूर्व नरेश नरेन्द्रशाह को आजाद पंचायत के स्वयं सेवकों ने भागीरथी पुल से आगे नहीं बढ़ने दिया। दूसरी तरफ भारत सरकार की ओर से सेना व पुलिस ने आकर नगर का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया। आजाद पंचायत ने सभा की जिसमें दो विचारधाराएं उभर कर सामने आई, एक पक्ष राजशाही के अधीन उत्तरदायी शासन एवं दूसरा पक्ष स्वतंत्र भारत में विलय का पक्षधर था। 15 जनवरी को राजा ने भी प्रजामण्डल की मांग स्वीकार करते हुए उत्तरदायी शासन की स्थापना का वचन दिया। 16 फरवरी, 1948 को दौलतराम की अध्यक्षता में सभा की गई और आन्तरिक सरकार का गठन हुआ जिसमें चार सदस्य प्रजामण्डल एवं एक सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किया गया। 12 अगस्त, 1948 को व्यस्क मताधिकार के आधार पर टिहरी विधानसभा का पृथक चुनाव हुआ जिसमें 24 स्थान प्रजामण्डल 5 प्रजा हितैषणी सभा और 2 स्वतंत्र प्रत्याशियों को प्राप्त हुए। मार्च, 1949 को राजा मानवेन्द्र ने विलय की सभी औपचारिकताए पूर्ण कर ली थी।

इस प्रकार श्रीदेव सुमन का बलिदान, सकलाना विद्रोह एवं कीर्तिनगर आन्दोलन की सफल परिणति के रूप में 1 अगस्त, 1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हुआ और उसको संयुक्त प्रांत के 50वें जनपद के रूप में शामिल कर लिया गया। गढ़वाल राज्य के 60वें एवं अन्तिम पवार राजा मानवेन्द्र की मृत्यु वर्ष 2007 ई० में हुई। वे राजमाता कमलेन्दुमति के बाद (1957 ई0 से) निरन्तर आठ बार टिहरी संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे। इस प्रकार उत्तराखण्ड से अन्तिम राजशाही का अन्त हुआ। 

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