गोरखों की कुमाऊँ विजय

गोरखों की कुमाऊँ विजय
गोरखा राज्य


अठारवहीं सदी के मध्य तक नेपाल छोटी-छोटी 24 रियासतो में विभक्त था जिन्हें चौबीसी के नाम से पुकारा जाता था। इसी समय में उत्तर की एक छोटी सी नेपाली रियासत के राजा ने अपना साम्राज्य विस्तार आरम्भ किया और एक छोटे से समयान्तराल के पश्चात् उसने लगभग सभी रियासतो पर अधिकार कर वृहद राज्य की स्थापना की जिसे हम 'नेपाल' कहते है। इस साम्राज्य में कुछ हिस्सा कुमाऊँ का भी शामिल था। 1778 ई0 में नेपाल राज्य की गद्दी पर सिंह प्रताप शाह आसीन हुआ। जब वह गद्दी पर बैठा तो वह अव्यस्क था इसलिए उसकी माता रानी राजेन्द्र लक्ष्मी ने संरक्षिका के रूप में राज्यभार संभाला। इस बीच सिंह प्रताप का छोटा भाई रन बहादूर शाह वापस लौटकर गद्दी पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत करता है। वह एक षड़यंत्र के द्वारा रानी राजेन्द्र लक्ष्मी की 1786 में हत्या करवा देता है और स्वयं सिंह प्रताप का संरक्षक बन जाता है। रानी राजेन्द्र लक्ष्मी एवं रन बहादुर दोनो ने विस्तारवादी नीति का पालन किया। इसी काल में लामजंग, तान्हन, कश्का, पारबत, प्रिसिंग, सतौन, इस्निया, मस्कोट, धारकोट, उर्गा, गुटिमा, जुमला, रागन, दार्मा, जुआर, प्यूथाना, धानी, जेसरकोट, चिली, गोलम, अचाम, धुलवे, दुलु व धोती सभी 'चौबीसी' एक-एक कर गोरखा साम्राज्यवाद के शिकार होते चले गए।

इस प्रकार 1790 ई0 तक लगभग सभी छोटी रियासतें नेपाली साम्राज्य का अंग बन जाती हैं। रनबहादुर ने आकामक साम्राज्यवादी नीति का प्रसार केवल नेपाल में ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्यों तक भी किया। इसी कम में उत्तराखण्ड के कुमाऊँ एवं गढ़वाल राज्य भी प्रभावित हुए। यद्यपि कुमाऊँ राज्य को नेपाल में मिलाने का सपना इससे भी पूर्व डोटी नरेश पृथ्वीपतीशाह देख चुका था किन्तु रन बहादुर की साम्राज्यवादी नीति का शिकार बनने के कारण उसे स्वयं अपना राज्य छोडकर भागना पड़ा और उसका स्वप्न स्वप्न ही रह गया। 
एक तरफ उत्तराखण्ड के पड़ोस में शक्तिशाली नेपाली साम्राज्य की स्थापना हो रही थी दूसरी ओर उत्तराखण्ड के कुमाऊँ साम्राज्य की स्थिति अत्यंत ही जर्जर थी। राजदरबार गुटबन्दी का केन्द्र बना हुआ था। महरा तथा फर्त्याल दल 'किंगमेकर' बने हुए थे और अपने इच्छानुसार राजा बनाए और हटाए जा रहे थे। उन्हीं के निर्देशों पर जोशी दीवान का कार्यभार देख रहे थे। राजभक्त एवं राज परिवार के विश्वासपात्र लोग मारे जा चुके थे। सर्वत्र अराजकता का माहौल बना हुआ था।

सामाजिक दृष्टि से भी इस समय कुमाऊँ कई-कई उपजातियों में बटाँ हुआ था। राज्य की आर्थिक स्थिति भी सोचनीय थी। राज्य के मुख्य बाजार रानीखेत, चंपावत, अल्मोड़ा, भिकियासैण में अनाज वितरण की कोई व्यवस्था नहीं थी। एक स्थान से दूसरे स्थान तक अनाज पहुँच ही नहीं पा रहा था। जंमीदार वर्ग के शोषण से समाज की परेशानी अत्यधिक बढ़ गई थी। सिरतान, खायकर, आसामी, थातवान, कैनी आदि सब परेशान थे। इसके ऊपर से अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, सूखे का प्राकृतिक प्रकोप और राज्य की अस्थिर राजनैतिक दशा के कारण किसी भी प्रकार की सिंचाई व्यवस्था न होने से अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी। लोग भूखमरी की दशा में पहुँच चुके थे।

अतः स्पष्ट है कि कुमाऊँ राज्य में इस समय राजनैतिक नेतृत्व के अभाव के साथ-साथ देशभक्ति और राजभक्ति की कल्पना भी व्यर्थ थी। 'भूखे पेट भजन न होत गोपाल' की उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही थी। अतः भूखमरी व अकाल की स्थिति से जूझ रही जनता से देश के लिए मरने की भावना का होना संभव न था। कुमाऊँ के ऐसे लोग जिनकी स्वार्थपूर्ति यहाँ नहीं हो पा रही थी, वे यहाँ की जर्जर स्थिति की सूचना नेपाल तक पहुँचा रहे थे। नेपाल में जारी साम्राज्यवादी नीति के विस्तार के लिए यह उपयुक्त अवसर था।

गोरखों की कुमाऊँ विजय

वर्ष 1790 के प्रारम्भ में हस्तिदल चौतरिया, जगजीत पांडे, अमरसिहं थापा एवं शूरवीर थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने कुमाऊँ अभियान के लिए प्रस्थान किया। गोरखा सेना को दो टुकड़ो में विभक्त किया गया। एक टुकड़ी ने काली नदी पार कर सोर क्षेत्र में प्रवेश कर उस पर अधिकार किया तो द्वितीय दल ने विसुंग पर अधिकार कर राजधानी अल्मोड़ा की ओर कदम बढ़ाए। हर्षदेव जोशी ने गोरखों के कार्य को और भी आसान कर दिया। हर्षदेव जोशी पूर्व में इस क्षेत्र का कार्यनुभाव था एवं उसने नृप निर्माता एवं तानाशाह की भूमिका का निर्वहन किया था। लेकिन परिस्थितियाँ उसके इतनी प्रतिकूल होती चली गई कि उसे स्वयं अपनी जान बचाने की चिन्ता हो रही थी। अतः रनबाहदुर शाह के आग्रह पर वह शीघ्र ही गोरखाओं का समर्थन करने को आसानी से तैयार हो गया। यही नहीं कालान्तर में उसने 1791 के गोरखाओं के गढ़वाल आक्रमण में भी पूर्ण सहयोग किया। वह गोरखाओं का विश्वास जीतने में सफल रहा। यही कारण है कि 1792ई0 में गोरखा ने उसे उत्तराखण्ड राज्य के विजित-क्षेत्र का प्रशासन का दायित्व भी सौंपा। गोरखों के इस आकास्मिक आक्रमण से कुमाऊँ में भय की लहर दौड़ गई। लोग अपने घर छोड़कर इधर-उधर भागने लगे। तत्कालीन कुमाऊँ नरेश महेन्द्रशाह ने अपनी ताकत इकट्ठा कर गगोंली में अपना मोर्चा लगाया। यहाँ पर उसका सामना अमर सिंह थापा से हुआ जिसे काली कुमाऊँ तक पीछे धकेल दिया किन्तु काली कुमाऊँ में कटोलगढ़ के निकट गँतोड़ा ग्राम के युद्ध में अमर सिंह थापा ने लाल सिंह की सेना को शिकस्त दी एवं उसके 200 से अधिक सैनिकों का कत्ल कर दिया। लाल सिहं अपनी जान बचाकर रूद्रपुर भाग गया। महेन्द्रशाह अपने पिता लालसिंह की सहायतार्थ आगे बढ़ रहा था जब उसे अपने पिता की हार की खबर मिली तो उसका रहा-सहा साहस भी जबाव दे गया और वह भागकर कोटाबाग चला आया। अब गोरखों के मार्ग को रोकने वाला कोई नहीं रहा और वे बिना किसी प्रतिरोध के मार्च 1790 ई0 के प्रारम्भ में चंद राजधानी अल्मोड़ा पहुँचे। इस अवसर पर हर्षदेव जोशी स्वयं उनके स्वागत के लिए उपस्थित था। इस प्रकार कुमाऊँ राज्य की स्वाधीनता समाप्त हो गई।

गोरखे लगभग एक वर्ष तक अल्मोड़े में रहे। सर्वप्रथम उन्होंने 'चौमहल' पर अधिकार कर चंद रानियों, राजकुमारियों को  अपना बनाया। अल्मोडे में घर-घर जाकर लूटपाट की। अल्मोड़े में जमा सोना, चाँदी, ताँबा आदि बहुमूल्य सामाग्री प्रतिदिन नेपाल भेजा जाने लगा। बोझा ढोने वाले 'कैदियों को बेरहमी से पीटा जाता था। ब्राह्मणों से भी कैदियो का कार्य लिया गया। यद्यपि गोरखे ब्राह्मण और गाय की पूजा करते थे किन्तु सभी ब्राह्मण की नहीं केवल उपाध्याय और पांडे ब्राह्मणों को पूज्यनीय मानते थे।

गोरखों ने कुमाऊँ पर 1790 से लेकर 1815 ई0 तक निरन्तर शासन किया। नेपाल नरेश का प्रतिनिधि कुमाऊँ प्रांत का शासन देखता था जिसे सुब्बा अथवा सूबेदार कहते थे। कुमाऊँ का प्रथम सूबेदार जोगा मल्ला शाह था। सुब्बा की सहायता के लिए काजी एवं एक सैनिक अधिकारी नियुक्त होता था जिसे 'नायब सुब्बा' कहते थे। मनिला सल्ट से प्राप्त हस्तलिखित सनदों में नेपाली पदाधिकारियों के नामों की लम्बी सूची प्राप्त होती है। (परिशिष्ट में संलग्न)

टिप्पणियाँ