प्रथम विश्व युद्ध के अवसर पर उत्तराखण्ड

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प्रथम विश्व युद्ध के अवसर पर उत्तराखण्ड

5 मई 1887 को अल्मोड़ा में गढ़वाल बटालियन का जन्म हुआ। गढ़वाली सैनिक बड़े जोश और उत्साह से सेना में भर्ती हुये। पहली गढ़वाल बटालियन के नायक दरबान सिंह नेगी ने प्रथम विश्व युद्ध में फांस की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से अपनी सेना के साथ युद्ध किया। सरकार ने उनकी वीरता से प्रभावित होकर 'विक्टोरिया क्रास' सम्मान प्रदान किया।
10 मार्च 1915 को न्यू चैपल (फ्रांस) की लड़ाई में गढ़वाली सैनिकों को आदेश दिया गया कि वह आगे जाकर शत्रु से मोर्चा लें। सर्दी का मौसम था और नमी व कोहरा भी था किन्तु गढ़वाली सैनिकों ने धीरे-धीरे व वीरता के साथ आगे बढ़कर शत्रु सेना से युद्ध प्रारम्भ कर दिया। दोनो तरफ से गोलियाँ चल रही थी। ऊपर से वायुयान बम बरसा रहे थे तभी एक गोली गढ़वाली बटालियन के नायक को लगी, उसके प्राण निकल गये। गढ़वाली सेना ऐसी परिस्थिति में असमंजस में पड़ गयी अब क्या किया जाए? क्योंकि उस समय तक उनके काफी साथी भी मौत की नींद से गये थे तभी राइफलमैन गबर सिंह नेगी ने अपने निराश हो चुके सैनिकों को युद्ध करने के लिए प्रेरित किया तथा स्वयं भी बंदूक लेकर शत्रु सेना पर टूट पड़ा। सैनिकों ने उनका साथ दिया। जब गोला बारूद कम पड़ गया तब शत्रुओं के शस्त्र छीनकर उन्हीं पर हमला बोल दिया। शत्रु सेना में अफरा-तफरी मच गई और गढ़वाली सैनिकों की जीत हो गई। किन्तु इस जीत में गबर सिंह घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा और फिर महान नायक रणभूमि में हमेशा के लिए सो गया। मरणोपरान्त उन्हें विक्टोरिया क्रास प्रदान किया गया। सन् 1885 से कांग्रेस के जन्म के बाद गढ़वाल में राष्ट्रीय आन्दोलन की भावना विकसित हो रही थी उसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। 1905 में 'गढवाली' मासिक पत्रिका के प्रकाशन ने इसमें एक गति पैदा कर दी। 1915 में गांधी जी देहरादून आये थे। इस समय वे अफ्रीका के सत्याग्रही थे। अनेक लोग उनसे मिले थे और सत्याग्रह के विषय में उनके विचारों को सुना। उस समय गढ़वाल के विद्यालयों के विद्यार्थियो में भी राष्ट्रीय विचारधारा का प्रचार किया जाता था किन्तु यह कार्य छिपकर किया जाता था। राघवेन्द्र राव विद्यालय की सुव्यवस्था के साथ-साथ निकट पड़ोस के गाँवो में स्वदेश प्रेम एवं खादी का प्रचार करते रहते थे।

कुमाऊँ परिषद् का गठन

सितम्बर 1916 ई0 को हरगोविन्द पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, मोहन सिंह इत्यादि लोगो के प्रयास से "कुमाऊँ परिषद्" की स्थापना हुई। इस परिषद् ने 1916 से द्वितीय चरण के आरम्भ तक स्थानीय समस्याओं को लेकर जनता की आवाज को एक दिशा प्रदान की। इसका प्रथम अधिवेशन (1917 ई0) अल्मोड़ा में हुआ जिसकी अध्यक्षता रिटायर्ड डिप्टी कलैक्टर जयदत्त जोशी ने की। इस पहले ही अधिवेशन में गरमपंथी व नरमपंथी दो विचारधाराएँ अभिव्यक्त हुई। 1918 के हल्द्वानी अधिवेशन में बेगार व वन सम्बन्धी कानूनो के खिलाफ प्रस्ताव रखे गए।

रौलक्ट एक्ट के विरोध में परिषद् ने अपनी आवाज उठाई। अप्रैल 1919 ई0 में काशीपुर एवं अल्मोड़ा में एक्ट के विरोध में हड़ताल व प्रर्दशन हुआ। परिषद् का तृतीय सम्मेलन वर्ष 1919 ई0 के कोटद्वार में बद्रीदत्त जोशी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन मुख्यतः बेगार एवं वन कानूनों पर केद्रित रहा।

परिषद् के प्रयासों से" नायक सुधार समिति" की स्थापना हुई जिसकी प्रथम बैठक नवम्बर 1919 को नैनीताल में हुईं। इसमें नायक कन्याओं के शिक्षण के लिए प्रथम विद्यालय एवं आर्थिक अनुदान की व्यवस्था का प्रस्ताव पास किया गया। परिषद् का चौथा अधिवेशन 1920 में काशीपुर में गोविन्द पंत की अध्यक्षता में हुआ। अधिवेशन में तय हुआ कि बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में एक शिष्ट मंडल नागपुर कांग्रेस में भाग लेगा जो महात्मा गांधी को राज्य आने का आंमत्रण देगा। नागपुर में शिष्ट मंडल की मुलाकात स्वामी सत्यदेव से हुई।

अधिवेशन से लौटने के पश्चात् कुली बेगार के विरोध में चामी (कत्यूर घाटी) गाँव के निवासियों ने एक सम्मेलन किया। इसके पश्चात् 1923 कांग्रेस में विलय होने तक परिषद् ने कुली बेगार, कुली बर्दाषत एवं वन कानूनों के खिलाफ एक मुहिम छेड़ कर रखी। परिणामतः कमिश्नर ट्रेल को खच्चर सेना की स्थापना की दिशा में प्रयास करना पड़ा।

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