उतराखंड का राजा सहजपाल

सम्वत् 1065 उतराखंड का राजा सहजपाल


अजयपाल के पश्चात् कमशः कल्याणशाह, सुन्दरपाल, हसदेवपाल, विजयपाल गद्दी पर बैठे। इन सभी के शासनकाल की जानकारी पूर्णतः अप्रर्याप्त है। तत्पश्चात 42वें शासक के रूप में सहजपाल पंवार नरेश बने। इनके शासनकाल की जानकारी के मुख्य स्त्रोत प्राप्य हैं।

देवप्रयाग में क्षेत्रफल के मन्दिर के द्वार पर उत्कीर्ण विकमी सम्वत् 1065 अर्थात 1548 ई के एक शिलालेख के आधार पर हरिकृष्ण रतुड़ी निष्कर्ष निकालते हैं कि सहजपाल ने गढ़राज्य पर लगभग सन् 1548 ई0 से 1575 तक शासन किया। कवि भरत ने सहजपाल की प्रशस्ति में अनेक पक्तियाँ लिखी हैं। उनका मानना है कि सहजपाल के शासनकाल में गढ़वाल (गढ़वाल) अपने विकास के चरमतम बिन्दु पर था।

माना जाता है कि सहजपाल मुगल सम्राट अकबर का समकालीन था और अकबर के साम्राज्य की सीमाएँ लगभग समस्त उत्तर भारत में फैल चुकी थी किन्तु तब भी गढ़राज्य सहजपाल के अधीन पूर्ण स्वतन्त्रता का आनन्द ले रहा था। आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार मुगलिया सल्तनत का अपनी समकालीन शक्तियों से जो सम्बन्ध थे उनमें गढ़वाल राज्य का महत्वपूर्ण स्थान था। यद्यपि श्रीनगर गढ़वाल का दिल्ली से कूटनीतिज्ञ सम्बन्ध था किन्तु प्रतीत होता है कि यह राज्य पूर्णतः स्वतंत्र था। 
बलभद्रशाह (1575- 1591 ई0)-

राजा सहजपाल के पश्चात गढ़वाल का सिहांसन बलभद्रशाह को प्राप्त हुआ। इनसे पूर्व 'शाह' उपाधि कल्याण शाह के नाम के साथ लगा मिलता है। लेकिन प्रतीत होता है कि "शाह' उपाधि लगाने की परम्परा का प्रचलन राजा बलभद्र ने प्रारम्भ की। 'शाह' की इस उपाधि के पीछे भक्तदर्शन ने अपना तर्क प्रस्तुत किया है कि भारतीय इतिहास का अभागा शहजादा अपने अनुज औरंगजेब से परास्त हुआ तो उसने श्रीनगर गढ़वाल में शरण ली किन्तु श्रीनगर के शासक ने उसे औरंगजेब को सौंप दिया। इस सेवा से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने गढ़वाल नरेश को " शाह" की उपाधि दी। यद्यपि इस धारणा की सच्चाई संदिग्ध है क्योंकि औरंगजेब के मुगल सम्राट बनने और कल्याणशाह एवं बलभद्रशाह के शासनकाल के मध्य लगभग 100 वर्षों का अन्तर है।

इस संदर्भ में पातीराम का मत है कि गढ़वाल क्षेत्र के तल्ला नागपुर क्षेत्र के ग्राम सतेरा का बर्थ्याल जाति का व्यक्ति राज्यकार्य से जब दिल्ली गया तो उसने मुगल हरम की अत्यंत रूग्ण महिला जिसका अनेकों उपाचार के बाद अन्त समय निकट लग रहा था, को एक धागा बाँधकर उसके रोग का पता लगाया और उसे ठीक करने में सफलता प्राप्त की। मुगल शंहशाह से उसने ही पारितोषिक में अपने राजा के लिए 'शाह' की उपाधि प्राप्त की थी। इस बात में तो सत्यता है कि गढवाल के ग्रामीण क्षेत्रो में आज भी पीलिया (जॉडिस) का ईलाज कलाई अथवा गले में माला (धागा) बाँधकर सफलतापूर्वक होता है लेकिन पारितोषिक में किसी अन्य के द्वारा प्राप्त उपाधि का प्रयोग उपर्युक्त नहीं प्रतीत होता है। ऐसा भी माना जाता है कि दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने बलभद्रपाल को शाह की उपाधि दी। सम्भवतः बलभद्र ने गढराज्य की शक्ति का पुर्नउत्थान किया जिसके कारण उसने शाह की उपाधि धारण की।

वॉल्टन महोदय के अनुसार बलभद्रशाह ने 1518 ई में कुमाऊँ के शासक से ग्वालदम नामक स्थान पर युद्ध किया। डा० उबराल इस युद्ध की तिथि 1590-91 ई0 के मध्य मानते हैं। युद्ध की तिथि स्पष्ट नहीं परन्तु यह स्पष्ट है कि गढ़वाल नरेश ने 1518-91 ई0 के मध्य ही कुमाऊँ पर आक्रमण किया। अतः इस आधार पर बलभद्रशाह के शासनकाल की सम्भावित तिथि 1575-91 ई० ठहरती है।

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