मध्यमेश्वर मंदिर ऊखीमठ धरोहरों की श्रृंखला ऊखीमठ स्थित पंच केदार मध्यमेश्वर मंदिर

 मध्यमेश्वर मंदिर ऊखीमठ 

धरोहरों की श्रृंखला ऊखीमठ स्थित पंच केदार मध्यमेश्वर मंदिर

देश-दुनिया का यह एकमात्र मंदिर शेष है, जिसका निर्माण अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में हुआ है। उत्तराखंड हिमालय में इस स्थित इस मंदिर में शीतकाल के दौरान बाबा केदार के साथ ही द्वितीय केदार बाबा मध्यमेश्वर भी विराजते हैं। मंदिर की सबसे बड़ी खासियत इसकी मजबूती और पौराणिकता है।

मध्यमेश्वर
Panch Gaddisthal Madhyameshwar Temple at Ukhimath, a series of heritage sites

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित मध्यमेश्वर मंदिर अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल प्रथम केदार भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदारों की दिव्य मूर्तियां और शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। मान्यता है कि इस मंदिर में ओंकारेश्वर महादेव के दर्शनों से पंचकेदार यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है। कथा है कि वानप्रस्थ की अवस्था प्राप्त होने पर राजा मान्धाता ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें प्रणव स्वरूप अर्थात ओंकार रूप में दर्शन दिए। इसीलिए यहां अधीष्ठित भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को ओंकारेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा। ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है। इस समूह में वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका और अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं।🚩 

उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में।🚩

शीतकाल में केदारनाथ के कपाट बंद होने पर बाबा की भोग मूर्ति को डोली, छत्र, त्रिशूल आदि प्रतीकों के साथ ऊखीमठ लाकर मध्यमेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी तरह द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की चल विग्रह उत्सव मूर्ति भी शीतकाल में यहीं विराजती है। इसके अलावा ओंकारेश्वर मंदिर पंचकेदारों का गद्दी स्थल भी है।🚩

पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर बाणासुर की पुत्री उषा एवं भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ था। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। देवी उषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम 'आसमा' था। राजा मान्धाता की तपस्थली होने के कारण इसे मान्धाता भी कहा जाता है। इसलिए केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ 'जय मान्धाता' से ही होता है।🚩 
मध्यमेश्वर

बदरीनाथ के बाद सबसे खूबसूरत सिंहद्वार-

मध्यमेश्वर मंदिर चारों ओर से प्राचीन भव्य भवनों से घिरा हुआ है, जिनकी छत पठाल निर्मित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए बाहरी भवन पर एक विशाल सिंहद्वार बना हुआ है, जो मंदिर में प्रवेश का एकमात्र मार्ग है। बेहतरीन नक्काशी वाला यह द्वार खूबसूरती में बदरीनाथ धाम के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद उत्तराखंड में दूसरा स्थान रखता है। 

ब्रिटेन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर ऑर्थर जॉन इवान्स ने जुलाई 1892 को इस मंदिर का सर्वेक्षण किया था। इस दौरान जो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए, उनका उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लैंड्स ऑफ गॉड्स एंड ऑर्किटेक्चर स्टाइल ऑफ हिंदू टैंपल' के अध्याय-523 में विस्तार से वर्णन किया है। शोध के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह मंदिर विश्व के सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिरों में से एक है।

मध्यमेश्वर

इतिहासकारों के अनुसार 1027 ईस्वी में मुस्लिम शासक महमूद ने ओंकारेश्वर मंदिर के सभामंडप की छत को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन, वह सभामंडप की दीवारों और गर्भगृह को ध्वस्त नहीं कर सका। इसके बाद क्षेत्रीय लोगों ने सभामंडप की छत पठालों से निर्मित की। वर्तमान में यह छत सीमेंट-कंक्रीट की बनी हुई है।

धारत्तुर परकोटा शैली आज से 4702 वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में रही है। इसके बाद यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। मध्यमेश्वर मंदिर का निर्माण इस शैली में होने के कारण इसके गर्भगृह के बाहर से 16 और भीतर से आठ कोने हैं। जिन्हें विभिन्न अट्टालिकाओं से आवेष्टित स्तंभ एक दूसरे से पृथक करते हैं। मंदिर पर जो भव्य प्रभाएं निर्मित हैं, उन्हें इस शैली के अनुसार अंगूर के पत्रों के सदृश मंदिर की मध्यांतक प्रभा पर उकेरा गया है। इस प्रभा के नीचे गवाक्ष रंध्रों से ऊपर की ओर जाती स्मलिक पट्टिकाएं उभरी हुई हैं, जिनके मध्य में अति भव्य मृणाल पिंड विराजमान है।

मंदिर की सभी स्मलिक पट्टिकाओं पर शांडिल्य श्रुतक उकेरे गए हैं, जिनसे होकर पट्टियां गर्भगृह के शिखर तक जाती हैं और एक विशाल चबूतरे के साथ मिलकर खत्म हो जाती हैं। गर्भ के मध्यांतक दीर्घप्रभा के नीचे की ओर प्रत्येक खंड पर कृतांतक पटल के साथ भूमि तक जाती भौमिक रेखाएं हैं। जबकि, गर्भगृह के शिखर पर चारों दिशाओं से छेनमल्लमत्रिकाएं उकेरी गई हैं।

इसमें पाषाणों को भीतर से घुमाकर स्टोन वेल्डिंग करकेलगाया जाता था। प्रत्येक शिला के गुरुत्व केंद्र में स्थित एक शिला को सीधा रखा जाता था। इससे संपूर्ण मंदिर का गुरुत्व केंद्र एक ही स्थान पर रहता है। भीतर से घुमाकर लगाए गए पट्टीनुमा पाषाण मंदिर को लचीला बनाते हैं। इससे कंपन्न के अनुरूप ही मंदिर भी कंपन्न करता है। इसके गुरुत्व केंद्र पर लगाए पाषाण बाहरी ढांचे को आपस में जोड़े रखते हैं।

इस मंदिर पर जो पाषाण लगे हैं, उन पर ग्रेनाइट की मात्रा अधिक है। इसी कारण यह मंदिर प्रकृति के अनेकों थपेड़े सहकर भी अपने स्थान पर अडिग बना हुआ है। जबकि कत्यूरी शैली के अधिकांश मंदिरों के पाषाणों पर स्फटिक सिल्ट की मात्रा अधिक थी, जिससे विकृत होने के कारण समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार करवाया गया। प्रामाणिक तथ्यों के अनुसार आज तक इस मुख्य मंदिर के जीर्णोद्धार की जरूरत महसूस नहीं हुई।

वैदिक वास्तुकला से सुसज्जित इस मंदिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है। इन पत्थरों को पांच वर्षों तक मूंगा की चट्टानों कैल्शियम कॉर्बोनेट के चूर्ण और यव (जौ) से बने घोल में भिगोकर रखा गया था। मंदिर की दीवारें इतनी विशिष्टता के साथ निर्मित हैं कि यह अन्य मंदिरों की 28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत हैं।

यह एकमात्र प्राचीन मंदिर है, जिसके द्वारपाल के रूप में ब्रह्मदेव व श्रीहरि विराजमान हैं। अन्य किसी भी मंदिर में ब्रह्मदेव व श्रीहरि की प्रतिमाएं द्वारपाल के रूप में स्थापित नहीं है|

 विश्व के मात्र 3 हिन्दू मन्दिरों पर दिव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश लगे हुए हैं और इन कलशों को तीनों मन्दिरों पर भिन्न भिन्न धातु के साथ मिलाकर बनाया गया है। 

इन 3 मन्दिरों के नाम जिनपर पंचशीर्षाभिमुखी कलश स्थापित हैं :

१:- श्री केदारेश्वर मन्दिर 

२:-श्री मध्यमेश्वर मन्दिर (ऊखीमठ)

३:-श्री पशुपतिनाथ मन्दिर (नेपाल )

१:- श्री केदरनाथ मन्दिर पर उपस्थित कलश :- श्री केदारनाथ मन्दिर का दिव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी ताम्र धातु तथा बाहर से स्वर्ण धातु का बनाया गया था। जो कि वर्तमान समय में मन्दिर पर उपस्थित नहीं है , क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व वह दिव्य कलश मनुष्य के लालच की भेंट चढ़ गया। और वर्तमान में उस कलश के स्थान पर जांभलुकी श्रेणी का कलश स्थापित किया गया है। 

2:- श्री मध्यमेश्वर मन्दिर (ऊखीमठ) पर उपस्थित कलश :
श्री ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ पर स्थापित भव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी रजत धातु तथा बाहर से स्वर्ण धातु से निर्मित किया गया था। जो आज भी उसी स्वरुप में मन्दिर के शीर्ष को सुशोभित करता हुआ दिखाई देता है। 

३:- श्री पशुपतिनाथ मन्दिर (नेपाल )पर उपस्थित कलश:
श्री पशुपतिनाथ मन्दिर नेपाल पर स्थापित भव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी स्वर्ण धातु और बाहर से भी स्वर्ण धातु से निर्मित किया गया था। जो आज भी उसी स्वरुप में मन्दिर के शीर्ष को सुशोभित करता हुआ दिखाई देता है। 

आशा है कि आपको यह जानकारी अवश्य ही रुचिकर लगी होगी। 

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