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उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का इतिहास
प्राकृतिक सौन्दर्य, विशिष्ट भूगोल के कारण उत्तराखण्ड की अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रही है। इस क्षेत्र की बोली-भाषा एवं रहन-सहन देश के अन्य भागों से भिन्न है। इन सब कारणों ने इस हिमालयी क्षेत्र को भारत के शेष भू-भाग से अलग पहचान दी है। सिगौली की सन्धि के पश्चात् स्थापित अंग्रेजी शासन ने इस पवर्तीय क्षेत्र की संपदा का जो अनियन्त्रित दोहन चक शुरू किया था, दुर्भाग्यवश आजादी के बाद भी वह निरन्तर जारी रहा। इस अनियमित दोहन और स्थानीय विकास की अनदेखी ने स्थानीय जनप्रतिनिधियों को पृथक् प्रशासनिक इकाई की मांग के लिए विवश किया।
History of Uttarakhand Statehood Movement |
इस हिमालय क्षेत्र के लिए कोई पृथक् नीति व नियोजन न होने के कारण उपलब्ध अपार संपदा के वृहद् पैमाने पर दोहन ने पर्यावरण असंतुलन को जन्म दिया। खन्न माफियाओं ने सरकारी अधिकारियों से मिलीभगत कर डायनामाइट से सारा पहाड़ हिला दिया, किन्तु स्थानीय जनता के हित के किसी भी उद्योग का स्थानीयकरण नही हुआ। फलतः पलायन (ब्रेनड्रेन) ने धीरे-धीरे पहाड़ के हरे-भरे एवं आबाद क्षेत्रों को वीरान करना प्रारम्भ कर दिया। जनता के लिए अस्पताल खुले पर उनमें डाक्टरों की नियुक्ति नहीं हुई, स्कूल खोल दिए गए किन्तु विद्यालय भवन और शिक्षकों का अभाव लगातार बना रहा, घर-घर तक पानी के नल लगवाए किन्तु कभी उनमें पानी नहीं छोड़ा गया। यहाँ भेजे गए अधिकारी स्वयं को सजा के तौर पर भेजा मानकर कभी विकास को प्रमुखता दे ही नहीं पाए।
सड़कों के विकास के नाम पर पहाड़ों का अवैज्ञानिक कटान जो आरम्भ हुआ, उसका परिणाम वर्तमान में भूस्खलन के रूप में निरन्तर जारी है। छोटे-छोटे बाँधों की बजाय टिहरी बाँध जैसी बड़ी-बड़ी परियोजनाएं शुरू कर स्थापित लोगों को भी पलायन के लिए बाध्य किया गया। इस अवैज्ञानिक और अनियंत्रित नियोजन से पहाड़ो की हरियाली गायब होने लगी, जल स्त्रोत सूखने लगे। पर्यावरण असंतुलन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ती गई। परिणामतः पहाड़ की जवानी मैदानों को पलायन करने लगी। अन्ततः सब्र का बांध टूट गया और क्षेत्रीय समस्याओं और विकास से पूरी तरह वछित पहाड़वासियों के पास पृथक् राज्य का नारा बुलन्द करने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं बचा।
यद्यपि इस उपेक्षा और समस्याओं से घिरे लोगों में पृथक् राजनैतिक सांस्कृतिक पहचान की दिशा में स्वतन्त्रता से पूर्व ही सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। सर्वप्रथम 1897 ई0 में महारानी को भेजे बधाई संदेश में इस सन्दर्भ में बात रखी गई थी। वर्ष 1923ई0 में पर्वतीय क्षेत्र को सयुंक्त प्रान्त से पृथक् करने का ज्ञापन राज्यपाल को सौंपा गया। वर्ष 1928 में कुमाऊँ एवं पृथक् प्रान्त शीर्षक का स्मृति-पत्र राज्यपाल के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को दिया गया। तब कुमाऊँ से तात्पर्य वर्तमान उत्तराखण्ड क्षेत्र से था जिसमें केवल टिहरी रियासत सम्मिलित नहीं था। वर्ष 1929 में कुछ प्रबुद्धजनों ने पृथक् संविधान निर्माण के लिए एक संसदीय समिति के गठन की मांग रखी। वर्ष 1946 में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे ने उत्तर प्रदेश के इस पर्वतीय हिस्से के लिए अलग प्रशासनिक इकाई बनाने की मांग की।
इस पर्वतीय राज्य की मांग को 1928 के काँग्रेस अधिवेशन में उठाया गया। गोलमेज सम्मेलन और कैबिनेट मिशन के सम्मुख भी इस मांग को दोहराया गया। 1938, श्रीनगर गढ़वाल के काँग्रेस अधिवेशन में स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने इसकी वकालत की। वर्ष 1952 में सी0पी0आई0 के महासचिव पी०सी० जोशी ने केन्द्र सरकार को पृथक् उत्तराखण्ड राज्य के संबंध में ज्ञापन दिया किन्तु उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री (गोविन्द बल्लभ पंत) ने, जो स्वयं इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासी भी थे, इस मांग को अस्वीकार कर दिया। कॉमरेड जोशी ने स्वायत्तशासी पर्वतीय राज्य के लिए एक सर्वदलीय संघर्ष चलाने का प्रयास किया जो जन सहयोग के अभाव में आरम्भ न हो सका। वर्ष 1956 में राज्य पुर्नगठन अधिनियम पारित होने से नए राज्यों के गठन का मार्ग खुला। इसके बावजूद इस पर्वतीय राज्य के गठन को कोई महत्व नहीं दिया गया। वर्ष 1967 के रामनगर कांग्रेस अधिवेशन में इस क्षेत्र के लिए पृथक् प्रशासनिक इकाई गठन का प्रस्ताव पारित हुआ।
क्षेत्रीय समस्याओं के लिए कुमाऊँ परिषद् का 1916 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय हुआ। 1938 ई० में श्रीदेव सुमन ने दिल्ली में गढ देश सेवा संघ की स्थापना की जिसे कालान्तर में हिमालय सेवा संघ नाम दिया गया। पौड़ी गढ़वाल के निवासियों ने पर्वतीय लोगों की मांगे न मानने पर वर्ष 1930 में गढ़वाल जागृत संस्था का गठन किया। वर्ष 1950 में उत्तराखण्ड एवं हिमाचल के लोगों ने कांगड़ा से हिमालय तक एक पृथक् राज्य संघर्ष के लिए पर्वतीय विकास जन समिति का गठन किया। वर्ष 1967 में दयाकृष्ण पाण्डेय की अध्यक्षता में रामनगर की वृहद् जन सभा ने पर्वतीय राज्य परिषद् का गठन किया जिसका उद्देश्य पर्वतीय राज्य की मांग को एक आंदोलन में तब्दील करने का था। कॉमरेड पी0सी0 जोशी ने 1970 में कुमाऊँ राष्ट्रीय मोर्चा का निर्माण कर एकबार पुनः पृथक् राज्य के लिए संघर्ष का प्रयास किया।
वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी०सी० कृष्णाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए पृथक् योजनाएं निर्माण कर उनके कार्यान्वयन की सलाह सरकार को दी थी। किन्तु इस ओर किसी सरकार ने ध्यान नही दिया, परिणामतः पृथक् प्रशासनिक इकाई की बैचेनी बढ़ती गई। वर्ष 1973 में उत्तराखण्ड के दो सांसदो प्रताप सिंह नेगी और नरेन्द्र सिंह बिष्ट को शामिल करते हुए पृथक पर्वतीय राज्य परिषद् का पुर्नगठन किया गया। इसके नेत्तृव में वोट क्लब दिल्ली में धरना प्रदर्शन हुआ। वर्ष 1972 में क्षेत्रीय समस्याओं के लिए संघर्ष करने हेतु नैनीताल में उत्तरान्चल परिषद् का गठन हुआ। वर्ष 1978 को उत्तराखण्ड युवा मोर्चा ने पृथक् राज्य के नारे के साथ बद्रीनाथ से दिल्ली तक पद यात्रा की। इसी वर्ष जनता पार्टी की सरकार के ही सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व उत्तरान्चल राज्य परिषद् का गठन कर वोट क्लब पर प्रदर्शन किया गया। वर्ष 1979 मंसूरी में आयोजित पर्वतीय जन विकास सम्मेलन में पृथक् राज्य की मांग उठाने के लिए एक राजनैतिक संगठन उत्तराखण्ड क्रान्ति दल का गठन किया गया। उसके प्रथम अध्यक्ष कुमाऊँ विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डा० देवीदत्त पन्त बने। इस दल का एक सूत्रीय कार्यक्रम क्षेत्रीय समस्याओं का समाधान और पृथक् राज्य के लिए संघर्ष जारी रखना था। वर्ष 1980 के उपरान्त हुए विधान सभा के चुनावों में इस दल को व्यापक समर्थन मिला। 1988 में इसने असहयोग आंदोलन के तहत गिरफ्तारियां दी। इसी वर्ष भाजपा ने अपने विजयवाड़ा अधिवेशन में इस पर्वतीय क्षेत्र के लिए 'उत्तरान्चल' नाम अंगीकृत किया अर्थात भाजपा भी पृथक् राज्य निर्माण आन्दोलन में कूद पड़ी। इस कड़ी में भाजपा ने अप्रैल 1990 को वोट क्लब पर एक बड़ी रैली आयोजित की। वर्ष 1991 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में भाजपा को भारी सफलता मिली। उसने सरकार बनाते ही उत्तरान्चल राज्य का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा। इस काल में कांग्रेस को छोड़कर अन्य सभी छोटी-बड़ी पार्टियों ने पृथक् राज्य की मांग का सर्मथन किया। हल्द्वानी में कुमाऊँ शोषित मोर्चा ने तो एक बैठक आयोजित कर पृथक् राज्य की मांग का विरोध किया था। वर्ष 1991 में वामधारा के लोगों ने उत्तराखण्ड संघर्ष मोर्चा बनाया। इस संगठन ने आल इंडिया एक्स सोल्जर्स कमेटी के साथ मिलकर 1992 में वोट क्लब पर प्रदर्शन किया।
नब्बे के दशक में पृथक् राज्य निर्माण की मांग एकाएक तीव्र हुई। कई राजनैतिक क्षेत्रीय संगठन संघर्ष समितियां गठित हुई। 1988 ई0 में सोबन सिंह जीना ने उत्तरान्चल परिषद् बनाई तो 1980 में जनसंघर्ष वाहिनी, उत्तराखण्ड रक्षा मंच, उत्तराखण्ड जनपरिषद् और युवा जनता दल ने संयुक्त रूप से उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति का निर्माण किया जिसके पृथक् अध्यक्ष द्वारिका उनियाल चुने गये। वर्ष 1994 में बहादुर राम टम्टा ने भी संयुक्त उत्तराखण्ड राज्य मोर्चा बनाया। लेकिन केन्द्र सरकार ने अभी तक इस आंदोलन को अधिक महत्व नहीं दिया। समाजवादी पार्टी की सरकार आने पर मुलायम सिंह यादव ने 1994 में पृथक् उत्तराखण्ड गठन हेतु कौशिक समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष रमाशंकर कौशिक थे। समिति की सिफारिश पर उतर प्रदेश विधानसभा से पृथक् राज्य का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भेजा गया। लेकिन जैसा कि हमारी राजनैतिक सोच इस प्रकार की स्थापित हो चुकी है कि जब तक कोई समस्या गले की हड्डी न बन जाए, उसका समाधान करना ही नहीं है। अगर कुछ करना है तो तुष्टीकरण की नीति द्वारा कोई त्वरित समाधान दे दो। उत्तराखण्ड के पर्वतीय निवासियों के साथ भी यही सब हुआ और एक बड़े संघर्ष की शुरूआत हुई जिसमें रामपुर तिराहा कांड जैसी अपमानजनक घटना एक लोकतंत्रात्मक देश में लोकतंत्र के गिरते स्तर को बयान करती है।
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