मानवेन्द्रशाह टिहरी रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था

मानवेन्द्रशाह टिहरी रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था

नरेन्द्रशाह ने वर्ष 1948 ई0 में अपने पुत्र के पक्ष में स्वेच्छा से गद्दी का परित्याग किया। मानवेन्द्रशाह टिहरी रियासत की गद्दी पर आसीन होने वाले अन्तिम शासक थे। रवांई कांड, सुमनजी का बलिदान, सकलाना विद्रोह एवं प्रजामण्डल की बढ़ती गतिविधियों ने टिहरी राज्य के भारतीय संघ में विलय की प्रकिया को तीव्र कर दिया था। अन्ततः 1 अगस्त 1949 को टिहरी राज्य का विलय भारत संघ में कर दिया गया और इसे तत्कालीन संयुक्त प्रांत का एक जनपद बना दिया गया। इस प्रकार उत्तराखण्ड राज्य की अन्तिम रियासत से राजशाही का अन्त हो गया।

Administrative System of Manvendra Shah Tehri State

टिहरी रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था

टिहरी रियासत में शासन व्यवस्था प्राचीन परम्पराओं एवं आदर्शों पर आधारित थी। राजा इस व्यवस्था के केन्द्र में होता था किन्तु वह निरंकुश नहीं था। वह अपने मंत्रिमण्डल के परामर्श से ही प्रशासन चलाता था। राज्य की समस्त प्राकृतिक, स्थावर एवं जंगम सम्पति, भूमि, वन, खनिज इत्यादि सभी पर राजा का अधिकार माना जाता था। राजा मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष होता था। वह कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का प्रमुख भी था। सभी नियुक्तियाँ वह स्वयं करता था। उसकी आज्ञा सर्वोपरि होती थी।

राज्य में दीवान अथवा वजीर राजा के पश्चात् सर्वोच्च पदाधिकारी था। राज्य के सभी विभाग एवं उनके कार्यालय इसी के अधीन होते थे। राज्य की आन्तरिक व्यवस्था एवं इस हेतु नीतियों का निर्धारण मुख्यतः दीवान के द्वारा ही होता था। रवांई कांड के लिए मूलतः जिम्मेदार दीवान चक्रधर नरेन्द्रशाह के काल में इस पद पर नियुक्त थे। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से राज्य का विभाजन ठाणों, परगनों, पट्टियों एवं ग्रामों के रूप में किया गया था। सम्पूर्ण राज्य में चार ठाणे थे। ठाणे का प्रशासक ठाणदार कहलाता था। इन चार ठाणो का विभाजन परगनों में किया गया था जिसका प्रशासक 'सुपरवाइजर' कहलाता था। प्रत्येक परगना पट्टियों में विभाजित था जिनमें राजस्व व पुलिस व्यवस्था की जिम्मेदारी पटवारी की होती थी। प्रत्येक पटवारी के अधीन निश्चित संख्या में ग्राम होते थे। पटवारी इन गांवो से राजस्व एकत्रित कर सरकारी खजाने में जमा करवाता था। प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई ग्राम थे जिनके मुखिया को 'पधान' कहते थे। पधान ही अपने गाँव से राजस्व एकत्रित करने में पटवारी को सहायता देता था। पधान को गाँव के ही मोरूसीदारों में से नियुक्त किया जाता था।

भूमि प्रबन्धन-

राज्य की समस्त भूमि का स्वामित्व राजा में निहित था। अतः राज्य में कृषि करने की अनुमति राजाज्ञा से दी जाती थी। राजा की आज्ञा से कृषि भूमि पर कृषि करने वालो को आसामी कहा जाता था। आसामी तीन प्रकार के होते थे-
1.) मौरूसीदार
2.) खायकर
3.) सिरतान
सामान्यतः जो राजा की आज्ञा से कृषि कार्य स्वतन्त्र रूप से स्वयं करता था मौरूसीदार कहलाता था। यह सीधे राज्य को राजस्व देता था। मौरूसीदार से भूमि लेकर कृषि कार्य करने वाले किसान को 'खायकर' कहते थे। इनके द्वारा निर्धारित रकम मौरूसीदार को दी जाती थी। तृतीय प्रकार के कृषक 'सिरतान' थे जो मौरूसीदार अथवा खायकर कृषकों की जमीन लेकर खेती करता था एवं बदले में नकद (सिरती) रकम दिया करता था।

चूंकि भू-स्वामित्व राजा में निहित था अतः कृषक जमीन का लेन-देन नहीं कर सकते थे। ऋण वसूली के लिए भी भूमि की ब्रिकी नहीं होती थी। इसलिए गाँव की भूमि गाँव से बाहर नहीं 
जाने पाती थी। प्रदत्त कृषि भूमि में कृषक आवास एवं पशुओं के आश्रय' स्थल के लिए प्रयुक्त भूमि को भी समाहित किया जाता था।

शिक्षा व्यवस्था

प्रारम्भिक काल में रियासत के नरेशों ने शिक्षा-व्यवस्था की ओर कोई ध्यान न दिया। राजपरिवार के बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा के लिए अवश्य कुछ पंडित नियुक्त किए जाते थे। किन्तु प्रतापशाह के काल से शिक्षा क्षेत्र की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा। कीर्तिशाह ने अंग्रेजी शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाते हुए राजधानी में प्रताप हाईस्कूल एवं हीवेट संस्कृत पाठशाला खुलवाई। जनता को शिक्षित बनाने के उद्देश्य से राज्य के कई ग्रामों में पाठशालाएँ स्थापित करवाई। इसके अतिरिक्त कीर्तिशाह ने टिहरी में ही मुहमद मदरसा और कैम्पबैल बोर्डिंग हाउस भी बनवाया। नरेशों ने न केवल अपने राज्य बल्कि राज्य से बाहर भी शिक्षा के विकास में योगदान किया। विभिन्न विद्यालयों को वित्तीय सहायता प्रदान की गई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को नरेन्द्रशाह द्वारा प्रदत्त एक मुश्त एक लाख की राशि पर कीर्तिशाह चेयर ऑफ इडस्ट्रीयल केमेस्ट्री स्थापित है जो वर्तमान में इस क्षेत्र में शोध करने वाले को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

स्वास्थ्य - सुविधाएँ 

चिकित्सा क्षेत्र में राज्य की ओर से पहला प्रयास प्रतापशाह के काल का मिलता है जिन्होंने वर्ष 1876 में पहला 'खैराती शफाखाना' स्थापित करवाया। इस शफाखाना में भारतीय एवं यूरोपीय पद्धति की चिकित्सा दी जाती थी। चिकित्सा क्षेत्र में कीर्तिशाह की पहल उल्लेखनीय है। उनके द्वारा उत्तरकाशी में एक कोढ अस्पताल की स्थापना हुई। साथ ही उन्होंने यात्रा मार्ग पर छोटे-छोटे औषधालय खुलवाए। अपने राज्य में चेचक जैसी महामारी को खत्म करने के लिए कीर्तिशाह ने टीकाकरण आरम्भ करवाया। सर्वप्रथम आधुनिक चिकित्सालय की स्थापना का श्रेय नरेन्द्रशाह को जाता है, इसकी स्थापना 1923 ई० में हुई। इसके साथ-साथ उन्होंने देवप्रयाग, उत्तरकाशी एवं राजगढ़ी के औषधालयों का उच्चीकरण भी किया। टिहरी रियासत के प्रारम्भिक शासक सम्भवतः अपनी प्रारम्भिक कठिनाईयों के चलते इस ओर ध्यान नहीं दे पाए। प्रतापशाह के पश्चात् लगभग सभी टिहरी नरेशों ने जनता को स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराने का प्रयत्न किया। इसका ही परिणाम था कि वर्ष 1940 ई0 तक राज्य में 15 आयुर्वेदिक औषधालय एवं मुख्य शहरों में आधुनिक सुविधाओं से युक्त चिकित्सालय थे। वर्ष 1943 ई0 में राज्य टीका विधान पारित किया गया। रेडकास सोसाइटी की स्थापना राज्य में वर्ष 1934 ई0 में हो चुकी थी। अतः इससे स्पष्ट होता है कि टिहरी शासकों ने जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया था।

यातायात एवं संचार व्यवस्था

सम्भवतः इस पहाड़ी प्रदेश में पूर्वकाल में सुरक्षा दृष्टि से मार्गों की सुव्यवस्था की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। सुदर्शनशाह एवं भवानीशाह ने झूलापूलों एवं सड़को की मरम्मत अवश्य करवाई किन्तु सड़क निर्माण की दिशा में रूचि सर्वप्रथम प्रतापशाह ने दिखाई। उसने सड़कों एवं भवनों के निर्माण के लिए एक अधीक्षक की नियुक्ति भी की। नरेन्द्रशाह के काल में मोटर मार्ग निर्माण के कार्य की गति तीव्र हुई। उन्होंने राजधानी नरेन्द्रनगर का सम्पर्क मैदानी क्षेत्र एवं अपने राज्य के प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा किया। नरेन्द्र नगर से मुनि की रेती (ऋषिकेश), मुनि की रेती से ब्रिटिश गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर एवं नरेन्द्रनगर से टिहरी मोटरमार्ग का निर्माण उनके शासन काल में ही हुआ।

न्याय व्यवस्था

गोरखों द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था में परिवर्तन किया गया। 'दिव्य' प्रकार की न्याय व्यवस्था का अंत हुआ। प्रथम शासक सुदर्शनशाह ने छोटी दीवानी, बड़ी दीवानी, सरसरी न्यायालय एवं कलक्टरी न्यायालय खोले । हत्या के मामलों का निर्णय स्वयं राजा द्वारा होता था। न्याय व्यवस्था की आधुनिकीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल नरेन्द्रशाह ने की। उन्होंने परम्परागत एवं प्रथागत नियमों को संहिताबद्ध करवाया जिन्हें 'नरेन्द्र हिन्दू लॉ' के नाम से  जाना जाता है। वर्ष 1938 ई0 में नरेन्द्रशाह ने राज्य में एक हाईकोर्ट की स्थापना की। इसमें एक मुख्य न्यायधीश एवं एक या एक से अधिक जजों की नियुक्ति की व्यवस्था रखी गई थी। हाईकोर्ट एवं उसके अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय पर पुर्नविचार का अधिकार महाराज को था। इस कार्य में महाराज जूडिशियल कमेटी की सलाह ले सकते थे। फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए सैशन न्यायालय स्थापित किए गए। इस प्रकार के न्यायालय का प्रमुख सैशन जज होता था जिसके अधीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के न्यायधीश होते थे। इस प्रकार हम पाते है कि नरेन्द्रशाह ने यूरोपीय पद्धति को अपने राज्य में स्थापित किया।

अर्थव्यवस्था

प्रारम्भिक काल में रियासत की अर्थव्यवस्था बहुत खराब थी, यही कारण है कि महाराज सुदर्शनशाह को अपने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजो को सौंपना पड़ा। ट्रेल महोदय का विवरण की यात्रा-मार्ग पर लूट-पाट की घटनाएँ अधिक होती है, के पीछे भी जनता की दयनीय अर्थव्यवस्था ही थी। लेकिन कालान्तर में इसमें सुधार आया जिनका प्रतिफल जनकल्याण के कार्यों से होता है। 
राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमिकर ही था। इसके अतिरिक्त वन, न्यायालय, यातायात, आयात-निर्यात, मादक द्रव्य उत्पादन, ब्रिकीकर इत्यादि राज्य की आय के स्त्रोत थे। भूमिकर का 7 भाग नकद लिया जाता था। जिसे 'रकम' कहते थे एवं शेष भाग 8 जीन्स रूप में लिया जाता था। जागीरदार और मुऑफीदार अपने-अपने गाँवों से 'रकम' 'बरा' एवं लकड़ी लिया करते थे। राज्य के कर्मचारी, पटवारी, उसके अधीनस्थ 'चाकर' और फॉरेस्ट गार्ड को भी गाँव से 'बरा' दिए जाने की प्रथा थी। राज्य में वनों में शिकार खेलने के लिए लाइसेन्स, वन्य जीवों की खाल, सींग, दाँत, बहुमूल्य जड़ी-बूटी, छाल, फूल, फल इत्यादि को ठेके पर देने की प्रथा थी जिससे राज्य की पर्याप्त आय होती थी। ग्रामीणों से वसूला जाने वाला जुर्माना भी आय का महत्पूर्ण स्त्रोत था।

सुदर्शनशाह ने वादी से शुल्क लेने की प्रथा आरम्भ की। यह शुल्क राजकोष में नगद जमा कराया जाता था। प्रतापशाह ने बढ़ती मुकदमों की संख्या को देखते हुए सुनवाई तिथि निश्चित करने एवं कोर्ट फीस के रूप में टिकट प्रथा आरम्भ की। यातायात विभाग द्वारा दुलान के कार्य से आय होती थी। कुली-उतार के लिए भ्रमण करने वाले व्यक्ति से राशि ली जाती थी जिसका एक अंश ग्रामीणों को देकर शेष ट्रांसपोर्ट विभाग की आय में सम्मिलित कर लिया जाता था। टिहरी नरेशों के राज्यकाल में दास-दासियों का विकय होता था और यह भी राज्य की आय का एक स्त्रोत था।

टिहरी नरेशों के द्वारा सड़क मार्गों के विस्तार के साथ-साथ व्यापारिक गतिविधियाँ भी तीव्र हुई। अतः ब्रिकी कर, आयात-निर्यात कर, चुंगी इत्यादि से होने वाली आय भी बढ़ती गई। कर वसूली के लिए चौकियों की स्थापना हुई। अतः धीरे-धीरे राज्य में समृद्धि आने लगी। यद्यपि उद्योग धन्धों की उन्नति एवं स्थापना की दिशा में विशेष ध्यान नहीं दिया गया। राज्य के लोगों की निर्भरता खेती एवं पशुपालन पर ही अधिक बनी रही।

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