सोमचंद का उत्तराधिकारी उसकी कत्यूरी रानी से उत्पन्न आत्मचंद

सोमचंद का उत्तराधिकारी उसकी कत्यूरी रानी से उत्पन्न आत्मचंद

आत्मचंद

सोमचंद का उत्तराधिकारी उसकी कत्यूरी रानी से उत्पन्न आत्मचंद था। उसके 20 वर्षों के शासन के बाद पूर्णचंद गद्दी पर बैठा। पूर्णचंद के पश्चात् गद्दी पर बैठने वाले इन्द्रचंद के बारे में एटकिन्सन महोदय ने लिखा है कि उसने रेशम उत्पादन एवं रेशमी वस्त्र बनाने का कार्य अपने राज्य में शुरू कराया था। इसके लिए उसने मैदानी क्षेत्र से पट्टवायों (रेशम बुनकरों) की श्रेणियों को बुलवाया। इस रेशम व्यापार के लिए चीन से दौत्य सम्बध स्थापित किए। रेशम व्यापार से चंद राज्य की श्रीलक्ष्मी में वृद्धि हुई।

क्राचल्लदेव' के 1223 ई0 के अभिलेख में 10 मांडलिक राजाओं की सूची में श्री विनयचंद, विद्यालयचंद के नाम 'चंद वंश की अधीनता का प्रमाण देते है। बास्ते ताम्रपत्र में मोहन थापा एवं अन्य माडलिक राजाओं का उल्लेख है जिनका अधिपति शक्तिबम था, जिसका मूल नेपाल था। उसने बूदों एवं सयानों की नियुक्ति की। ये अपने गांवों में शामिल व्यवस्था की स्थापना और लगान वसूली का कार्य करते थे। प्रतीत होता है कि मांडलिक राजा एक प्रकार के सांगत होते थे जो एक अधिपति के अधीन शासन करते थे। अधिकांशतः इन मांडलिक राजाओं का अधिपति डोटी के रैका राजा ही होते थे।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि बीनाचंद के पश्चात् 45-50 वर्षों के अन्तराल में ही 'चंद' वंश की तीन शाखाएँ काचल्लदेव के अधीन शासन करने लगी थी। सम्भवतः 'चंदो' की मुख्य शाखा चन्द्रदेव के नेतृत्व में आगे बढ़ी। 'देव' विरूद्ध का प्रयोग कत्यूरी परम्परा से लिया गया।
वीरचंद ने अशोकचल्ल की सहायता से बीनाचंद के समय हुए विद्रोह का दमन किया। 1206 ई० में उसकी मृत्यु के बाद क्रमशः नरचंद, थाहचंद और त्रिलोकचंद राजा बने। 1303 ई0 में त्रिलोकचंद की मृत्यु के बाद उमरचंद राजा बना जिसने लगभग 18 वर्ष तक शासन किया। इसके पश्चात् धर्मचंद, अभयचंद एवं कर्मचंद गद्दी पर बैठे। कर्मचंद ने एक वर्ष शासन किया। उसके पश्चात् वह मणकोटी के राजा के पास चला गया और ज्ञानचंद राजगद्दी पर बैठा।
ज्ञानचंद ने 1365 से 1420 ई0 तक शासन किया वह पहला चंद राजा था जो स्वयं दिल्ली फिरोजशाह तुगलक के दरबार में नजराना देने गया था। फिरोज ने प्रसन्न होकर उसे 'गरूड़' की उपाधि प्रदान की एवं साथ ही तराई-भाबर का क्षेत्र भी प्रदान किया। सेरा-खड़कोट ताम्रपत्र में उसके और विजयबम के संयुक्त भूमि संकल्प का उल्लेख है जिसमें उसे 'राजाधिराज महाराज' कहा गया है जबकि विजयबम के साथ कोई भी विरूद्ध नही लगाया गया है। विजयबम के मझेड़ा ताम्रपत्र में उसे 'श्री राजा विजय ब्रह्मा' उद्बोधित किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि सोर का विजेता ज्ञानचंद ही था। 1418 ई0 के गोबासा ताम्रपत्र में उसने कुजौली ग्राम को देवराज तिवाड़ी को वृत्ति रूप में दान दिया था।
ज्ञानचंद की मुत्यु के उपरांत क्रमशः हरिहरचंद, दानचंद, आत्मचंद एवं हरिचंद राजा हुए। इसके बाद विक्रमचंद शासक बना जिसके दो ताम्रपत्र- बालेश्वर मन्दिर ताम्रपत्र व चंपावत ताम्रपत्र से उसका राज्यकाल 1423-34 ई0 तक रहने का प्रमाण मिलता है।
विक्रमचंद के पश्चात् गद्दी पर बैठने वाले धर्मचंद का राज्यकाल अत्यल्प रहा। इसके बाद 1437 ई0 के आस-पास भारतीचंद राजा बना। इसके कई ताम्रपत्र मिले है। इसके पंवाड़े कुमाऊँ में बहुत प्रसिद्ध है। इनमें से कुमाऊँ की प्रसिद्ध वीरांगना से उसके दंद-युद्ध का भी पवाड़ों में बखान किया गया है।
भारतीचंद योग्य एवं कुशल शासक था एवं साथ ही जनता में लोकप्रिय था। उसने चंद वंश की ख्याति बढ़ाने के लिए एक विशाल सेना तैयार की। इसे लेकर उसने डोटी राज्य के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ किया। इस समय डोटी में मल्ल राजाओं का शासन था जिन्होंने सीरा क्षेत्र को विजित कर 'पर्वत डोटी का देश' नाम दिया एवं वृहत्तर डोटी साम्राज्य की स्थापना की। इस क्षेत्र का प्रशासन डोटी के राजकुमार को सौंपा जाता था। भारतीचंद का समाकालीन डोटी नरेश यक्षमल एवं सीरा का प्रशासक बलि नारायण संसार मल्ल था। इस क्षेत्र के अतिरिक्त सोर प्रदेश पर मल्ल वंश की ही एक अन्य शाखा 'बम' का शासक था। सीरा क्षेत्र से शक् सम्वत् 1275 (1353 ई०) एवं सौर क्षेत्र से शक् सम्वत् 1259 (1337 ई0) का सबसे प्रचीन मल्ल शासकों द्वारा निर्गत ताम्रपत्र मिला है।

भारतीचंद की उपलब्धियाँ

भारतीचंद जैसा साहसी एवं वीर शासक कभी भी डोटी साम्राज्य की अधीनता बर्दाश्त नहीं कर सकता। अतः उसने इससे मुक्ति पाने का निश्चय किया। उसने इस उद्देश्य से एक विशाल सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में सभी जाति के लोगो को भर्ती किया गया। तत्पश्चात् सोर की ओर बढ़कर उसने पिथौरागढ़ में पड़ाव लगा दिया। इसका साक्ष्य हमें देवसिंह मैदान के पास बंद पड़े 'कटूक नौला' के रूप में मिलता है। भारतीचंद ने दूसरा पड़ाव काली नदी के आस-पास बड़ालू से गंगोलीहाट तक जमाया। भारतीचंद का शिविर बालूचौड़ स्थान पर लगा था जो कि काली नदी तट पर अवस्थित है।

पदमदत्त पंत का मानना है कि भारतीचंद ने बड़ालू के निकट बर्तियाकोट में अपना निवास स्थल बनाया था। लगभग 12 वर्षों तक डोटी का घेरा डाले रखने के बाद ही भारतीचंद मल्ल राजा को परास्त करने में सफल रहा। डोटी की यह विजय 1451-52 ई0 के आस-पास ठहरती है क्योंकि 1452 ई0 में बड़ाल एवं इसके आस-पास के क्षेत्र में भारतीचंद का पुत्र पर्वतचंद का शासन चल रहा था। यद्यपि ज्ञानचंद के समय ही सारे क्षेत्र पर चंद आधिपत्य का उल्लेख मिलता है किन्तु पूर्ण आधिपत्य भारतीचंद के काल में ही हुआ क्योंकि डोटी आधिपत्य से चंदवंश को मुक्ति भारतीचंद के काल में ही मिली थी।

डोटी विजय के पाश्चात् भारतीचंद ने अपने पुत्र रतनचंद के सहयोग से सोर, सीरा, थल आदि क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। सोर से विजयबम का शासन समाप्त हुआ एवं सीरा के मल्ल प्रशासक कल्याण मल्ल भी भाग गए। तत्पश्चात् भारतीचंद ने डंगुरा बसेड़ा को सीरा में अपना सामंत नियुक्त किया। यद्यपि स्थापित ये बसेड़ा' सामंत अधिक दिन तक प्रशासन चला नहीं सके और मल्लों ने पुनः सीरा पर अपना अधिकार स्थापित कर कर लिया।

सीरा के मल्लों एवं चंद राजाओं के मध्य संघर्ष जारी रहा। राईमल्ल का उत्तराधिकारी शोभामल्ल ने इसका अन्त चंद वंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर किया। उसने अपनी पुत्री का विवाह बालो-कल्याणचंद से करा दिया। बालो कल्याण चंद के उत्तराधिकारी रूद्रचंद के समय पुनः इन सम्बन्धों में कटुता आई। बालो कल्याणचंद ने मणकोटी राज्य को भी चंद राज्य में मिला लिया और चंपावत से राजधानी अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दी गई। चंपावत के झिझाड सेलाखोला गावों के दीवान जोशियों को उनके गाँवों के नाम से ही अल्मोड़ा में बसाया। सभी राजकीय कर्मचारियों को भी अल्मोड़ा स्थानांतरित कर दिया गया। रुद्रचंद ने हरिमल्ल को परास्त का सीरा को अपने राज्य में मिला लिया। यह घटना 1590 ई0 के आस-पास की है। इस विजय के उपलक्ष में रूद्रचंद ने 'थल' में एक शिवमन्दिर बनवाया।

भारतीचंद के दो पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। खेतीखान ताम्रपत्र में सुजान कुंवर का उल्लेख है जबकि लोहाघाट एवं हुड़ती अभिलेखों में कुंवर रत्नचंद का नाम है। रत्नचंद ने अपने पिता के कार्यकाल में ही कई युद्धों में कीर्ति अर्जित कर ली थी। सोर, सीरा, थल, बजांग, आदि विजय में रत्नचंद ने ही अपने पिता को सहयोग किया।

रत्नचंद के बाद कीर्तिचंद राजा बना। इसके 11 वर्षों के शासनकाल के बाद क्रमशः प्रतापचंद, ताराचंद, मानिकचंद, कल्याणचंद, पूर्णचंद और भीष्मचंद सिंहासनरूढ हुए। कलापानी-गाड़-भेटा (पिथौरागढ जनपद) से प्राप्त ताम्रपत्र में उल्लिखित 'महाराजाधिराज श्री कल्याणचंद देव' भीष्मचंद का उत्तराधिकारी था। उसके बाद रूद्रचंद राजा बना। भेटा ताम्रपत्र में किसनचंद को महाराजकुमार कहा गया है। प्रतीत होता है कि किसनचंद की या तो युवराजकाल में ही अकाल मृत्यु हुई अथवा रूद्रचंद ने उसकी हत्याकर राजगद्दी प्राप्त की। 

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