इस कविता के माध्यम से पहाड़ों की याद को दर्शाते
नहीं भूलती वो यादें ,
वो पाथरो के घर ,
वो ऊँचे नीचे रास्ते ,
वो नौले का पानी ,
वो बाँज की बुझाणि ,
वो आमा बुबु के फसक ,
वो भट्ट के डुबुक ,
वो गाँव की बखाई ,
वो झोड़े , चांचरी
वो जागर की धुन ,
वो "भुला " का अपनापन ,
वो "दाज्यू " का प्यार ,
वो "बेणी " का दुलार ,
वो "बौजी " की झिड़क ,
वो " ईजा " की फिक्र ,
वो गोल्ज्यू का थान ,
वो "शिवालय " की शान ,
वो "बुराँश " के फूल ,
वो "काफल " का स्वाद ,
वो "हिसालू ", "किलमोड़े "
वो " पालक " का साग ,
वो रास्तो पर बेख़ौफ़ धिरकना ,
वो सब "अपने" है का एहसास ,
नहीं भूलती है वो यादें ,
कहीं भी रहे हम ,
पहाड़ों की बहुत आती है
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