कनखल एवं मायापुर से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण
Due to archaeological evidence obtained from Kankhal and Mayapur in Uttarakhand.
uttarakhand me kanakhal evam mayapur se prapt puratatvik sakshyon ke karan
हरिद्वार को 'गेरूए रंग की संस्कृति-सभ्यता का नगर कहा गया है। पुराणो में इस धार्मिक नगरी का 'गंगाद्वार' के नाम से उल्लेख है। यह नगर शिवालिक पर्वतमाला में बिल्व पर्वत और नील पर्वत के मध्य बसा है। यहीं पर सांख्य दर्शन के प्रवर्तक कपिल मुनि का आश्रम था। रामायण के नायक श्री राम ने रावण वध के पश्चात् ब्रह्महत्या के प्रक्षलन के लिए हरिद्वार आकर गंगा स्नान किया तदुपरांत देवप्रयाग में तपस्या कर इस पाप से उऋण हुए।
टिहरी गढ़वाल स्थित विसोन नामक पर्वत पर वशिष्टगुहा, वशिष्ट कुंड तथा वशिष्ठाश्रम है। ऐसी मान्यता है कि राम के वनवास पर जाने के बाद ऋषि वशिष्ठ ने अपनी पत्नी अरुंधती के साथ यहीं निवास किया था। देवप्रयाग की पट्टी सितोन्स्यू में सीताजी के पृथ्वी के गर्भ में समाने की मान्यता के कारण प्रतिवर्ष मनसार मेला लगता है। टिहरी जिले के तपोवन को लक्ष्मण की तपस्थली माना जाता है। रामायणकालीन वाणासूर की राजधानी ज्योतिषपुर (जोशीमठ) थी।
Due to archaeological evidence obtained from Kankhal and Mayapur in Uttarakhand. |
महाभारत के वनपर्वत में हरिद्वार से भृंगश्रृंग (केदारनाथ ) तक की यात्रा का वर्णन है। इसी पर्व में बद्रीकाश्रम की चर्चा भी है एवं साथ ही लोमश ऋषि के साथ पांडवों का इस क्षेत्र की यात्रा पर आने का वर्णन भी है। वनपर्व के अनुसार इस काल में इस क्षेत्र में पुलिंद (कुणिन्द) एवं किरात जातियों का अधिकार था। पुलिंद राजा सुबाहु ने पाण्डवों के पक्ष में महाभारत युद्ध में भाग लिया था। उसकी राजधानी वर्तमान श्रीनगर थी। इसके पश्चात् राजा विराट का उल्लेख मिलता है जिसकी राजधानी बैराठगढी के अवशेष जौनसार से अभी भी मिल जाते है।
महाकाव्य काल में उत्तराखण्ड क्षेत्र उत्तर कुरू के अधीन था। इस काल में इस क्षेत्र में खश, तगण, रामढ तथा जागुण आदि जातियों का उल्लेख मिलता है। आदिपर्व (महाभारत) के अनुसार अर्जुन का नागराज कौरव्य की पुत्री उलूपी से विवाह गंगाद्वार में हुआ था। कुणिदों का वर्णन महाभारत के सभापर्व, भीष्मपर्व व अरण्यपर्व में मिलता है। इस काल में इस क्षेत्र में कम से कम तीन राजनैतिक शक्तियों, खश, तगण एवं किम्मपुरूष के अस्तित्व का पता चलता है। हरिद्वार क्षेत्र में नागराज कोरव्य, सतलज से अलकनन्दा के मध्य कुणिन्द (राजा सुबाहु की राजधानी श्रीनगर अथवा सुबाहुपुर) और मन्दाकिनी के उत्तरी भाग में असुर बाण की सत्ता महाभारत के रचनाकाल के समय इस क्षेत्र में स्थापित थी।
इस युग में बद्रीकाश्रम व कण्वाश्रम नामक दो विद्या के प्रसिद्ध केन्द्र थे। कोटद्वार गढ़वाल स्थित कण्वाश्रम (मालिनी नदी तट पर ) शकुन्तला एवं दुष्यंत की प्रणयकथा के लिए विख्यात है। इसी आश्रम में उनके पुत्र चकवर्ती सम्राट भरत का जन्म हुआ था। सम्भवतः महाकवि कालिदास ने यही अपने ग्रन्थ अभिज्ञान शाकुन्तलम् की रचना की थी।
धार्मिक ग्रन्थों में कहीं-कहीं इस क्षेत्र को केदार खसमण्डले' भी कहा गया है। सम्भवतः केदारखण्ड को खसप्रदेश का पर्याय माना गया है। खसकाल में ही इस क्षेत्र में बौद्ध मत का का सबसे अधिक प्रचार हुआ। पालि भाषा में लिखे बौद्ध ग्रन्थों में उत्तराखण्ड के लिए 'हिमवतं' शब्द का प्रयोग किया गया है।
दूसरे खण्ड "मानस खण्ड" का प्रयोग उत्तराखण्ड के वर्तमान कुमाऊँ क्षेत्र के लिए प्रयोग हुआ है। पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन चपांवत नदी के पूर्व में स्थित काड़ादेव अथवा कातेश्वर पर्वत पर भगवान विष्णु के कच्छप (कूर्म) अवतार के जन्म के कारण इस क्षेत्र का नाम कूर्माचल पड़ा। आगे चलकर कूर्माचल का प्राकृत भाषा में "कुमू" और हिन्दी में कुमाऊँ नाम पड़ा। कुमाऊँ शब्द का सर्वाधिक उल्लेख स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में हुआ है। ब्रह्मपुराण एवं वायुपुराण के किरात, किन्नर, गंधर्व, यक्ष नाग, विद्याधर आदि जातियों का निवास इस क्षेत्र में बताया गया है। महाभारत से किरात, किन्नर, यक्ष, तंगव, कुलिंद तथा खस जातियों के निवास की पुष्टि करता है।
प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में नाग जाति के निवास की पुष्टि बेनीनाग, धौलनाग, कालीनाग, पिंलगनाग, बासुकीनाग, खरहरनाग आदि स्थलों से प्राप्त नाग देवता के मन्दिरों से होती है। इनमें सर्वप्रसिद्ध नाग मन्दिर बेनीनाग (पिथौरागढ़) में स्थित है। इस क्षेत्र में भी खसकाल में ही बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। किरातों के वंशज आज भी अस्कोट एवां डीडीहाट क्षेत्रों में निवास करते है। इन्होंने अपना स्वतंत्र भाषाई अस्तित्व बनाया हुआ। इनकी भाषा "मुंडा" है। कुमाऊँ क्षेत्र पर राजपूत नियत्रण से पूर्व तक खस जाति का आधिपत्य बना रहा।
तलिका-2
उत्तराखंड का इतिहास
History of Uttarakhand /Uttarakhand ka Itishas
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(1) महान हिमालयी क्षेत्र
(2) मध्य हिमालयी क्षेत्र,
(3) शिवालिक हिमालयी क्षेत्र
(4) गंगा का मैदानी क्षेत्र
Up coming work तालिका-2
ऐतिहासिक काल में उत्तराखण्ड
श्रीनगर के ध्वंसावशेष
गोविषाण के ध्वंसावशेष
कालसी ध्वंसावशेष
अन्य नगरों से प्राप्त ध्वंसावशेष
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उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंड
(1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक स्त्रोत
(1) साहित्यिक स्त्रोत
(1) मालूशाही
(2) रमौला गाथा
(3) हुड़की बोल गाथाएँ
(4) जागर
1 देवी-देवताओं के जागर
2 प्रेतबाधा के जागर
3 स्थानीय शासकों के जागर
(5) पावड़े अथवा भड़ौ
(6) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) पुरातात्विक साहित्य
1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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बाड़वाला एवं देवदुंग की ईष्टका-चितियां (Brick Altars)
प्राचीन उत्तराखण्ड
1) अमोधभूति के सिक्के- अटूड़ से प्राप्त उत्खनित् सामाग्री में अमोज्ञभूति की रजत मुद्राओं के साथ ही दो स्वर्ण श्लाकाएं भी प्राप्त हुई है।
2) अल्मोड़ा से प्राप्त 4 मुद्राएँ जो ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में रखी गई है। इसके अतिरिक्त कत्यूर घाटी से भी 54 मुद्राएँ प्राप्त हुई है।
3) कुणिन्द अराध्य छत्रेश्वर अथवा चत्रेश्वर के नाम पर निर्गत मुद्राएँ ।
कुषाणोत्तर काल में मध्य हिमालय के वंश
कत्यूरीयुग (7वीं शताब्दी ई0-15वीं शताब्दी ई० तक)-
1. बसंतदेव का राजवंश
2. खर्परदेव का वंश
3. राजनिबंर का राजवंश
4. सलोणादित्तय का राजवंश
5. पालवंश
6. काचलदेव का वंश
7. आसंतिदेव का वंश
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उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक स्त्रोत
(1) साहित्यिक स्त्रोत
(1) मालूशाही
(2) रमौला गाथा
(3) हुड़की बोल गाथाएँ
(4) जागर
1 देवी-देवताओं के जागर
2 प्रेतबाधा के जागर
3 स्थानीय शासकों के जागर
(5) पावड़े अथवा भड़ौ
(6) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) पुरातात्विक साहित्य
1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंड
(1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
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