गढ़वाल के लोक गीत एवं लोक नृत्य: विवाह गीत

 गढ़वाल के लोक गीत एवं लोक नृत्य: विवाह गीत

विवाह गीत

विदाई— विवाह सम्पन्न होने के बाद विदाई का दृश्य भी मांगल गीतों में अत्यंत करूण प्रधान हो जाता है। बेटी (वधू) के हृदय की करूण विदाई के मांगल में इस प्रकार व्यक्त होती है:।
 
काला डांडा पीछ बाबाजी, काली च कुयेड़ी,
बाबाजी एकुली, मीं लगदी च डैर,
कनकैक जौलू बाबाजी विराणा विदेस,
आग दिऊलू बेटी त्वै हाथी—घोड़ा,
त्वैं दगड़ी जाला लाडी तेरा दीदा—भुला,
त्वैं तई बेटी मी एकुली ना भेजूं,
तिन जाण बेटी चौडंडा पोर
त्वैं तई बेटी एकुली नी भेजूं।

—पिता के गले लगती हुई बेटी कहती है— 'काले पर्वत के पीछे काले—काले कुहरे के बाद छाये हुए हैं। पिताजी अकेले (ससुराल)जाते हुए मुझे डर लगता है। पिताजी, उस विदेश में जहां अपना भाई कोई नहीं है, मैं अकेले कैसे जाऊंगी? पिताजी बेटी को समझाते हैं कि बेटी, तुम्हारे साथ तुम्हारे बड़े और छोटे भाई जायेंगे। बारात में कई लोग अपने जा रहे हैं। तुम्हें अकेेले नहीं भेजूंगा। धैर्य रख बेटी। तुझे सामने के चार पहाड़ों से भी पार जाना है। जा बेटी, मैं तुझे अकेले नहीं भेजूंगा।'

नये जीवन की प्राप्ति के लिए जिस बेटी का सर्वस्व पीछे छूट गया हो, उसमें अपने पिछले जीवन के प्रति ममता का होना स्वाभाविक है। इसलिए मां—बाप के घर से सदा के लिए विदा होनेे वाली बेटी का हृदय में क्या कुछ नहीं होता। उसके हृदय में कुहरा छाया रहता है। परन्तु आगामी जीवन का आकर्षण उसे ऐसे दुख को सहन की सामथ्य प्रदान करता है।

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