गोरखाकाल में वसूल किए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण विवरण

गोरखाकाल में वसूल किए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण करों का विवरण इस प्रकार है


(1) पुंगाड़ी यह भूमिकर था और इससे लगभग लाख सालाना की आय होती थी। इस शब्द की उत्पति 'पंगड़ा' शब्द से हुई है जिसको स्थानीय भाषा में खेत के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

(2) सुवांगी दस्तूर - यह भी एक प्रकार का भू-कर था जो प्रत्येक वीसी भूमि पर एक रूपया वसूल किया जाता था।

(3) सलामी - यह एक प्रकार का भेंट अथवा नजराना था।

(4) तिमारी- इसके तहत फौजदार को 4 आना और सूबेदार को 2 आना देना होता था। यद्यपि काजी बहादुर भण्डारी के काल में 1811 ई० में इसकी दर नियमित कर दी गई थी, किन्तु इसका पालन कोई नहीं करता था।

(5) पगरी- सम्भवतः यह भूमि अथवा सम्पति के लेन-देन से सम्बन्धित कर था जिसे प्राप्तकर्ता को एकमुश्त जमा कराना होता था। यह गोरखों की आय का महत्वपूर्ण साधन था क्योंकि उनकी सनदो में इस कर का उल्लेख बहुत बार हुआ है। 
(6) मेजबानी दस्तूर यह ढाई आना की दर से वसूल किया जाता था। सम्भवतः यह मराठों के चौथ से मिलता जुलता कर रहा होगा जोकि स्थानीय जनता से उनकी सुरक्षा के एवज में लिया जाता रहा होगा।

(7) टीका-भेंट-शादी-विवाह एवं अन्य शुभ कार्यों के अवसर पर यह कर लिया जाता था। सम्भवतः यह स्वैच्छिक कर रहा होगा।

(8) मांगा - प्रत्येक नौजवान से एक रूपया यह कर वसूला जाता था। युद्धों के अवसर पर इसे तत्कालीन कर के रूप में एकत्रित किया जाता था।

(9) सोन्या-फागुन-गोरखे सावन, दशाई वा फाल्गुन के उत्सवों में भैसों एवं बकरों की बलि चढ़ाते थे और उनके माँस को खाते थे। अतः इन उत्सवों के खर्च के लिए स्थानीय जनता से सोन्या फागुन नामक कर लिया जाता था। यह कर भैंस एवं बकरी के रूप में लिया जाता था।

(10) टानकर तान से तात्पर्य 'कपड़े' से होता है। अतः टानकर मूलतः हिन्दू तथा भौटिया बुनकरों से लिया जाता था।

(11) मिझारी- जगरिया का कार्य करने वाले ब्राह्मणों एवं शिल्पकर्मियों से लिया जाने वाला कर मिझारी कहलाता था।

(12) बहता- छिपाई हुई सम्पति पर लगने वाला कर था।

(13) घी-कर- पशुपालकों से लिया जाने वाला एक प्रकार का कर था जो सम्भवतः घी के रूप में वसूल किया जाता था। इस कारण घी-कर कहलाता था।

उपरोक्त करों के अतिरिक्त चंदो के काल से आरोपित कई करों की वसूली भी गोरखों ने जारी रखी। इनमें घरही पिछही अथवा मौकर भी था जो कि प्रति परिवार दो रूपये की दर से लिया जाता था। राज कर्मचारियों से लगान की जानकारी लेने के लिए जान्या सुन्या कर देना पड़ता था। राजस्व कर्मचारियों के वेतन भुगतान के लिए विशेषतः खस-जंमीदारो से अधनी-दफ्तरी कर लिया जाता था। गोबर और पुछिया नामक कर भी थे। हेड़ी और मेवाती भावर क्षेत्र में 'दोनिया' नामक कर पशुचारकों से लिया जाता था। इनके अतिरिक्त बक्सीस (वक्ष्यात), ऊपरी रकम, कल्याण धन, केरू, घररू, खुना, अड़ि इत्यादि भी कर के रूप में एकत्रित किए जाते थे।

काश्तकारों से कर ठेका प्रथा के आधार पर एकत्रित किया जाता था। कर की दर सम्भवतः मनमाने ढंग से नियत की जाती थी क्योंकि गोरखा प्रशासन में राज्य अथवा क्षेत्र को फौजी अफसरों को सौंप दिया जाता था जो अपना वेतन इत्यादि भी वसूली से निकालते थे। इसका कोई हिसाब उन्हें नेपाली सरकार को नहीं देना होता था। सदैव प्रजा पर कर बकाया निकलता था जिन्हें पकड़कर दास-दासियों के रूप में बेच दिया जाता था।

इस प्रकार हम पाते है कि गोरखा काल में सम्पूर्ण गढ़वाल एवं कुमाऊँ पर अत्यधिक करों का बोझ था। जनता इन्हें चुका पाने में असमर्थ थी अतः गाँव के गाँव खाली होने लगे और बस्तियाँ जंगलो में तबदील होने लगी।

गोरखों का न्याय प्रशासन एवं दण्ड व्यवस्था

गोरखों की कोई नियत न्याय प्रणाली नहीं थी। प्रत्येक अफसर अपने पद के अनुसार जैसा उचित समझता था, फैसला कर देता था। दीवानी तथा फौजदारी के छोटे-छोटे मामले उस प्रान्त के सैन्य अधिकारी निपटाते थे। चूंकि अक्सर गोरखा अधिकारी युद्धों में व्यस्त रहते थे इसलिए न्याय एवं मुकदमों का कार्य अपने मातहत अधिकारी 'विचारी' को सौंप जाते थे। अभियोग की विधि भी सरल थी किन्तु निश्चित नहीं थी। अपराधों की सुनवाई प्रारम्भ करने से पूर्व वादी प्रतिवादी से 'हरिवंश' की प्रति उठवाई जाती थी। सरहदी मामलों में अग्नि-परीक्षा द्वारा निर्णय किया जाता था। जिन्हें सामान्य भाषा में 'दिव्य' कहा जाता था

 तीन प्रकार के 'दिव्य प्रचलन में थे।

1. गोलादीप
2. तराजुदीप
3. कढाई दीप 
'गोला दीप' एक प्रकार की अग्नि परीक्षा थी जिसमें वादी-प्रतिवादी को लोहे की गरमागरम छड़ को लेकर कुछ निश्चित दूरी तय करनी होती थी जो नियत दूरी को तय नहीं कर पाता था उसे दोषी समझ लिया जाता था

द्वितीय प्रकार का दिव्य 'तराजुदीप' था इसमें जिस व्यक्ति को अपराधी समझा जाता था उसे तराजु में पत्थरों से तौला जाता था। तौलने के लिए शाम का समय तय होता था। तौले गए पत्थरों को एक सुरक्षित स्थान पर रख दिया जाता था। अगली सुबह उस व्यक्ति को पुनः तौला जाता था। यदि वह पहले से हल्का होता था तो दोषमुक्त मान लिया जाता था किन्तु वजन अधिक आने पर उसे दोषी मान लिया जाता था।

तृतीय प्रकार का प्रचलित दिव्य 'कढाईदीप' कहलाता था। इसमें एक कढ़ाई में तेल को खौलाया जाता था। दोषी समझे गए व्यक्ति को इसमें अपना हाथ डालना होता था। यदि हाथ जलता नहीं था तो व्यक्ति निर्दोष समझा जाता था किन्तु हाथ जलने की स्थिति में दोषी माना जाता था।

उत्तराखण्ड की वर्तमान राजधानी देहरादून स्थिति श्री गुरू रामराय जी दरबार साहिब के तत्कालीन महन्त को भी एक हत्या के आरोप में कढाई दीप परीक्षा देनी पड़ी थी। चूँकि उनका इस परीक्षा में हाथ जल गया था। अतः उन्हें दोषी मानते हुए भारी जुर्माना भरना पड़ा था।
कुमाऊँ प्रान्त के द्वितीय ब्रिटिश कमिश्नर जी०डब्लू० ट्रेल महोदय ने भी कुछ अन्य प्रकार की दिव्य परीक्षाओं का उल्लेख किया है। उनके अनुसार निम्नलिखित 'दिव्य' भी प्रचलन में थे-

1. तीर का दीप
2. बौकाटि हारया का दीप
3. काली हल्दी का दीप
4. घात का दीप

'तीर का दीप' दिव्य में दोषी को पानी में डुबाया जाता था, जब तक कि कोई अन्य व्यक्ति धनुष से छोड़े तीर तक पहुँचकर वापस लौटकर नहीं आता था। गोरखों के समय में पानी से न्याय  करने का एक अन्य तरीका बौकाटि हाराया का दीप भी प्रचलित था। इसमें वादी प्रतिवादी दोनों पक्षों के ऐसे लड़कों को जो तैरना नहीं जानते थे, को तालाब अथवा कुंड में छोड़ दिया जाता था। इसमें जो अधिक समय तक जीवित रहता था निर्दोष मान लिया जाता था। 'काली हल्दी दीप' नामक दिव्य सम्भवतः जहर परीक्षा थी। इस काली हल्दी जड़ी को खाकर जो बच जाता था उसे दोषमुक्त मान लिया जाता था। 'घात का दीप' नामक दिव्य में विवादित वस्तु अथवा नगदी को न्याय के देवता के मन्दिर में रखा जाता था। जो स्वयं को निर्दोष बताता था वह इस वस्तु अथवा नगदी को मन्दिर से उठाकर ले जाता था। यदि छः महीने के

अन्दर उसके परिवार में कोई मृत्यु न हो तो उसे निर्दोष मान लिया जाता था। उत्तराखण्ड के ग्रामीण अंचल में 'घात का दीप' दिव्य के प्रचलन के वर्तमान में भी प्रमाण मिलते हैं। 'दिव्य' के रूप में किए जाने वाले फैसले को तत्काल लिखा जाता था और साथ ही सभी दर्शकों को दिखाया जाता था। असफल पक्ष पर अभियोग के अनुरूप नहीं बल्कि अभियोग पक्ष की हैसियत के अनुरूप जुर्माना होता था। कभी-कभी पर्चियों के माध्यम से भी फैसला किया जाता था। विरासत एवं व्यवस्था के मामलों का निपटारा पंचायत द्वारा किया जाता था।

गोरखा शासन काल में अनियत न्याय व्यवस्था के साथ ही दण्ड विधान भी अनिश्चित था। सामान्यतः राजकोष को ध्यान में रखकर ही दंड का निर्धारण किया जाता था। देशद्रोह के लिए मौत की सजा दी जाती थी। साधारणतः हत्या के लिए दोषी को पेड़ पर लटका दिया जाता था। यद्यपि ब्राह्मण को हत्या के दोषी पाए जाने पर देश से निकाल दिया जाता था। अन्य अपराधों के लिए दोषी ब्राह्मण की संपति जब्त करने के साथ ही जुर्माना किया जाता था। चोरी का आरोप सिद्ध होने पर ब्राह्मण की शिखा काट दी जाती थी। गोरखे अपने निजी ब्राह्मण उपाध्याय और मिश्र को बहुत ही पूजनीय मानते थे किन्तु उत्तराखण्ड के ब्राह्मणों को वे सामान्य जन की तरह ही मानते थे। चंद काल में पेड़ पर लटका कर अथवा सिर काटकर मृत्युदण्ड दिया जाता था। गोरखो ने इसके अतिरिक्त अंग-भंग करने का दण्ड विधान भी प्रचलित किया। अपराधियों को आतंकित करने के लिए हाथ अथवा नाक काटना एक आम दण्ड विधान था।

व्यभिचारी पुरूष को मृत्युदण्ड दिया जाता था एवं स्वैरिणी स्त्री की नाक काट दी जाती थी। आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिवार से जुर्माना वसूल किया जाता था। गाय को मारने, शूद्र के द्वारा जातीय नियमों के उल्लंघन एवं राजपूत और ब्राह्मण के द्वारा हुके को छूने पर भी मृत्युदण्ड का प्रावाधान था। जिन्हें कैद किए जाने का दण्ड मिलता था, वे राजा के नौकर (केनी) हो जाते थे। तराई के गढ़वाल क्षेत्र में बसने वाले अपराधियों को सजामाफी मिल जाती थी चाहे उनका दोष कुछ भी रहा हो। गोरखों की विचित्र प्रकार की राजाज्ञाओं के उल्लंघन पर अर्थदण्ड का विधान था। गढ़वाल क्षेत्र में गोरखों ने एक राजाज्ञा जारी की कि कोई औरत छत पर न चढे और देहात क्षेत्र में छत पर चढे बगैर काम नहीं चलता था क्योंकि स्त्रियाँ लकड़ी सुखाने, घास जमा करने, कपड़े सुखाने अथवा अनाज सुखाने को छत पर जाना ही होता था और सरकार इस पर जुर्माना वसूल लेती थी। यद्यपि ऐसा सम्भवतः गोरखों ने क्षेत्रवासियों द्वारा उन पर लगाए व्यभिचार के आरोप के कलंक से बचने के लिए किया था। ट्रेल महोदय ने भी गोरखों के दण्ड विधान का विस्तृत वर्णन दिया है।

इस प्रकार हम देखते है कि 'गोरख्याणी' में प्राणदण्ड एक साधारण सी बात थी जिससे कोई भी वर्ण अछूता नहीं था। छोटे-छोटे जुर्मों के लिए अर्थदण्ड वसूला जाता था एवं कुछ भारी अपराध के लिए अंग-भंग की सजा दी जाती थी। गोरखा न्याय व्यवस्था के कारण जनता में हर समय भय व्याप्त रहता था। फलतः क्षेत्र में अपराध कम होते थे।

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