टिहरी रियासत में राजनैतिक असंतोष
टिहरी एक स्वतंत्र रियासत सी बन गई थी किन्तु फिर भी राजा की स्थिति पूर्ण स्वतंत्र नहीं थी। टिहरी के एक स्थानीय निवासी का कथन राजा की विवशता का वर्णन इस प्रकार करता है कि-"नरेन्द्रशाह अपना तथा अपनी प्रजा का भला अच्छी प्रकार जानते थे। वे समझते थे कि राज्य के अन्दर राजा और प्रजा का समन्वय किस प्रकार होना चाहिए किन्तु ऐसा करने से अंग्रेज नाराज हो जाते। यही दुविधा उसके साथ हमेशा छाया की तरह रही, इस बात का लाभ राज्य अधिकारियों ने उठाया।" यही कारण था कि राज्य में निरन्तर विद्रोह होते रहे। स्थानीय भाषा में जनता के इस प्रतिरोध को ढंढक कहते हैं। ढंढकों की इस कड़ी में सबसे पहला प्रमाण सकलाना एवं रवांई क्षेत्र का मिलता है।
Political discontent in Tehri State |
गोरखा युद्ध की समाप्ति के पश्चात् अंग्रेजी सरकार ने सकलाना के शिवराम व काशीराम मुऑफीदारों को पुर्नस्थापित किया। अतः ये लोग स्वयं को राजा से बड़ा मानने लगे। फलतः राजा की आज्ञा के विरूद्ध इन्होंने सकलाना क्षेत्र में जनता का शोषण करना शुरू किया। धीरे-धीरे इनकी सामन्ती क्रूरता सीमा के बाहर हो गयी। अन्ततः सकलाना के कमीण, सयाणा एवं प्रजा ने संगठित होकर 1935 ई0 आन्दोलन कर दिया। राजा के हस्तक्षेप के बाद उचित भूकर लिया जाने लगा। यह टिहरी रियासत का प्रथम जन आन्दोलन था। इसके पश्चात् 1815 ई0 में सकलाना के मुऑफीदारों ने अदूर पट्टी की जनता से 'तिहाड़' नामक कर वसूलने का प्रयास किया तो सुनार गाँव के बद्रीसिंह असवाल के नेतृत्व में अदूरवासियों ने विद्रोह कर दिया। खूनी संघर्ष की स्थिति बन गई थी किन्तु राजा ने राज्य पुलिस दल भेजकर हस्तक्षेप किया और जनता की माँगे पूरी कर दी गई।
वर्ष 1824 ई0 में औपचारिक रूप से पॉवर नदी के पूर्व स्थिति रवाई क्षेत्र सुदर्शनशाह को मिला। उसने यहाँ व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। किन्तु पूर्व महराज के द्वारा इस क्षेत्र में नियुक्त फौजदार गोविन्द सिंह बिष्ट, जो गोरखा काल के एक स्वतन्त्र जागीदार थे, ने राजा की पूर्णतः उपेक्षा की। गोविन्द सिहं और उसके सहायक शिवदत्त ने स्वयं को स्वतंत्र जागीदार बनाने का प्रयत्न किया गया। इस हेतु उन्होंने खाल्टाओं और सकलानियों को राजा के विरुद्ध भड़काने का प्रयास किया। राजा ने उनके विरूद्ध कठोर कदम उठाये तो उन्होंने क्षेत्र में अव्यवस्था उत्पन्न कर दी। सकलाना तथा रवांई के मुऑफीदारों-जागीदारों पर राजा को नियन्त्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका 4 जलाई 1835 के कम्पनी के निर्णय को जाता है जिसके अनुसार राजा को राज्य में सर्वोपरि मानते हुए कहा गया कि यदि राजा से जागीर प्राप्तकर्ता मुऑफीदार राजा की अवज्ञा करे तो राजा को उनकी सेवाएँ समाप्त करने तथा उन्हें प्रदत्त जागीर वापस लेने का पूर्ण अधिकार है।
राजा भवानीशाह के अल्प शासनकाल में भी रवाई की प्रजा ने विद्रोह किया। यह भी राज्य पदाधिकारियों की असावधानी से हुआ। भवानीशाह ने स्वयं पहुँचकर इसका दमन किया एवं 1861 में रामजे ने अदूर के किसानों के लिए बारह आना बीसी की भूव्यवस्था करवाने से प्रजा शान्त हो गई।
राजा प्रतापशाह ने अपने राज्य में निरन्तर सुधार कार्य किए किन्तु अपने राज्य कर्मचारियों की धृष्टता के कारण उसे जन आन्दोलनों का सामना करना पड़ा। वास्तव में इनके शासनकाल के द्वितीय भाग में दरबारी गुटबन्दी के कारण विद्रोहों को हवा दी गई।
इसके साथ ही वर्ष 1876, 1880 एवं 1886 ई0 के सुधार तो राज्य के इन स्वार्थी राज्य पदाधिकारियों, मुखियों पर तुषारापात की तरह पड़े। इसने विद्रोह की अग्नि को और भी तीव्र किया। इन स्वार्थी पदाधिकारियों ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए भोली-भाली जनता को उकसाया एवं विद्रोह करवा दिया। इस कड़ी में 1882 ई0 में लछमू कठैत के नेतृत्व में "बासर ढंढक' तथा 1886 ई0 में टिहरी के आस-पास स्थिति ग्रामीणों ने विप्लव किया। सुधारों के विरोधी राज्य पदाधिकारी जनता का शोषण भी करते थे और उन्हें विप्लव के लिए भी भड़काते थे। लछमू कठैत को भी इन्हीं लोगों ने जहरीली शराब देकर मरवा दिया था। इन सभी घटनाओं से शासक के सुधारवादी होते हुए भी प्रशासन पर ढीली पकड़ सिद्ध होती है।
महाराज कीर्तिशाह के काल में पुनः सकलाना क्षेत्र में विद्रोह हुआ। इस क्षेत्र की प्रजा अपने मुऑफीदार के जुल्मों से त्रस्त थी। साथ ही 'बरा-बेगार' की कुप्रथा से प्रजा पर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे थे। इसके विरूद्ध स्थानीय व्यक्ति रूपसिंह ने आवाज बुलन्द की। अन्ततः राजा और कुमाऊँ कमिश्नर के हस्तक्षेप के बाद ही मुऑफीदारों के दण्डाधिकार समाप्त किए गए। इसके साथ ही 1903-04 में कंजरवेटर केश्वानन्द रतुड़ी द्वारा दैण' और पुच्छी' नामक कर लगाने पर विप्लव हुआ जो राजा के हस्तक्षेप के बाद ही शान्त हुआ। खासपट्टी एवं उसके पश्चात् चन्द्रबदनी क्षेत्र में भी वननीति के विरूद्ध जनता का प्रतिरोध हुआ। राजा को इन्हें दबाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा।
राजा नरेन्द्रशाह ने राज्य को आधुनिक बनाने का हर सम्भव प्रयास किया। जन कल्याण की दिशा में महत्वपूर्ण उपाय किए। किन्तु अपने राज्य पदाधिकारियों की मनमानी के कारण एवं ब्रिटिश भारत में बढ़ रही जन जागृति एवं जन आन्दोलनों की हवा ने इनके शासनकाल में जन आन्दोलनों की लम्बी श्रृंखला प्रारम्भ कर दी। इस काल की दो महत्पूर्ण घटनाएँ इस प्रकार है-
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