त्रिमलचंद की मृत्यु के पश्चात् बाज बहादुर चंदबाज बहादुर चंद
सन् 1638 ई0 में त्रिमलचंद की मृत्यु के पश्चात् बाज बहादुर चंद गद्दी पर बैठा। उसे गद्दी पर बैठते ही आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा क्योंकि चौरासी माल क्षेत्र जिससे चंदो की प्रतिवर्ष 9 लाख की आमदनी होती थी उस पर कटेहर राजपूतों ने अधिकार कर लिया था। अतः सर्वप्रथम वह दिल्ली दरबार गया। चूंकि कटेहर राजपूत मुगल आश्रित थे तो शाहजहाँ ने चंद राजा को कटेहर का प्रांत देना मंजूर किया। साथ ही बाज बहादुर को गढ़वाल के अभियान में मुगलों को साथ देने के लिए 'बहादुर' और 'जंमीदार' की उपाधि भी दी। इस मामले में मुरादाबाद के सूबेदार रूस्तम खां ने चंद राजा की सहायता की। माल का तराई क्षेत्र भी रूस्तम खां के दबाव में प्राप्त हुआ। इसके पश्चात् ही बाज बहादुर यहाँ सुव्यवस्था कायम कर पाया। उसने इस क्षेत्र में 'बाजपुर' नामक नगर की स्थापना भी की।
बाजबहादुर ने मानिला गढ़ पर आक्रमण किया एवं वहाँ के कत्यूरी-कुवंरों को गढ़वाल की और भागने को मजबूर किया। इन कत्यूरी-कुवंरों ने गढ़वाल के पूर्वी भाग पर लूटपाट मचानी शुरू की। इस क्षेत्र के थोकदार गोला रावत भूपसिंह ने अपने दो पुत्रों के साथ इन उत्पातियों का प्रतिरोध किया। इन पिता-पुत्रों की मृत्यु के बाद तीलू रौतेली नामक वीरांगना ने इनका सफल प्रतिरोध किया। सम्भवतः इसी ने चंदो का कोट (चौदकोट) और अल्मोड़ा का पश्चिमी भाग हमेशा के लिए गढ़राज्य का अंग बनाया। इस वीरांगना की हत्या शत्रु पक्ष ने धोखे से की जब वह पूर्वी नयार नदी में स्नान कर रही थी।
बाज बहादुर चंद ने कैलाश मान सरोवर जाने वाली तीर्थ यात्रियों के लिए 1673 ई में गूंठ भूमि दी थी। साथ ही इन यात्रियों के भोजन, वस्त्र रहने की व्यवस्था के लिए 5 ग्रामों की मालगुजारी भी निर्धारित कर दी। उसने शौकों द्वारा तिब्बत को दिए जाने वाले दस्तूर को रोक लिया। यद्यपि कालान्तर में तिब्बतियों के अनुरोध पर इस रोक को हटा लिया था। सोर स्थित उर्ग गांव के बदले बाज बहादुर ने रतन जोशी को तल्ला रंयाशी में एक जयूला जमीन दी। ताम्रपत्र में सदानंद को 'लोटोल राठ' कहा गया है। सम्भवतः इनके पूर्वज मूलतः लटोला ग्राम में रहते थे इसलिए इन्हें लटोला जोशी कहा जाता था।
सम्भवतः बाजबहादुर चंद का समकालीन डोटी शासक देवपाल था। बाजबहादुर शोर में देवपाल से मिला था। तत्पश्चात् वह ब्रह्मदेव मंडी की ओर चल पड़ा जहाँ चितोना के राजा ने काली घाट के ऊपर एक किला बनाकर स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर रखा था। बाजबहादुर ने किले पर अधिकार किया एवं चितोना के राजा को पेड़ पर लटका कर मार डाला। इसके पश्चात् उसने व्यास घाटी का रूख कर वहाँ के दरों पर अधिकार किया और भोटियों व डुनियों को सिरती नामक कर चुकाने को बाध्य किया। 'सिरती' नगद लिया जाने वाला कर था। अपने निजी उपयोग के लिए बाजबहादुर ने फंटाग, कस्तूरीनामा तथा नमक कर लगाए।
बाजबहादुर चंद योग्य सेनापति एवं प्रशासक था। उसने अपने दरबार को मुगल दरबार की तरह भव्य बनाने का प्रयास किया। उसने नए क्षेत्रों की विजय की एवं वहाँ एकल व्यवस्था चलाई। अपने प्रशासन में दक्षता लाने के लिए नए पद सृजित किए, यथा-पनेरू, फुलेरिया, हरबोला, मढवाला इत्यादि ।
बाजबहादुर चंद एक धर्मपरायण शासक था। उसने कई मन्दिरों का निर्माण भी करवाया था। थल (पिथौरागढ़ जनपद) से प्राप्त एक 'हथिया देवाल' का निर्माण उसी ने करवाया था। यह देवाल एक ही प्रस्तर खंड को काट-काट कर बनाया गया है। इसलिए एक हथियार देवाल कहलाता है साथ ही इसकी बनावट एलौरा (महाराष्ट्र) के कैलाश मन्दिर से मिलती-जुलती है।
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