कत्यूरीराजाओं के पश्चात् उत्तराखण्ड का क्षेत्र चंद राजा

चंदयुगीन व्यवस्था
कत्यूरीराजाओं के पश्चात् उत्तराखण्ड का क्षेत्र चंद राजा


कत्यूरीराजाओं के पश्चात् उत्तराखण्ड का क्षेत्र चंद राजाओं द्वारा दीर्घकाल तक शासित रहा। कुमाऊँ के इतिहास में चंद काल एक सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है। वस्तुतः इस काल में सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति हुई। इस काल में विकसित हुई परंपराओं को हम आज भी इस क्षेत्र के ग्रामीण अचंल में जीवित पाते है। अग्रलिखित पंक्तियों में हम इस काल की विभिन्न व्यवस्थाओं का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

शासन व्यवस्था

चंदवंश ने एक लम्बे समय तक कुमाऊँ पर शासन किया। अतः निश्चित ही उन्होंने एक प्रशासनिक व्यवस्था कायम की होगी। चूंकि चंद वंश के हाथ में सत्ता कत्यूरी वंश से हस्तगत हुई तो मूलतः उनके प्रशासन पर कत्यूरियों का प्रभाव अवश्य आया होगा। इसके अतिरिक्त इस वंश का सम्पर्क मुगल दरबार से निरंतर रहा इसलिए प्रशासनिक श्रेणियों के नाम हुबहू या कुछ रूपान्तरण के साथ मुगल प्रशासनिक व्यवस्था से भी लिए गए हैं। इसके अतिरिक्त डोटी (नेपाल) राज्य से भी इनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में रहा तो उनकी प्रशासनिक शब्दावली भी चंद प्रशासन में समाहित मिलती है।

चंद नरेशों ने अपने युग में प्रचलित लगभग सभी उपाधियाँ धारण की। प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में रजबार, सामंत, सार्वभोम राजा अथवा अधिपति राजा सभी एक से विरूद्ध धारण करते थे। कत्यूरीकाल में राजकुमारों के विरूद्ध 'रजबार' के स्थान पर चंद राजकुमारों के नामों के साथ 'महाराज कुमार' कुवँर, गुसांई विरूद्धों का प्रयोग मिलता है। इस वंश के राजाओं ने 'श्रीराजधिराज', 'राजाधिराज महाराजा' जैसी उपाधियाँ ग्रहण की।

इस वंश के शासकों ने अधिकांश शासनादेश नेपाली मिश्रित कुमाऊनी भाषा में जारी किए। इससे प्रतीत होता है कि यह इस क्षेत्र की प्रचलित जनभाषा रही होगी। चंदो के ताम्रपत्रों पर 'कृष्ण' शब्द के बाद 'सही' और कटार की मूठ का चित्र उत्कीर्ण रहता था। सम्भवतः 'कटार की मूंठ' चंद वंश का राजकीय चिन्ह रहा होगा। जिसे वह ताम्रपत्रों की वैधता के लिए लगाते थे। इस ताम्रपत्र के लेखक 'जोईसी' होते थे। इन उत्कीर्णकों को 'सुदार' अथवा 'सुनार' कहा गया है। भारतीचंद के खेतीखान ताम्रपत्र में लेखक को 'विप्र पुरोहित' जबकि एक अन्य में 'जैतूसाहू' कहा गया है जबकि ज्ञानचंद के गोबसा ताम्रपत्र में उत्कीर्णक के लिए 'लिखित इंद पधाकरेण' संज्ञा का प्रयोग हुआ है।

राजा

राजा सम्पूर्ण प्रशासन की धुरी था। वह प्रधान न्यायधीश भी था। राज्य की सम्पूर्ण भूमि उसके अधीन थी। गूंठ, संकल्प या रौत के रूप में भूमि-दान राजा अथवा युवराज ही दे सकता था। चंद राजाओं द्वारा ग्रहण 'देव' विरुद्ध से प्रतीत होता है कि वे राजा को पृथ्वी पर देव-प्रतिनिधि मानते थे। सामान्यकाल में राजा का कार्य राजदरबार में बैठकर प्रजा कार्य सम्बन्धी निर्णय लेना था। इन कार्यों में वह सभासदों की मदद लेता था। युद्ध के अवसर पर चंद राजा स्वयं सेना का नेतृत्व करते थे।

युवराज

राजा को राजकार्यों में सहायता के उद्देश्य से युवराज पद का विधान था सामान्यतः जिस पर ज्येष्ठपुत्र को नियुक्त किया जाता था। युवराज के नाम के साथ 'कुवंर' अथवा 'गुसांई' जैसे विरूद्ध का प्रयोग होता था। राजा के वृद्ध एवं निशक्त होने की स्थिति में युवराज का दायित्व बढ़ जाता था। राजा द्वारा प्रदत्त भूमिदान (रौत) का वह प्रथम गवाह माना जाता था। कभी-कभी युवराज भी भूमिदान देता था यथा पर्वतचंद, रतनचंद एवं त्रिमलचंद इसके उदाहरण हैं जिन्होंने अपने युवराज काल में भूमिदान दिया। राजा के बाद युवराज ही सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था। लक्ष्मीचंद के काल में कुंवर त्रिमलचंद ने ही गढ़राज्य विजय की थी। चंद प्रशासन में एक नई व्यवस्था मिलती है कि युवराज को राजकार्य में सहायता देने के लिए 'युवराज-मंत्री' होते थे। साधारणतः ये सभी ब्राह्मण होते थे और चंद दरबार के षड्यंत्र विभाजन एवं अशान्ति के जन्मदाता भी होते थे।

मंत्री/मंत्रिपरिषद्

राजा की सहायता के लिए चंद काल में परामर्शदाताओं का एक समूह होता था जिसमें अधिकांश समय महारा व फर्त्याल जाति के लोगों का प्रभुत्व रहा। यद्यपि राजा इनकी सलाह को मानने को बाध्य नहीं था। महारा व फर्त्यालों ने इस वंश के प्रशासन में दो मुख्य स्तम्भों का कार्य किया। इनके अतिरिक्त गुरू, पुरोहित, वैध, लेखक, ताम्रकटक, उत्कीर्णक आदि को दरबार में स्थान मिलता था। दरबार में महारा अथवा फर्त्यालों के गुट में से जिस काल में जिसका बहुमत होता था उसी गुट के लोगों की महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति होती थी। इनके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण व अब्राह्मण (ढेक, टम्बा, नाई इत्यादि) भी परामर्शदाता होते थे। दीवान का पद प्रायः जोशीयों को ही दिया जाता था। दीपचंद के सैण-मानु पट्टाभिलेख में शिवदेव को 'बगसी'कहा गया है। 'दीवान' का पद सभी परामर्शदाताओं में श्रेष्ठ अथवा प्रधान था। दीवान और बक्शी का पद सामान्यतः वंशानुगत होता था। दीवान के अलावा छोटे-छोटे मंत्री अथवा सचिव होते थे जिनकी अधिकतम संख्या लगभग 10 होती थी। इन्हें वेतन के एवज में भूमि दी जाती थी। पुरोहित, गुरू (ज्योतिष), बक्सी, भंडारी, प्रहरी, सेज्याली, चौधरी, सुदार, बिष्ट आदि सचिव अथवा छोटे मंत्री प्रशासन के भिन्न-भिन्न दायित्वों का निर्वहन करते थे। सम्भवतः ताम्रपत्र तैयार करने वाले टम्टा (तमोटा) और राजा की जमीन जोतने वाले हलवाले भी इसी श्रेणी में आते थे।

प्रान्तीय प्रशासन

चंदकाल में प्रशासनिक दृष्टि से राज्य का विभाजन मंडल, देव, परगने अथवा गखें तथा ग्रामों में किया गया था। मंडल दो प्रकार के होते थे। प्रथम प्रकार के मंडल सामंतो द्वारा एवं द्वितीय प्रकार के राजा के द्वारा शासित होते थे। इस वंश के राजाओं ने जिस भी क्षेत्र को जीता वहीं के परास्त शासक को अधीनस्थ सांगत नियुक्त किया। उदाहरणार्थ भारतीचंद ने सोर के बमों को परास्त कर उन्हें ही अधीनस्थ सामंत नियुक्त किया। सम्भवतः सांगतो को 'राजा' एवं 'रजबार' की उपाधि लेने की स्वतंत्रता प्राप्त थी। सामंत राजा को वार्षिक कर प्रदान करते थे एवं युद्धकाल में स्वयं अपनी टुकड़ी के साथ राजा की सेना का हिस्सा बनते थे। कुछ क्षेत्रों में इन्हें 'ठक्कर' या 'ठाकुर' भी पुकारा जाता था।

मंडलो का विभाजन 'देश' में होता था जैसे तल्ला देश, मल्लादेश, खरकदेश, मालदेश, पर्वत डोटि देश इत्यादि। मंडल से निम्न इकाई परगना अथवा गर्ख होते थे। परगने दो प्रकार के होते थे। प्रथम नागरिक अधिकारी के अधीन एवं दूसरे प्रकार के सैनिक अधिकारी के अधीन होते थे। नागरिक अधिकारी को 'सीरदार' अथवा 'सिकदार' कहते थे। बरम ताम्रपत्र में 'बगसी का परगना' उल्लेख आया है। इसके अतिरिक्त काली कुमाऊँ, ध्यनौरौ, सोर, सीरा, फल्दाकोट, धनियाकोट, कोटली, कोटाभावर, कत्यूर इत्यादि परगने थे। जबकि मालदेश (तराई) में बगसी, छीनवी, किलपुरी, माल, बुक्साड़ आदि परगने थे। उद्योतचंद के काल में जगन्नाथ बरें माल का सीकदार और गंगाराम सीरा का सीरदार था। मुगलों के समान चंदो ने बक्शी की नियुक्ति भी परगनों में की थी।

प्रत्येक परगने में एक खंजाची, ताम्र उत्कीर्णक व ताम्रपत्र लेखक तथा धार्मिक सीकदार होता था। राजस्व एकत्रिकरण नगद एवं जीन्स रूप में सीकदार द्वारा की जाती थी। एकत्रित राजस्व को रखने के लिए 'भण्डार' एवं भंडारी नामक पदाधिकारी नियुक्त होता था। 'कैनी' नामक खसियों का कार्य अनाज को भण्डार से राजा के पास पहुँचाना होता था। इनके खर्चे प्रधान के द्वारा बकरा, घी, चावल, आटा इत्यादि के रूप में प्रदान कर उठाया जाता था।

परगनों का विभाजन गर्यों में होता था। काली कुमाऊँ, भावर क्षेत्र में इन्हें 'पट्टी' कहते थे। बरम् ताम्रपत्र में डोटी देश के अधीन 'कसान के गखें' का उल्लेख हुआ है। सम्भवतः गर्खे देश से छाटी इकाई थी एवं इसके प्रशासक 'नेगी' कहलाते थे। सोर का 'नेगी' शिरोमणि जोशी था। इससे यह भी विदित्त होता है कि 'नेगी' एक पदनाम था न कि जाति विशेष का नाम एवं 'नेगी' को अपने दायित्व निर्वहन के एवज में 'नेग' मिलता था।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई 'ग्राम' होती थी। ग्राम के प्रशासन को 'सयाना' अथवा 'बूढा' कहते थे। सयाना / बूढा अपने क्षेत्र में न्यायधीश का कार्य भी करते थे जिस स्थल पर इनकी पंचायत होती थी उसे 'बूढाचौरा' कहते थे। कल्याणचंद के सैणमानुर पट्टाभिलेख से लछी गुंसाई मनराल के 16 गांवो के सयाना होने का उल्लेख है। सयाना को अनाज के रूप में दस्तूर मिलता था। यह प्रधानों के माध्यम से मालगुजारी वसूल करता था। प्रधान के अधीन 'कोटाल' और 'प्रहरी' होते थे। कोटाल का कार्य लगान का लेखाजोखा एवं प्रहरी का कार्य चौकीदारी होता था। सामान्यतः उपज का छठवाँ भाग (गल्ला छहड़ा) भूराजस्व की दर निर्धारित होती थी। प्रहरी ही 'डाकिया' का कार्य भी करता था।

न्याय प्रशासन

प्राचीन भारतीय राजतंत्र की परंपरा के अनुरूप ही चंद काल में भी राजा ही सर्वोच्च न्यायधीश होता था। वह देशद्रोही, राजविरोधी  अथवा उपद्रवियों को फांसी की सजा सुना सकता था। फांसी सम्भवतः ऊँचे पहाड़ो पर दी जाती थी जिसके लिए 'शूली का डांडा' शब्द प्रयुक्त मिलता है। निम्न स्तर पर 'न्यौवली', बिष्टाली नामक कचहरियां होती थी। 'पंच नवीसी' नामक न्यायालय भी होते थे जिन्हें 'चारथान' भी कहा जाता था। दंड देने वाले अधिकारी को 'डडै' कहते थे। इस शब्द की व्युत्पत्ति 'डाण' शब्द से हुई है। विजय चंद के पाभै ताम्रपत्र में कर्ण बिष्ट को 'डडै' कहा गया है। सीराकोट उस काल का कुख्यात कारगार था।

गुप्तचर व्यवस्था

चंद वंश को निरंतर गढ़राज्य, डोटीराज एवं मैदान की ओर से आक्रमण का भय रहता था। इसके अतिरिक्त आंतरिक अशांति के कारण चंदो ने गुप्तचर प्रणाली की स्थापना की थी। बाह्य आक्रमण के अवसर पर गुप्तचर सेना के साथ चलते थे। बरम् ताम्रपत्र से बधानगढ़ आक्रमण के अवसर पर वीरेश्वर जोशी वैद्य कुड़िया द्वारा गुप्तचरी का उल्लेख हुआ है। साधारणतः वेश्याओं, परिवाजकों एवं वैधों के माध्यम से गुप्तचरी करवाई जाती थी। फिक्वाल (भिखमंगो) के द्वारा भी गुप्तचरी का कार्य लिया जाता था। रनिवास में इस कार्य के लिए महिलाओं, दासियों की नियुक्ति की जाती थी।

भूमि एवं राजस्व व्यवस्था

प्राचीन अर्थशास्त्री कौटिल्य का कथन था कि सब कुछ 'अर्थ' के चारों ओर घूमता है। यह कथन हर युग के लिए सत्य है। अतः कोष किसी भी गतिविधि को संचालित करने का महत्वपूर्ण अंग है। यही कारण है कि राजा महाराजा कोष को हमेशा भरपूर रखने का प्रयास किया करते थे। ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में कोष वृद्धि का मुख्य स्त्रोत भूराजस्व ही रहा है। चंद राजाओं के काल में इसके अतिरिक्त जंगल, खान, जल, विजित क्षेत्रों से लूट का माल भी कोष वृद्धि का साधन रहे। चंद काल में भिन्न-भिन्न प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं- 

भूराजस्व

चंदकाल में भूमि का स्वामित्व राजा में निहित था। राजा की इच्छापर्यंत ही जनता उससे आजीविका कमा सकती थी। राजा द्वारा रौत, गूढ, विष्णुप्रीति में जिसे भूमि प्रदान करता था, वह 'थातवान' कहलाता था। दो प्रकार के कृषकों के होने का पता चलता है। प्रथम 'खायकर' जो अनाज व नगदी दोनों रूपों में कर देता था जबकि 'सिरतान' कर का भुगतान नगद करता था। सिरतान को थातवान कभी भी हटा सकता था। पहाड़ी क्षेत्रों में एक प्रकार के भूदास "कैनी' होते थे। सामान्यतः राजा द्वारा बहादुरी प्रदर्शित करने वाले व्यक्ति को ईनाम के रूप में भूमि दी जाती थी जिसे 'रौत' कहा जाता था। रौत में प्राप्त जमीन पर पहले से खेती करने वाले लोग थातवान के कैनी बन जाते थे। इन कैनियों से थातवान अलग-अलग प्रकार के कार्य लेता था। राजकोष में जमा करने वाला अनाज इन कैनियों के द्वारा ही पहुँचाया जाता था। कैनी खेत पर काम करने वाले दास थे जबकि घर का कार्य करने वाले दास-दासियों को छयौडा एवं छयोडी कहा जाता था। भू-राजस्व साधारणतया उपज का छठवाँ भाग होता था। जिसे 'गल्ला छहाड़' कहते थे। यह नगद व अनाज दोनों के रूप में लिया जाता था।

बरम् ताम्रपत्र से 6 बीसा भूमि से 30 पैसे कर के रुप में लिए जाने का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः बीस नाली के लिए 'बीसा' का प्रयोग हुआ है। भूमि की माप नाली, ज्यूला, विशा, अधालि, पालो, मसा आदि में की जाती थी। बीस नाली भूमि आधुनिक एक एकड़ के बराबर होती थी। मसा नाली से छोटी इकाई थी जबकि एक ज्यूला लगभग दस कुंतल के बराबर होता था। अधाली से तात्पर्य 15 किलोग्राम से था।

चंदकाल में 36 प्रकार के राजकर लगाए गये थे जिन्हें छत्तीसी' कहा जाता था। इनमें से ज्यूलिया / सांगा नदी के पुलो पर लगने वाला, सिरती एक प्रकार का नगद कर जो माल-भावर क्षेत्र एवं भोटिया व्यापारियों पर लगता था। मूनाकोट ताम्रपत्र में शौका व्यापारियों से स्वर्ण धूलि के रूप में लिए जाने वाले कनक नामक कर का भी उल्लेख है। राखिया /रछया नामक कर रक्षाबंधन तथा जनेऊ संस्कार के समय वसूला जाता था। बैकर अनाज रूप में वसूला जाता था। युद्ध के अवसर पर 'मांगा' नामक अतिरिक्त कर लिया जाता था। लेखक को दिए जाने वाला कर साउलि/साहू कहलाता था। मूनाकोट ताम्रपत्र में इसी प्रकार के अन्य कर रंतगली का उल्लेख हुआ है। यह भी लेखक को दिया जाता था। कुली बेगार के रूप में खेनी-कपीलनी एवं स्यूक के रूप में राज सेवकों से कर लिया जाता था। किसानों से वसूल कर सयानों को देय कर कमीनचारी-समानचारी कहलाता था।

नेगी नामक पदाधिकारी को 'सीकदार नेगी' नामक कर दिया जाता था जिसे पूरे गांव से लिया जाता था। मूनाकोट ताम्रपत्र में इसको दो रूपया निर्धारित किए जाने का उल्लेख है। गर्खा-नेगी नामक कर गर्खाधिकारी को देय होता था। डाला नामक कर गांव के सयाने को दस्तूर रूप में प्रदत्त होता था। कामगारों पर मिझारी नामक कर लगता था। बुनकरों पर लगाए जाने वाले कर को तान/टांड कहते थे। इसी प्रकार घी पर घी-कर और प्रत्येक मवासे से मौ-कर लिया जाता था। शादी ब्याह एवं उत्सवों के अवसर पर भात-कर लगाया जाता था। भाबर क्षेत्र में गाय चराई नामक कर भी लिया जाता था एवं प्रत्येक भैंस पर चार आना वार्षिक भैंस कर लगता था।

राजा एवं राजकुमारों को भेंट दी जाती थी जबकि सेना के रखरखाव के लिए कटक नामक कर लगता था। न्याय के लिए न्यौंवली कर लगता था। बलि अथवा भोजन के रूप में राजपरिवार के देवी-देवताओं के पूजन के लिए रोल्या देवल्या नामक कर लगता था। इसके अतिरिक्त घराटों पर 'भाग' जंगलों के उपयोग पर 'जंगलात कर खनन करने वालों पर एवं व्यापारियों पर अलग से कर लगाया जाता था। जागर लगाने वाले ब्राह्मणों से जगरिया कर लिया जाता था।

उपरोक्त वर्णित करों के अतिरिक्त चंदकाल के कुछ अन्य कर भी हैं जिनका उल्लेख केवल ताम्रपत्रों में ही है। इनमें से एक पहरी / पौरी नामक कर ग्राम चौकीदार को देय होता था। मूनाकोट ताम्रपत्र में उल्लिखित बखरिया नाम का कर राजा के सईस को देय होता था। राजा के घोड़ों के लिए घोड़यालो एवं कुत्तों के लिए कुकुरयालो नामक कर का उल्लेख है। चोपदार नाम का कर सम्भवतः राजा की निजी वस्तुओं के ढुलान के एवज में लिया जाता था। महाजनों पर बाजदार नामक कर एवं नर्तक-नर्तकियों और नगाड़े-दुंदभी बजाने वालों को दिए जाने वाले बजनिया नाम के कर का उल्लेख भी ताम्रपत्रों में मिलता है।

इसके अतिरिक्त महर, ओड़, नेलिया एवं तपनीय नामक करों का वर्णन भी मिलता है। इस प्रकार हम चंद वंश की वृहद राजस्व प्रणाली से अनुमान लगा सकते है कि जनता पर करों का अत्यधिक बोझ रहा होगा। 

टिप्पणियाँ

उत्तराखंड के नायक और सांस्कृतिक धरोहर

उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानी और उनका योगदान

उत्तराखंड के उन स्वतंत्रता सेनानियों की सूची और उनके योगदान, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई।

पहाड़ी कविता और शब्दकोश

उत्तराखंड की पारंपरिक पहाड़ी कविताएँ और शब्दों का संकलन, जो इस क्षेत्र की भाषा और संस्कृति को दर्शाते हैं।

गढ़वाल राइफल्स: एक गौरवशाली इतिहास

गढ़वाल राइफल्स के गौरवशाली इतिहास, योगदान और उत्तराखंड के वीर सैनिकों के बारे में जानकारी।

कुमाऊं रेजिमेंट: एक गौरवशाली इतिहास

कुमाऊँ रेजिमेंट भारतीय सेना की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित पैदल सेना रेजिमेंटों में से एक है। इस रेजिमेंट की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुई थी

लोकप्रिय पोस्ट

केदारनाथ स्टेटस हिंदी में 2 लाइन(kedarnath status in hindi 2 line) something

जी रया जागी रया लिखित में , | हरेला पर्व की शुभकामनायें (Ji Raya Jagi Raya in writing, | Happy Harela Festival )

हिमाचल प्रदेश की वादियां शायरी 2 Line( Himachal Pradesh Ki Vadiyan Shayari )

हिमाचल प्रदेश पर शायरी स्टेटस कोट्स इन हिंदी(Shayari Status Quotes on Himachal Pradesh in Hindi)

महाकाल महादेव शिव शायरी दो लाइन स्टेटस इन हिंदी (Mahadev Status | Mahakal Status)

हिमाचल प्रदेश पर शायरी (Shayari on Himachal Pradesh )

गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरूप (History and nature of Garhwali folk literature)