शैलराज हिमालय की गोद में गोमती सरयू नदी के संगम पर स्थित बागेश्वर का बागनाथ मंदिर धर्म के साथ पुरातात्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। नगर को मार्केंडेय ऋषि की तपोभूमि के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव के बाघ रूप में यहां निवास करने से इसे व्याघ्रेश्वर नाम से जाना गया। जो बाद में बागेश्वर हो गया। बहुत पहले भगवान शिव के इसी रूप का प्रतीक एक देवालय यहां पर स्थापित था। जहां पर बाद में भव्य मंदिर बना। जो बागनाथ के नाम से जाना जाता है।
नगर शैली के वर्तमान बागनाथ मंदिर को चंद्र वंशी राजा लक्ष्मी चंद ने सन 1602 में बनाया था। बाद में इसके अहाते में आकाश लिंग युक्ता लघु देवकुलियाएं बनाई गई। मंदिर के नजदीक बाणेश्वर मंदिर वास्तु कला की दृष्टि से बागनाथ मंदिर के समकालीन लगता है। मंदिर के समीप ही भैरवनाथ का मंदिर बना है। बाबा काल भैरव मंदिर में द्वारपाल रूप में निवास करते हैं।
बागनाथ मंदिर में सातवीं से सोलहवीं सदी ईसवी तक की अनेक महत्वपूर्ण प्रतिमाएं हैं। इनमें उमा-महेश्वर, पार्वती, महिषासुर मर्दिनी, एक मुख एवं चतुमुर्खी शिव लिंग, त्रिमुखी शिव, गणेश, बिष्णु, सूर्य तथा सप्त मातृका और दशावतार पट आदि की प्रतिमांए हैं। जो इस बात की प्रमाणिकता सिद्ध करती हैं कि सातवीं सदी से कत्यूर काल में इस स्थान पर अत्यंत भव्य मंदिर रहा होगा। यहां पर मकर संक्रांति तथा शिवरात्रि पर भव्य मेला लगता है।
शिव पुराण के मानस खंड के अनुसार इस नगर को शिव के गण चंडीश ने शिवजी की इच्छा के अनुसार बसाया था। चंडीश द्वारा बसाए गया नगर शिव को भा गया और उन्होंने नगर को उत्तर की काशी का नाम दिया। पहले मंदिर बहुत छोटा था। बाद में चंद वंशीय राजा लक्ष्मी चंद्र ने 1602 में मंदिर को भव्य रूप दिया। पुराण के अनुसार अनादिकाल में मुनि वशिष्ठ अपने कठोर तपबल से ब्रह्मा के कमंडल से निकली मां सरयू को ला रहे थे। यहां ब्रह्मकपाली के समीप ऋषि मार्कण्डेय तपस्या में लीन थे।
वशिष्ट जी को उनकी तपस्या को भंग होने का खतरा सताने लगा। देखते देखते वहां जल भराव होने लगा। सरयू आगे नहीं बढ़ सकी। उन्होंने शिवजी की आराधना की। शिवजी ने बाघ का रूप रख कर पार्वती को गाय बना दिया और ब्रह्मकपाली के समीप गाय पर झपटने का प्रयास किया। गाय के रंभाने से मार्कण्डेय मुनि की आंखें खुल गई। व्याघ्र को गाय को मुक्त करने के लिए जैसे ही दौड़े तो व्याघ्र ने शिव और गाय ने पार्वती का रूप धरकर मार्कण्डेय को दर्शन देकर इच्छित वर दिया और मुनि वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया।
इसके बाद सरयू आगे बढ़ सकी। बागनाथ मंदिर में मुख्य रूप से बेलपत्री से पूजा होती है। कुमकुम, चंदन, बछड़े और बताशे चढ़ाने की भी परंपरा है। खीर और खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। बागनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी रावल जाति के लोग होते हैं, जबकि अनुष्ठान कराने वाले पुरोहित चौरासी के पांडे होते थे, बाद में उन्होंने यह काम छोड़ दिया और अपने रिश्तेदार चौरासी के जोशी लोगों को यह काम सौंप दिया।
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