उत्तराखण्ड - कृषि, फसल, द्विवर्षीय फसल चक्र, दूसरी सार,बन्द सार, जन्मजात कृषि, नियोजन उत्तराखण्ड - कृषि

उत्तराखण्ड - कृषि, फसल, द्विवर्षीय फसल चक्र, दूसरी सार,बन्द सार, जन्मजात कृषि, नियोजन
उत्तराखण्ड - कृषि


 
उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल के 12 प्रतिशत भाग में ही खेती होती है। गहरी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत बनाने पड़ते हैं और इस खेती की कुछ सीमाएँ हैं। सिंचाई की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य है। किसान इस बात की सावधानी रखते हैं कि निचले स्तर की सिंचाई के लिए सिंचाई का पानी ऊपर सतह पर रहे। परिणामस्वरूप, कृषि योग्य भूमि का लगभग 87 प्रतिशत एक बार से अधिक सींच लिया जाता है। खाद्यान्न, अनाज, दलहन (फलियाँ), तिलहन और सब्ज़ियाँ आम फ़सलें हैं। अनाज में चावल सबसे प्रिय फ़सल है, जिसके बाद गेहूँ का स्थान आता है। विभिन्न क़िस्म का मोटा अनाज शुष्क अनुवाती ढलानों पर उगाया जाता है। राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित तराई के इलाक़े में, जहाँ की हल्की ढलानों पर ट्रैक्टर का उपयोग किया जा सकता है, गन्ना बहुतायत में उगाया जाता है। पुष्पवती नदी उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है, जो अपनी आजीविका के लिये परम्परागत रूप से कृषि पर निर्भर है। आज़ादी के बाद जब उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून में ग्राम पंचायतों को उनकी सीमा की बंजर, परती, चरागाह, नदी, पोखर, तालाब आदि श्रेणी की ज़मीनों के प्रबन्ध व वितरण का अधिकार दिया गया तो पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इस अधिकार से वंचित करने के लिये सन् 1960 में ‘कुमाऊँ उत्तराखण्ड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून ’ (कूजा एक्ट) ले आया गया। यही कारण है कि जहाँ पूरे भारत में ग्राम पंचायतों के अन्दर भूमि प्रबन्ध कमेटी का प्रावधान है, पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इससे वंचित रखा गया है। इसके बाद सन् 1976 में लाये गये वृक्ष संरक्षण क़ानून ने पहाड़ के किसानों को अपने खेत में उगाये गये वृक्ष के दोहन से रोक दिया, जबकि पहाड़ का किसान वृक्षों का व्यावसायिक उपयोग कर अपनी आजीविका चला सकता था।

फसल

 
उत्तराखण्ड के 55.66 लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल में 34.66 हेक्टेअर वन क्षेत्र है। बंजर भूमि पर्वतीय क्षेत्र में 4.63 लाख हेक्टेअर है और 35,338 हेक्टेअर मैदानी क्षेत्र में है। यहाँ खरीफ़ की फसल में 7,22,755 हेक्टेअर में बुआई हो रही है और रबी की फसल में 4,61,820 हेक्टेअर में हो रही है। स्पष्ट है कि रबी की फसल में 2,60,935 हेक्टेअर भूमि परती छोड़ी गयी। पर्वतीय और मैदानी दोनों क्षेत्रों में सिंचित भूमि में दोनों फसलें उगाई जाती हैं, लेकिन पर्वतीय अंचलों में असिंचित क्षेत्र में एक बार परती छोड़ी जाती है। इसको समझने के लिये ‘सार’ शब्द परिभाषित करते हैं। गाँव के क्षेत्र में जो एक फसल बो दी जाती है वो ‘सार’ कही जाती है। जैसे ‘मंडुवे की सार’ अथवा ‘धान की सार’। इनको अगेती और पछेती सार के रूप में जाना जाता है। पर्वतीय अंचल में दो वर्षीय फसल चक्र इस प्रकार प्रभावी है कि एक सार का द्विवार्षिक फसल चक्र दिया जा रहा है। यह फसल चक्र वर्तमान वैज्ञानिक फसल चक्र के सभी सिद्धान्तों की आपूर्ति करता है।
द्विवर्षीय फसल चक्र
 
खरीफ़ प्रथम रबी प्रथम धान, मादिरा मिर्च, गेहूँ, जौ कौनी, आलू (अगेतीसार) मसूर, तिल खरीफ द्वितीय रबी द्वितीय मडुआ, भट्ट,गहत, परती उड़द, चौलाई (पछेती सार) यही फसल चक्र दूसरी सार में द्वितीय खरीफ से आरम्भ किया जाता है। जब इस प्रकार की परम्परागत खेती आरम्भ हुई, तब की परिस्थितियाँ इसके अनुकूल रहीं। भूमि पर्याप्त थी और जनसंख्या कम थी। इस प्रचलन से कार्य विभाजन भी होता है। भूमि उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है। पहाड़ी क्षेत्र में बरसात में खेत की दीवारें टूटती हैं और परती भूमि में जाड़ों में इन खेतों की मरम्मत की जाती है। परती भूमि में लोच पैदा होती है, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही जाड़ों की वर्षा से खेत में नमी रहती है और फाल्गुन के महीने में खेतों की जुताई की जाती है। खेत में नमी बनी रहती है। चैत के महीने में इन खेतों में धान, कौड़ी, भंगिरा, मिर्च, तिल आदि बो दिये जाते हैं और गर्मी में इन खेतों में कृषि कार्य गुड़ाई, दनेला आदि किये जाते हैं।
दूसरी सार
 
दूसरी सार में गेहूँ आदि की फसल काटने के बाद जुताई करने के बाद मडुवे का बीज बिखेर दिया जाता है, जो वैशाख - जेठ के अंधड़ (मौसम पूर्व) वर्षा से जम जाता है। इसकी गुड़ाई-निराई के साथ दालें बो दी जाती हैं। इस परती भूमि में जाड़ों भर गाँव के पशुओं को खुली छूट होती है, जिससे उद्यानीकरण, वनीकरण, औषधीय पौध उत्पादन में बाधा उत्पन्न हो रही है, क्योंकि प्रत्येक वर्ष में एक बार परती छोड़ी जाती है। भौगोलिक स्थिति, जलवायु, बुवाई आदि के अनुसार सारों का नामकरण किया जाता है- अगेतीसार, पछेती सार, तैली सार, स्येदी सार, मल्ली सार, तल्ली सार, उपराऊँ सार, तला सार आदि।
बन्द सार
 
जब एक सार की फसल कटती है तो उसमें पशुओं को छोड़ दिया जाता है, जिसे मुखस्यार (मुक्त सार) घोषित किया जाता है। यह प्रथा सिंचित, असिंचित, तलाऊँ, उपराऊँ, अगेती, पछेती सभी सारों में लागू है, जिससे प्रगतिशील किसानों को इस समस्या से जूझना पड़ता है और वे हतोत्साहित होकर रह जाते हैं। परती सार के आंशिक प्रयोग में भी यही बाधा है। इस समस्या का एकमात्र हल वर्तमान में यही सुझाया जा सकता है कि ‘बन्द सार’ का एक नया प्रयोग किया जाये, जिसमें गाँव वाले तय करें कि गाँव की भूमि का एक हिस्सा पशुओं की खुली छूट से प्रतिबन्धित किया जाय। इससे क्षेत्र में उद्यानीकरण, वनीकरण, चारा पौधरोपण, सब्जी उत्पादन, औषधि रोपण, कृषि उत्पादन के नये प्रयोग किये जा सकेंगे। कुछ प्रधानों ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत भी किये है।
जन्मजात कृषि
 
पर्वतीय अंचल की कृषि अभी तक वैज्ञानिक खेती से कोसों दूर है। जैविक खेती तो यहाँ की जन्मजात कृषि है। इसे भी समझने की आवश्यकता है। जिस असिंचित खेती का उल्लेख किया गया है, उसके लिये उन्नत बीज, वैज्ञानिक विधि, उन्नत यंत्र, कीट नियंत्रण आदि पर कृषि वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। समाचार सुनकर ताज्जुब होता है कि परती भूमि का भूमि परीक्षण किया जायेगा, उसके अनुसार कार्यवाही होगी। असिंचित क्षेत्र की सारी भूमि दो साल में एक बार परती रहती है। भूमि का आबंटन समान रूप से नहीं है। इसलिये यह अभी संभव नहीं है। जंगली जानवर सुअर (बराह), सौल (स्याही) के डर से खरीफ की फसल भी परती का रूप लेने लगी है। कृषक यह सोचने को मजबूर है कि फसल उगाने से घास उगाना अधिक लाभकारी है। नई पीढ़ी इससे त्रस्त है।
नियोजन
 
उत्तराखण्ड के पर्वतीय भूभाग के सभी खेतों के लिये एक ही प्रकार का नियोजन सम्भव नहीं है। प्रत्येक घाटी, पर्वतीय ढाल की भूमि की उर्वरा शक्ति में भिन्नता है। यहाँ तक कि एक ही गाँव के खेतों में तक समानता नहीं है। चारा पौधरोपण, फलोत्पादन, वनीकरण, औषधीय पौधरोपण, सब्जी उत्पादन, फूलों की खेती, खाद्यान्न उत्पादन में कौन सा कार्य किस क्षेत्र के लिये अधिक उपयोगी हो सकता है। गाँव के अच्छे खेत अनाज उत्पादन के लिये नियत थे। गाँव के ऊपरी हिस्से के भूमि भवन गोशाला निर्माण के लिये नियत थे।
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