लोक गायक जीत सिंह नेगी

लोक गायक जीत सिंह नेगी जीवन वृत्त

जीवन वृत्त

नाम : जीत सिंह नेगी
जन्म तिथि : 2-2-1925
निधन : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या 21 जून 2020
माता-पिता : रूपदेई देवी-सुल्तान सिंह नेगी
जन्म स्थान : ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : एक पुत्र, दो पुत्रियां
शिक्षा : इंटरमीडिएट
प्राथमिक शिक्षा : कंडारा, पौड़ी गढ़वाल
मिडिल : मेमियो, म्यांमार
मैट्रिक : गवर्नमेंट कालेज पौड़ी गढ़वाल
इंटरमीडिएट : डीएवी कालेज देहरादून
निवास : 108/12, धर्मपुर देहरादून

रचनाएं (गढ़वाली में)
प्रकाशित
गीत गंगा : गीत संग्रह
जौंल मगरी  : गीत संग्रह
छम घुंघुरू बाजला : गीत संग्रह
मलेथा की कूल : ऐतिहासिक गीत नाटक
भारी भूल : सामाजिक नाटक

अप्रकाशित

जीतू बगड्वाल : ऐतिहासिक गीत नाटिका
राजू पोस्टमैन : एकांकी
रामी : गीत नाटिका
पतिव्रता रामी : हिंदी नाटक
राजू पोस्टमैन : एकांकी हिंदी रूपांतर

कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूल 'भारी भूल, 'जीतू बगड्वाल उनके प्रसिद्ध नाटक
लोक गायक जीत सिंह नेगी
उत्तराखंडी लोक के आद्यकवि एवं प्रख्यात लोक गायक जीत सिंह नेगी को समर्पित। उनके गीत हमेशा उत्तराखंडी लोक को थिरकाते रहेंगे।

जिनके गीतों पर झूमते हैं खेल-खलिहान
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उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे। कंठ से सुर फूटे तो डांडी-कांठी झूम उठीं। कदमों की आहट पर पर खेत-खलिहान थिरकने लगे। वह आगे बढ़ते गए और माटी की महक से लोक खिलखिला उठा। कवि, गीतकार, गायक, संगीकार, रंगकर्मी, नृत्य निर्देशक, नाट्य निर्देशक, संवाद लेखक जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पडऩे लगीं। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व है गढ़वाली के आद्यकवि जीत सिंह नेगी का।

हम आपको उस दौर में लिए चलते हैं, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। लेकिन, तब यह सेाधन भी पैसे वालों के पास ही हुआ करते थे। रेडियो रखना समृद्धि का सूचक था तो ग्रामोफोन विलासिता का। वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ हुआ। तब वह जीत सिंह नेगी ही थे, जिन्हें रेडियो पर प्रथम बैच का 'गीत गायक होने का श्रेय मिला। तिबारियां लोक के सुरों में थिरकने लगीं और झूम उठे खेत-खलिहान। लोक को उसका मसीहा जो मिल गया था।

नेगी जी के कंठ से फूटे हृदयस्पर्शी स्वर 'तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस मा जब घसेरियों के कानों में पड़े तो उनकी आंखें छलछला उठीं। लोकगीतों के इतिहास में यह ऐसी कालजयी रचना है, जिसने लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं। हर उत्तराखंडी के हृदय में गीत के रूप में 'जीत धड़कने लगा।

लोक के समंदर में हलचल पैदा करने वाला यह अकेला गीत नहीं था। इससे बहुत पहले वर्ष 1949 में नेगीजी 'यंग इंडिया ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग करा चुके थे। उस जमाने में ग्रामोफोन की शोभा बने ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए। बाद के वर्षों में तो नेगीजी उत्तराखंड की आवाज बन गए। उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता है।

अभावों से अभिशप्त प्रवासी पहाड़ी के विकल करुण जीवन के संयोग-वियोग के सैकड़ों गीत नेगी जी ने लिखे। इनमें निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजना होती है। गीतों के अलावा नेगीजी ने कई कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूल 'भारी भूल, 'जीतू बगड्वाल उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका देश के कई शहरों में मंचन हो चुका है। आखिरी समय तक उनकी बूढ़ी आंखें सपना देखती रहीं, एक समृद्ध संस्कृति का, एक खुशहाल उत्तराखंड का। हालांकि, वृद्धावस्था में कदम डगमगाने लगे थे, लेकिन, कभी संकल्प नहीं डिगा, कलम नहीं थमी।
नेगी जैसा कोई नहीं था

गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्यकलापों में लोकगायक जीत सिंह नेगी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव विद्यानिवास मिश्र ही नहीं, आकाशवाणी दिल्ली के तत्कालीन चीफ प्रोड्यूसर (म्यूजिक) ठाकुर जयदेव सिंह ने भी मान्यता दी थी। यही नहीं, उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया था।

कब तक सिसकती रहेगी दुधबोली

साथ पूर्व मुझे प्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी के साक्षात्कार का मौका मिला था। संभवत: यह नेगीजी का अंतिम साक्षात्कार था। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ लोक का जिक्र होते ही नेगीजी कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही। यह कहते-कहते 'सुर सम्राट जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।
अब मेरी उत्कंठा बढऩे लगी थी, पर कुछ बोला नहीं। बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इन दस सालों में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। न ठोस संस्कृति नीति बनी, न फिल्म नीति ही।

नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था। लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।
नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण होने वाला। उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता, भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है।
बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे बाहर तक छोडऩे के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।

मंचित नाटक

  • भारी भूल : वर्ष 1952 में गढ़वाल भातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में प्रथम बार इस गढ़वाली नाटक का सफल मंचन हुआ। मुंबई के प्रवासी गढ़वालियों का यह पहला बड़ा नाटक था। 1954-55 में हिमालय कला संगम दिल्ली के मंच से इस नाटक का सफल निर्देशन व मंचन।
  • मलेथा की गूल : मंचन प्रथम बार 1970 देहरादून में। फिर 1983 में पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में देहरादून में पांच प्रदर्शन। चंडीगढ़, दिल्ली, टिहरी, मसूरी एवं मुंबई में 18 बार मंचन।
  • जीतू बगड्वाल : पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में 1984 में देहरादून में मंचन। 1986 में देहरादून में ही नाटिका के आठ प्रदर्शन। 1987 में चंडीगढ़ में पुन: चार प्रदर्शन।
  • रामी : 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर नरेंद्र नगर में सफल मंचन। इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, मसूरी, मेरठ, सहारनपुर आदि नगरों में मंचन।
  • राजू पोस्टमैन : गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में टैगोर थियेटर में इस ङ्क्षहदी-गढ़वाली मिश्रित एकांकी का मंचन। मुरादाबाद, देहरादून समेत अन्य शहरों में सात बार मंचन।

आकाशवाणी से प्रसारित

  • 'जीतू बगड्वाल व 'मलेथा की कूल नाटिका का आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण। 1954 से अब तक आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ व नजीबाबाद से पांच-छह सौ बार गढ़वाली गीतों का प्रसारण
  • 'रामी गीत नाटिका का दिल्ली दूरदर्शन से पहली बार हिंदी रूपांतरण
  • गढ़वाली लोकगीतों व नृत्यों का 1950 से लेकर अब विभिन्न नगरों में प्रदर्शन

उपलब्धियां

  1. गढ़वाली लोकगीतों की विभिन्न लुप्त, अद्र्धलुप्त धुनों के संवद्र्धक, रचियता एवं स्वर सम्राट। अन्य पहाड़ी प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों के समावेश से उत्तराखंड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया। उमड़ते-घुमड़ते बादलों, रिमझिम फुहारों, झरनों, गाड-गदेरों की कलकल, फूलों की मुस्कान, पंछियों का कलरव आदि प्रकृति के विभिन्न रूप बिंबवत उनके गीतों में सन्निहित हैं। यथा-'मेरा मैता का देश ना बास घुघूती, ना बास घुघूती घूर-घूर। नेगी जी के मुख से निकलने वाले गढ़वाली लोकगीतों के प्रत्येक शब्द में बसे मधुर सुरों को सुनकर मनुष्य ही क्या पशु-पक्षी भी अपना गंतव्य भूल जाते हैं।
  2. प्रथम गढ़वाली लोक गीतकार, जिन्होंने गढ़वाली लोकगीतों की सर्वप्रथम 'हिज मास्टर व्हाइस एंड ऐंजिल न्यू रिकार्डिंग कंपनी में छह गीतों की रिकार्डिंग की।
  3. गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरो अभिव्यक्त किया।
  4. भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
  5. गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोडऩे के लिए मार्गदर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।

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