सरला बहन-मूल नाम मिस कैथरिन हैलीमन : स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, (जन्म 5 अप्रैल, 1901 इंग्लैण्ड), मृत्यु-1982।
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं सरला बहन
Famous Women of Uttarakhand Sarla Behn
अल्मोड़ा में सरला बहन का मुकदमा और डिप्टी कलक्टर का बयान
गोविन्द राम काला का परिचय यूं दिया जा सकता है कि वे उत्तराखंड के उन चुने हुए लोगों में से थे जिन्होंने 1911 में ही इन्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर ली थी. उस ज़माने में इतनी शैक्षिक योग्यता बहुत हुआ करती थी. इसके बाद वे ब्रिटिश सरकार के अनेक विभागों में रहे और 1945 में अंततः डिप्टी कलक्टर के पद से रिटायर हुए. एक ईमानदार और कर्मठ कर्मचारी के रूप में उनकी साख थी और वे अँगरेज़ अफसरों के साथ-साथ स्थानीय जनता के बीच भी बहुत लोकप्रिय थे. उनका एक परिचय यूं भी दिया जा सकता है कि वे मशहूर जीवनीकार-पत्रकार दुर्गाचरण काला के पिता थे. दुर्गाचरण काला ने ‘कॉर्बेट ऑफ़ कुमाऊँ’ और ‘हुलसन साहिब’ (फ्रेडरिक विल्सन की जीवनी) जैसी मशहूर किताबें लिखी थीं.
अपने नौकरी के दिनों को बेहतरीन स्मृतियों के रूप में गोविन्द राम काला ने ‘मेमोयर्स ऑफ़ द राज’ नाम की किताब में सूत्रबद्ध किया है. यह शानदार किताब उस समय के सामाजिक जीवन, भारत के स्वतंत्रता संग्राम और अंग्रेजों की कार्यशैली का बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है.
काफल ट्री के पाठकों के लिए इस पुस्तक के चुने हुए अंश प्रस्तुत किये जाएंगे. आज जिस हिस्से को हम पेश करने जा रहे हैं उसमें कौसानी में रहने वाली गांधीवादी सरला बहन के मुक़दमे का ज़िक्र है. मालूम हो कि सरला बहन एक अँगरेज़ महिला थीं जिनका असली नाम कैथरीन मैरी हीलमैन था. उत्तराखंड के कौसानी में जीवन का लंबा समय काट चुकी सरला बहन बाद में चिपको आन्दोलन के शुरुआती प्रेरणास्रोतों में से एक थीं. वाकया 1944 का है जब गोविन्द राम काला अल्मोड़ा के डिप्टी कलक्टर हुआ करते थे.
सरला बहन का मुकदमा:
महात्मा गांधी की अंग्रेज शिष्या सरला बहन का मुकदमा अल्मोड़ा में मेरे द्वारा सुने गए मुकदमों में सबसे दुखी कर देने वाला था. ग्रामीण महिलाओं के उत्त्थान के लिए वे कभी अल्मोड़ा में रहती थीं कभी कौसानी में. वे गाँव की महिलाओं के साथ रहती थीं और उन्हें बच्चे पालने के तरीके और बेहतर गृहिणी बनने के बारे में बताया करती थीं. कभी कभी वे इन औरतों के बाल काढ़ने से लेकर उनके जूं निकालने तक के कार्य किया करती थी. ग्रामीण महिलाएं उन्हें बहुत प्रेम करती थीं.
अंग्रेज सरकार के खिलाफ नफ़रत और असंतोष फैलाने के जुर्म में सरला बहन को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया था. एसडीम ने केस मुझे ट्रांसफर किया हुआ था. उनकी पैरवी श्री देबीदत्त पन्त ने की जो एक सक्षम वकील और कट्टर राष्ट्रवादी थे. देबीदत्त पन्त बाद में संसद सदस्य भी बने और दिल्ली में एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई. पंडित देबीदत्त ने बहुत अच्छे से केस लड़ा. उन दिनों अभियोग पक्ष के गवाह आम तौर पर पुलिस वाले हुआ करते थे क्योंकि अधिकाँश लोग राजनीतिक मामलों में अभियुक्तों के खिलाफ गवाही देने से बचते थे. उनके मुक़दमे ने मेरी चेतना को बहुत परेशान किया और समूचे मुकदमे के दौरान मैं अपना सर ऊपर न उठा सका. सरला बहन अपना मुल्क छोड़कर भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने के उद्देश्य से यहाँ आई थीं. उन्होंने सम्पन्नता को त्याग कर गरीबी और परेशानी का जीवन चुना था. ये विचार बार-बार मुक़दमे के दौरान मेरे मन में आते रहे और उन्होंने मेरी तटस्थता को बहुत बाधित किया. जिस एक और बात ने मुझे परेशान किया वह ये थी कि उन्हें कई-कई घंटों तक डॉक में खड़ा रहना पड़ता था. उन्हें एक महीने के साधारण कारावास की सजा दी गयी. उन्होंने सिर्फ एक ही बात कही कि उन्हें दो साल की सजा की उम्मीद थी.
डिप्टी कमिश्नर मिस्टर डोनाल्डसन ने मुझसे कहा कि मैंने उनके द्वारा किये गए अपराध को देखते हुए बहुत ही आसान और कम सजा दी है. मैंने उन्हें समझाया कि सरला बहन की कुलीनता और उनके अपराध के तकनीकी आयामों को देखते हुए मैंने ऐसा फैसला दिया. लेकिन वे मेरी बात से सहमत नहीं हुए और चूंकि उनसे इस मामले में अधिक बात करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं था, मैंने उनसे इजाजत ली और बाहर चला आया. इसके बाद मैंने ध्यान दिया कि जब भी मैं उनसे मिलने उनके बंगले पर जाता था वे मुझे कुर्सी पेश करने से पहले एक-दो मिनट खड़ा रखते थे. उनका यह व्यवहार मुझे बहुत अपमानजनक लगा. इसके बाद जब भी मैं उनसे मिलने गया, मैं सुनिश्चित कर लिया करता था की उनके द्वारा पेश किये जाने से पहले ही कुर्सी पर बैठ जाया करता. बापू से प्रभावित होकर इंग्लैड से आ गई थीं सरला बहन, पहाड़ में पर्यावरण के प्रति विकसित की चेतना
इंग्लैंड से आकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली समाजसेवी सरला बहन ने पर्यावरण संरक्षण महिला सशक्तीकरण और बालिकाओं को बुनियादी शिक्षा देने के लिए व्यापक अभियान चलाया। पर्यावरण संरक्षण शब्द की रचियता तो वह थी ही वहीं वह पहली व्यक्ति थीं जिन्होंने जंगल बचाने के लिए अभियान चलाया।
बागेश्वर, चंद्रशेखर द्विवेदी : सात समुंदर पार से आकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली समाजसेवी सरला बहन ने पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तीकरण और बालिकाओं को बुनियादी शिक्षा देने के लिए व्यापक अभियान चलाया। वह पहली व्यक्ति थीं जिन्होंने पहाड़ में जंगल बचाने के लिए अभियान चलाया। बाद में चिपको आंदोलन हुए। अपने जीवन को प्रकृति में आत्मसात करके जीने वाली थी सरला बहन। आज भी उनके विचार प्रासंगिक है।
मूलरूप से इंग्लैंड निवासी कैथरीन मैरी हैलीमन महात्मा गांधी के विचारों से इतनी प्रभावित हुईं कि 1932 में वह उनसे मिलने भारत पहुंचीं। महात्मा गांधी की सलाह पर उन्होंने अपना नाम सरला बहन रख लिया। 1941 में वह अल्मोड़ा आ गईं। कौसानी के निकट चनौदा गांधी आश्रम में रहकर उन्होंने सामाजिक कार्यों के साथ ही भारत की आजादी के लिए हुए आंदोलन में भी बढ़ चढ़कर भागीदारी की।
उन्हें दो बार जेल भी जाना पड़ा। गांधीवादी विचारधारा और महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने 1946 में कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल (लक्ष्मी आश्रम कौसानी) की स्थापना की। वर्ष 1975 में धरमघर में हिमदर्शन कुटीर की स्थापना की। उनके सामाजिक कार्यों को देखते हुए सरकार ने 1978 में उन्हें जमुना लाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया।
उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण, ग्राम स्वराज के साथ ही सामाजिक कुरीतियों से समाज को जागरुक करने में सरला बहन का अहम योगदान रहा। उन्होंने ‘संरक्षण और विनाश’ किताब के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन की वास्तविक स्थिति बताई। पांच अप्रैल 1901 को इंग्लैंड में जन्मी और आठ जुलाई 1982 को अल्मोड़ा उनका देहांत हो गया। सरला बहन की स्मृति में अनासक्ति आश्रम के समीप संग्रहालय का निर्माण कराया गया है।
सरला बहन की शिष्या व गांधी शांति प्रतिष्ठान की पूर्व अध्यक्ष राधा बहन ने बताया कि वह निर्भीक प्रतिबद्ध भारतीय थी। पर्वतीय महिलाओं के आगे बढ़ाने के लिए और पर्यावरण संरक्षण को अपना जीवन समर्पित कर दिया। पहली महिला थी जिन्होंने जंगल बचाने के लिए काम किया और बाद में चिपको आंदोलन आदि हुए। नदी बचाओ आंदोलन के सक्रिय सदस्य सदन मिश्रा ने बताया कि पर्यावरण संरक्षण हो या सामाजिक कुरीतियों को खत्म करना। सरला बहन का योगदान अतुलनीय है। उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। आज भी लोग उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं।
महिलाओं की मदद के लिए विभिन्न शाखाएं स्थापित की गईं
भारतीय स्त्री महामंडल अपनी कार्य-योजनाओं के आधार पर महिलाओं की समस्याओं को पहचानने और समाधान करने के प्रयास में संघर्षरत रही। इसमें महिलाओं की शिक्षा पर सबसे अधिक ज़ोर दिया गया।
महिलाओं द्वारा तैयार की गई हस्तशिल्प की वस्तुओं की बिक्री के लिए एक भंडार शुरू किया गया। उर्दू, हिंदी और पंजाबी भाषाओं में सरल अनुवाद का काम भी शुरू किया गया, जिससे महिलाओं को आर्थिक मदद मिल सके। बाद में इसकी शाखा कलकत्ता और उत्तर प्रदेश में भी स्थापित की गई।
1923 में पति के देहांत के बाद सरला देवी कलकत्ता लौट आईं और यहीं से अपना काम संभाला। महामंडल का गठन कर सरला देवी ने महिलाओं को संगठनात्मक शक्ति का एहसास पहली बार कराया।
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