लोक गायक जीत सिंह नेगी: जीवन वृत्त और योगदान

लोक गायक, कवि, नाटककार और संगीतकार जीत सिंह नेगी का जीवन उत्तराखंडी संस्कृति और संगीत के प्रति समर्पण का प्रतीक है। उनका योगदान न केवल उत्तराखंड के लोक संगीत को समृद्ध करने में रहा, बल्कि उनके गीतों ने पहाड़ों के दर्द और प्रेम को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। उनका हर गीत लोक जीवन से जुड़ी गहरी संवेदनाओं को व्यक्त करता है, और उनकी रचनाओं ने उत्तराखंड के हर कोने में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है।
लोक गायक जीत सिंह नेगी का जीवन वृत्त
जन्म और प्रारंभिक जीवन: लोक गायक जीत सिंह नेगी का जन्म 2 फरवरी 1925 को पौड़ी गढ़वाल के ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं में हुआ था। उनका परिवार संगीत और कला से गहरे रूप से जुड़ा था, और उनके बचपन से ही संगीत के प्रति प्रेम और आकर्षण बढ़ा। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कंडारा, पौड़ी गढ़वाल में प्राप्त की, और बाद में म्यांमार और देहरादून में अपनी शिक्षा जारी रखी।
शिक्षा:
- प्रारंभिक शिक्षा: कंडारा, पौड़ी गढ़वाल
- मिडिल शिक्षा: मेमियो, म्यांमार
- मैट्रिक: गवर्नमेंट कालेज पौड़ी गढ़वाल
- इंटरमीडिएट: डीएवी कालेज देहरादून
पारिवारिक जीवन: नेगी जी के परिवार में उनकी पत्नी और तीन बच्चे थे, एक पुत्र और दो पुत्रियां। उनका परिवार हमेशा से ही सांस्कृतिक धारा से जुड़ा रहा और उनके जीवन के हर पल में कला का एक महत्वपूर्ण स्थान था।
उनके योगदान और कृतित्व
लोक गीतों का योगदान: नेगी जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उत्तराखंडी लोक गीतों में है। उन्होंने गढ़वाली भाषा में न केवल गीत रचे, बल्कि लोक जीवन की गहरी भावनाओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया। उनके गीतों में पहाड़ी जीवन की कठिनाइयाँ, अपनों से बिछड़ने का दुख और अपनों के लिए आस्था और प्रेम का भावनात्मक चित्रण मिलता है।
उनका प्रसिद्ध गीत "तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा" ने उत्तराखंड के लोक संगीत को नया आयाम दिया। इस गीत की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि यह हर उत्तराखंडी के दिल में बस गया। उनके गीतों के माध्यम से गढ़वाली लोक को एक नया पहचान मिला।
कालजयी नाटक: नेगी जी ने लोक कला के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। उन्होंने कई नाटकों की रचना की, जिनमें "मलेथा की कूल", "भारी भूल" और "जीतू बगड्वाल" प्रमुख हैं। इन नाटकों ने न केवल उत्तराखंड बल्कि देश के कई शहरों में अपनी प्रस्तुति दी और स्थानीय संस्कृति को राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत किया।
आकाशवाणी और ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग: 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण शुरू हुआ, और जीत सिंह नेगी को पहली बार गीत गायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। इसके बाद, उन्होंने यंग इंडिया ग्रामोफोन कंपनी से गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग भी की, जो समय के साथ बहुत लोकप्रिय हुई।
उनके विचार और समाज के प्रति दृष्टिकोण
नेगी जी का मानना था कि उत्तराखंड की संस्कृति और लोक गीतों की पहचान दिन-ब-दिन खोती जा रही है। उनका यह विचार था कि हमारी संस्कृति को अब सिर्फ मनोरंजन के रूप में देखा जा रहा है, जबकि यह हमारी पहचान और धरोहर का हिस्सा है। एक बार उनके साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि "दुधबोली सिसक रही है, लेकिन उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते।"
उन्होंने लोक गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता और हल्केपन को लेकर चिंता जताई थी। उनका मानना था कि यदि हम अपनी कला और संस्कृति को सही तरीके से संजोकर नहीं रखते, तो भविष्य में गंभीर कलाकारों की कमी हो जाएगी और कला का संरक्षण भी नहीं हो पाएगा।
उपलब्धियां और सम्मान
- गढ़वाली लोकगीतों की अद्र्धलुप्त धुनों का संवर्धन और पुनर्निर्माण।
- आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से उनके गीतों का प्रसारण।
- गढ़वाली नाटकों के मंचन और उनकी लोकप्रियता।
- भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग द्वारा उनके गीतों की व्यापकता का प्रमाणन।
- गढ़वाली लोक संस्कृति को राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने में योगदान।
अंतिम समय और निधन
जीत सिंह नेगी का निधन 21 जून 2020 को हुआ, जो आषाढ़ कृष्ण अमावस्या के दिन था। अपने अंतिम दिनों में भी वे उत्तराखंडी संस्कृति के लिए चिंतित रहते थे। वे हमेशा चाहते थे कि उत्तराखंड में अपनी संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए और गढ़वाली-कुमाऊंनी भाषा को सम्मान मिले।
रचनाएं
प्रकाशित रचनाएं:
- गीत गंगा - गीत संग्रह
- जौंल मगरी - गीत संग्रह
- छम घुंघुरू बाजला - गीत संग्रह
- मलेथा की कूल - ऐतिहासिक गीत नाटक
- भारी भूल - सामाजिक नाटक
अप्रकाशित रचनाएं:
- जीतू बगड्वाल - ऐतिहासिक गीत नाटिका
- राजू पोस्टमैन - एकांकी
- रामी - गीत नाटिका
- पतिव्रता रामी - हिंदी नाटक
मंचित नाटक
- भारी भूल - इस नाटक का पहली बार मंचन 1952 में गढ़वाल भातृ मंडल, मुंबई द्वारा हुआ। इसके बाद इसे दिल्ली और अन्य शहरों में भी मंचित किया गया।
- मलेथा की गूल - इस नाटक का मंचन 1970 में हुआ, और इसे देशभर में कई बार प्रस्तुत किया गया।
- जीतू बगड्वाल - 1984 में पर्वतीय कला मंच द्वारा इसका मंचन किया गया।
- रामी - 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर नरेंद्र नगर में इसका मंचन हुआ।
निष्कर्ष
जीत सिंह नेगी का जीवन एक प्रेरणा है, जो न केवल लोक संगीत में उनकी गहरी समझ को दर्शाता है, बल्कि उनके कार्यों के माध्यम से उन्होंने उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजा। उनका योगदान सदैव याद रखा जाएगा, और उनके गीत हमेशा उत्तराखंडी लोक को थिरकाते रहेंगे।
Frequently Asked Questions (FQCs) - लोक गायक जीत सिंह नेगी
1. जीत सिंह नेगी कौन थे?
जीत सिंह नेगी उत्तराखंडी लोक संगीत के प्रख्यात गायक, कवि और नाटककार थे। उनका योगदान गढ़वाली संगीत, नाटकों और गीतों के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण था। उन्हें गढ़वाली लोक संगीत के आद्यकवि के रूप में जाना जाता है।
2. जीत सिंह नेगी के प्रसिद्ध गीत कौन से थे?
उनके कुछ प्रसिद्ध गीतों में "तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा", "जीतू बगड्वाल", "मलेथा की कूल", और "भारी भूल" शामिल हैं। इन गीतों ने उत्तराखंडी लोक संगीत की दुनिया में खास पहचान बनाई।
3. जीत सिंह नेगी का जन्म कहां हुआ था?
जीत सिंह नेगी का जन्म 2 फरवरी 1925 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के ग्राम अयाल, पट्टी पैडुलस्यूं में हुआ था।
4. जीत सिंह नेगी की शिक्षा कहां से हुई थी?
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कंडारा (पौड़ी गढ़वाल) से प्राप्त की थी, जबकि मिडिल शिक्षा उन्होंने म्यांमार से की थी। इसके बाद उन्होंने गवर्नमेंट कालेज, पौड़ी गढ़वाल से मैट्रिक और डीएवी कालेज, देहरादून से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की थी।
5. जीत सिंह नेगी ने किस क्षेत्र में योगदान दिया था?
वे गढ़वाली लोक संगीत, नाटक, कविता और नृत्य निर्देशन के क्षेत्र में सक्रिय थे। उन्होंने गढ़वाली लोक गीतों की रचना की, और कई कालजयी नाटकों की भी रचना की। उनके गीतों और नाटकों ने उत्तराखंडी संस्कृति को संजीवनी दी।
6. जीत सिंह नेगी के प्रमुख नाटक कौन से थे?
उनके प्रमुख नाटकों में "मलेथा की कूल", "भारी भूल", "जीतू बगड्वाल", "राजू पोस्टमैन", और "रामी" शामिल हैं। इन नाटकों ने न केवल उत्तराखंड, बल्कि देशभर में मंचित होकर वाहवाही हासिल की।
7. क्या जीत सिंह नेगी का योगदान आकाशवाणी में था?
हां, जीत सिंह नेगी ने आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, और नजीबाबाद से गढ़वाली गीतों का प्रसारण किया। उनके गीतों ने लोक समुदाय को जोड़ने का काम किया और उत्तराखंड के संगीत को पहचान दिलाई।
8. जीत सिंह नेगी का निधन कब हुआ था?
लोक गायक जीत सिंह नेगी का निधन 21 जून 2020 को हुआ था, जो आषाढ़ कृष्ण अमावस्या का दिन था।
9. क्या जीत सिंह नेगी के गीतों में उत्तराखंड की संस्कृति का प्रतिबिंब दिखता है?
जी हां, जीत सिंह नेगी के हर गीत में उत्तराखंडी संस्कृति और पहाड़ी जीवन का अद्भुत चित्रण मिलता है। उनके गीत पहाड़ी जीवन की समस्याओं, संघर्षों और खुशी को दर्शाते हैं।
10. जीत सिंह नेगी के योगदान को कैसे याद किया जाता है?
उनके योगदान को हमेशा गढ़वाली लोक संगीत, नाटकों और कविता के क्षेत्र में याद किया जाएगा। उनके गीतों ने उत्तराखंड की लोक संस्कृति को सजीव बनाए रखा और उनका कार्य आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर रहेगा।
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