श्री परशुराम चालीसा / Shri Parshuram Chalisa

 श्री परशुराम चालीसा

॥ दोहा ॥

श्री गुरु चरण सरोज छविनिज मन मन्दिर धारि ।
सुमरि गजानन शारदागहि आशिष त्रिपुरारि ॥
बुद्धिहीन जन जानियेअवगुणों का भण्डार ।
बरण परशुराम सुयशनिज मति के अनुसार ॥

॥ चौपाई ॥

जय प्रभु परशुराम सुख सागरजय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर ।
भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीराक्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा 
जमदग्नी सुत रेणुका जायातेज प्रताप सकल जग छाया ।
मास बैसाख सित पच्छ उदारातृतीया पुनर्वसु मनुहारा ।
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामातिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा ।
तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हारेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा ।
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़ेमिथुन राशि राहु सुख गाढ़े 
तेज-‍ - ज्ञान मिल नर तनु धाराजमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा ।
धरा राम शिशु पावन नामानाम जपत जग लह विश्रामा ।
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दरकांधे मूंज जनेउ मनहर ।
मंजु मेखला कटि मृगछालारूद्र माला बर वक्ष बिशाला ।
पीत बसन सुन्दर तनु सोहेंकंध तुणीर धनुष मन मोहें 
वेद-पुराण- श्रुति स्मृति ज्ञाताक्रोध रूप तुम जग विख्याता ।
दायें हाथ श्रीपरशु उठावाबेद-संहिता बायें सुहावा ।
विद्यावान गुण ज्ञान अपाराशास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा ।
भुवन चारिदस अरू नवखंडाचहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा ।
एक बार गणपति के संगाजूझे भृगुकुल कमल पतंगा ।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामाएक दंत गणपति भयो नामा ।
कार्तवीर्य अर्जुन भूपालासहस्रबाहु दुर्जन विकराला ।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहींरखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं ।
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाईभयो पराजित जगत हंसाई ।
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ीरिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी 
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीनातिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा ।
लगत शक्ति जमदग्नी निपातामनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता ।
पितु-बध मातु-रूदन सुनि भाराभा अति क्रोध मन शोक अपारा 
कर गहि तीक्षण परशु करालादुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला ।
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हापितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा ।
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनीछीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी ।
जुग त्रेता कर चरित सुहाईशिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई 
गुरु धनु भंजक रिपु करि जानातब समूल नाश ताहि ठाना 
कर जोरि तब राम रघुराईबिनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई 
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ताभये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता ।
शस्त्र विद्या देह सुयश कमावागुरु प्रताप दिगन्त फिरावा ।
चारों युग तव महिमा गाईसुर मुनि मनुज दनुज समुदाई ।
दे कश्यप सों संपदा भाईतप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई ।
अब लौं लीन समाधि नाथासकल लोक नावइ नित माथा ।
चारों वर्ण एक सम जानासमदर्शी प्रभु तुम भगवाना 
ललहिं चारि फल शरण तुम्हारीदेव दनुज नर भूप भिखारी ।
जो यह पढ़ें श्री परशु चालीसातिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा ।
पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामीबसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी ।

॥ दोहा ॥

परशुराम को चारू चरितमेटत सकल अज्ञान ।
शरण पड़े को देत प्रभुसदा सुयश सम्मान ॥

॥ श्लोक ॥

भृगुदेव कुलं भानुंसहसबाहुर्मर्दनम् ।
रेणुका नयना नंदपरशुंवन्दे विप्रधनम् ॥

टिप्पणियाँ