उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास | History of Horticulture Development in Uttarakhand
उत्तराखण्ड में उद्यान विकास इतिहास (Horticulture Development History in Uttarakhand)
उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। तालेश्वर ताम्रपत्र में वटक शब्द उल्लेखित है जो इस क्षेत्र में उद्यानों के अस्तित्व का प्रमाण है। डॉ० इन्दु मेहता की मान्यता है कि इसका तात्पर्य केले के उद्यान से है। चंद राजाओं ने एक फलोद्यान कपीना (अल्मोड़ा) में विकसित किया था। कत्यूरी रानी मौलादेवी (जिया रानी) ने रानीबाग में एक बाग बनाया था।
उत्तराखण्ड में उद्यान विकास
उद्यान विकास को एक वैज्ञानिक, व्यापारिक एवं व्यावसायिक रूप में प्रारम्भ करने का श्रेय यूरोपियों को ही जाता है। उन्होंने उत्तराखण्ड की जलवायु क अनुकूल शीतोष्ण फलों जैसे सेब, नाशपाती इत्यादि की कृषि प्रारम्भ की। उन सब में जिस फल ने यूरोपियों का ध्यान सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह सेब था। उत्तरखण्ड में वाणिज्यिक स्तर पर सेब की खेती 1869 में चौबटिया में सरकारी उद्यान की स्थापना के बाद ही शुरू हो पाई। एटकिन्सन ने हिमालय गजेटियर में कुमाऊँ में उगाए जाने वाले अनेक प्रकार के फलों जैसे आडू, खुमानी, प्लुम, सेब, नाशपाती, संतरे आदि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। एटकिन्सन ने 9000 हजार फीट से अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर बहुत अधिक मात्रा में उगने वाले लाल प्रजाति के जंगली रूबस के बारे में भी बताया है।
उत्तराखंड में बागवानी फल पट्टी का इतिहास आइये पढ़ते हैं उत्तराखंड में उद्यानीकरण की
सरकार बार-बार कह रही है कि उद्यानीकरण को रोजगार का आधार बनायेगी। मुख्यमंत्री अपने हर संबोधन में बता रहे हैं कि वे फलोत्पादन और नकदी फसलों से लोगों की आमदनी बढ़ायेंगे, ताकि वे महानगरों की ओर न भागें। सरकार अगर इस तरह सोच रही है तो निश्चित रूप से उसने उद्यानीकरण पर अपना रोडमैप जरूर तैयार किया होगा। मुख्यमंत्री और सरकार की ओर से वही पुरानी बातें कही गर्इ हैं, जो योजनाओं और कागजों तक सीमित रहती हैं। इनके धरातल में न उतरने की वजह से ही लोगों का फलोत्पादन से मोहभंग हुआ। परंपरागत रूप से फलोत्पादन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार रही है। फल, सब्जियों, कृषि उपजों आदि से ही ग्रामीण अपना भरण-पोषण करते रहे हैं।
पहाड़ में मनीआर्डर की अर्थव्यवस्था एक साजिश है। बहुत तरीके से लार्इ गर्इ है। यह साबित कराने के लिये कि पहाड़ों में कुछ नहीं हो सकता। बाहर जाकर कमाकर जो आयेगा उसी से जीवन चलेगा। यह झूठ इतनी बार बोला गया कि बाद में इसे बहुत तरीके से ‘मनीआर्डर इकाॅनोमी’ बताकर यहां के संसाधनों की लूट का रास्ता तैयार किया गया। यही वजह है कि जिस खूबसूरत पहाड़ में फलोत्पादन से आत्मनिर्भर बना जा सकता था, उन्हीं जगहों को भू-माफिया से बचाना मुश्किल हो गया है। जिन जगहों पर कभी फलों के बगीचे थे, आज वहां सीमेंट के जंगल खड़े हो गये हैं। सरकार के तमाम उद्यान अंतिम सांसे गिन रहे हैं। उद्यान विभाग ने जिस तरह से एक संभावना को खत्म किया है, उसे सरकार एक कोरोना संकट के बहाने कैसे ठीक कर सकती है यह बड़ा सवाल है। यह सवाल इसलिये भी खड़ा है क्योंकि दो सौ साल में खड़े हुये उद्यानीकरण के ढांचे को जमींदोज करने के बाद सरकार इसे दो महीने या दो साल में कैसे खड़ा कर पायेगी यह सोचने वाली बात है।
उत्तराखंड में फलोत्पादन और उद्यानीकरण का बहुत समृद्ध इतिहास रहा है। प्राचीन इतिहास में भी यहां फलोत्पादन का उल्लेख है। तालेश्वर ताम्रपत्र में ‘वटक’ शब्द आया है। बताते हैं कि यहां केले और दाडि़म (अनार) के बाग रहे थे। केले और दाडि़म आज भी हर घर और गांव में लगाने की परंपरा है। दाडि़म को शुभ कार्यों में महत्ता दी गर्इ है। वाटिका के उल्लेख से पता चलता है कि यहां उद्यान दान में देने की प्रथा रही थी। चंद राजाओं के समय में कपीना (अल्मोड़ा) में उद्यान विकसित हुये थे। बाद में शीपोष्ण फलों सेब, नाशपाती, चेरी आदि को अंग्रेज लाये। अंग्रेज उद्यानीकरण की संभावनाओं को बहुत अच्छी तरीके से जानते-समझते थे। उन्होंने इसकी बहुत मजबूत शुरुआत की। 1850 के दशक में पहाड़ में फलों, सब्जियों, दालों और चाय के बीगीचे स्थापित होने लगे थे।
इसके दो बड़े उदाहरण हैं- उत्तरकाशी का हर्षिल और अल्मोड़ा के चैबटिया गार्डन। उत्तरकाशी के हर्षिल क्षेत्र जो टिहरी राजा के अधीन था, वहां एक अंग्रेज आया जिसका नाम था- फ्रेडरिक विल्सन। उसने इस क्षेत्र में एक नर्इ विलायत बसार्इ। उसने यहां की आबोहवा को समझा। विल्सन ने यहां सेब का बगीचा लगाया। राजमा बोर्इ, आलू की पैदावार की। उसने इस क्षेत्र को कृषि और बागवानी से आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता खोला। उस समय एक जुमला चला- ‘सेब दो ही हुये, एक न्यूटन वाला दूसरा विल्सन वाला।’ उसके लगाये सेब को ‘विल्सन सेब’ के नाम से ही जाना गया। दूसरा उदाहरण है रानीखेत का। यहां 1860 में अंग्रेजों ने एक बगीचे की शुरुआत की। जिसे हम सब लोग ‘चौबटिया गार्डन’ और बाद में ‘राजकीय उद्यान’ चौबटिया के नाम से जानते रहे हैं। अंग्रेजों ने 1872 में नैनीताल जनपद के रामगढ़ में आडू और सेब के बगीचों की शुरुआत की। यहां चाय के बगानों को भी लगाया गया। वर्ष 1909 तक ज्योलीकोट जैसी जगहों में सरकारी उद्यान स्थापित हो गये।
हालांकि बगीचों की शुरुआत अंग्रेजों के 1815 के बाद ही शुरू कर दी थी। अंग्रेजों ने 1816-17 में ही जमीन की पहली पैमाइश की। वर्ष 1823 में हुये अस्सी साला बंदोबस्त के बाद जमीनों की नर्इ तरह से पहचान हो गर्इ। उसके अनुरूप नीतियां बनने लगी। उसी का परिणाम हुआ कि अल्मोड़ा जनपद के जलना में जनरल व्हीलर ने एक बगीचा लगाया। यह बगीचा बाद में सेठ शिवलाल परमालाल साह ने ले लिया। बिनसर में बगीचे लगे। स्वीडन हम, लिंक्लन, ऐलन, श्रीमती डेरियाल और भारतीयों में विशारद, उमापति, जगत चंद्र (हरतोला) मोहन सिंह दडम्वाल आदि ने रामगढ़ के आसपास बगीचों का बड़ा कारोबार किया। भवाली में नारायणदत्त भट्ट, रानीखेत में मुमताज हुसैन, स्याहीदेवी में शिरोमणि पाठक और भोलादत्त पांडे ने बड़े बगीचे बनाये। इससे पहले 1835 में पहाड़ में चाय की पैदावार के लिये अंग्रेजों ने पहल की।
चाय का पहला बगीचा 1835 में लक्ष्मीश्वर में डाॅ. फाॅलनर ने लगाया। फाॅलनर चाय की खेती सीखने के लिये चीन गये। वे 1842 में अपने साथ कुछ चीनी नागरिकों को लाये। हवालबाग में 1841 में मेजर कार्बेंट ने बगीचा लगाया, जिसे कुछ समय सरकार ने और बाद में लाला अमरनाथ साह ने खरीद लिया। रैमजे ने भी 1850 में एक बगीचा बनाया। उसे नारमन ने खरीदा। भवाली में न्यूटन का बगीचा और मुलियन का बगान प्रसिद्ध हुये। मुलियन ने घोड़ाखाल में भी बगीचा बनाया। बज्यूला, ग्वालदम, डुमकोट, ओड़ा, लोध, दूनागिरी, जलना, बिनसर, गौलपालड़ी, सानी उड्यार, बेरीनाग, डोल, लोहाघाट, झगतोला, कौसानी, स्याहीदेवी, चकोड़ी, छीनापानी, लैंसडाउन, देहरादून आदि में चाय लगार्इ गर्इ। पहले ये अंग्रेजों के पास थे बाद में ‘फ्री सिम्पल रियासतो’ के पास चले गये। इनके अलग-अलग मालिक हो गये। इन सब बागीचों के मालिकों की खासियत यह रही कि इन्होंने अपने बगीचों के साथ लोगों को फलदार पेड़ लगाने के लिये प्रेरित किया। गांव वालों को निःशुल्क फलदार पेड़ बांटे। यही वजह है कि उत्तराखंड में कर्इ गांवों में हमें छोटे-छोटे बगीचों की पुरानी संस्कृति देखने को मिल जाती है।
पहाड़ में उद्यानीकरण की इतिहास की इन बातों को जिक्र आगे उद्यानीकरण की हालत को समझने में सहायक होगा। इसलिये संक्षिप्त में उसका इतिहास जानना जरूरी है। उससे सीखना भी। उद्यानीकरण की मौजूदा हालत पर बात की शुरुआत हमें चौबटिया से ही करनी पड़ती है। चौबटिया गार्डन की स्थापना 1860 में हुर्इ। लेकिन इसने विधिवत 1869 से बाग का रूप लिया। मि. क्रो के नेतृत्व में यहां सेब, नाशपाती, खुबानी, प्लम, चेरी लगार्इ गर्इ। स्पेन और जापान से चेस्टनट (मीठा पांगर) भी लाया गया। के पीछे फलोत्पादन को आर्थिकी का आधार बनाने की इच्छाशक्ति थी। यह प्रयोग बहुत सफल रहा। इस बगीचे में उन्नत किस्म के फलों सेब, आडू, खुमानी, पुलम, चेरी आदि के उत्पादन से अंग्रेजो ने पहाड़ों में फलोत्पादन की शुरुआत की। वर्ष 1870 में चौबटिया गार्डन में सेब के 1902, नाशपाती के975, वेस्टनट के 427, खुबानी के 580, प्लम के 188, आडू के 180, चेरी के 170 सहित कुल 4,422 फलदार वृक्ष थे। कृषि विशेषज्ञ स्टोक यहां सबसे पहले ‘रेड डेलीसियस’ नामक सेब लाये। उस समय यहां सेब की 91, नाशपाती की 34, खुबानी की 8, चेरी की 10, आडू की चार, पुलम की 13 प्रजातियां थीं। वर्ष 1893-97 में यहां से औसतन 1078 का राजस्व प्राप्त होता था।
कृषि विशेषज्ञ और उत्तराखंड की बागवानी को गहरे तक जानने वाले डाॅ. राजेन्द्र कुगसाल इसे विस्तार से बताते हुये कहते हैं कि भारतवर्ष का पहला शीतोष्ण फलों का शोध केन्द्र भी चौबटिया में ही खुला। ब्रिटिश शासनकाल में 1932 में पर्वतीय क्षेत्रों में फलोत्पादन संबंधी जागरूकता के लिये इसे प्रसार और शोध के लिये विशेष रूप से आगे बढ़ाया। इस संस्थान में कृषकों को पौंधो लगाने, पौंधो को प्रसारण, मृदा की जानकारी, खाद-पानी देने, कटार्इ-छंटार्इ, कीट-ब्याधियों से बचाव आदि के लिये प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा। वर्ष 1932 से 1955 तक इसकी वित्तीय व्यवस्था कृषि अनुसंधान संस्थान करता था। इसकी सफलता को देखते हुये यहां पौंध दैहिकी (प्लांट फिजियोलाॅजी), पादप अभिजनन (प्लांट ब्रीडिंग), भेषज, मशरूम के विभाग भी खोले गये। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्दबल्लभ पंत मुख्यमंत्री ने पहाड़ में फलोत्पादन को बढ़ाने की मंशा से रानीखेत में 1953 में उद्यान विभाग का निदेशालय खुलवाया। इसके बाद लगातार इस क्षेत्र में कार्य हुआ। साठ के दशक में फिर गढ़वाल मंडल में भी बगीचों की स्थापना होने लगी।
हेमवतीनन्दन बहुगुणा के समय में 1974 में फलोत्पादन को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिये चौबटिया फल शोध केन्द्र के अन्तर्गत पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर और कोटद्वार, चमोली के कोटियालसैंण, टिहरी के सिमलासू, उत्तरकाशी के डंुडा, देहरादून के ढकरानी और चकरोता, नैनीताल के ज्योलीकोट व रुद्रपुर, अल्मोड़ा के मटेला, पिथौरागढ़ के गैना (ऐंचोली) में उपकेन्द्र खोले गये। इन संस्थानों के खुलने से शीतोष्ण और समशीतोष्ण फलों, सब्जियों और मसालों के प्रति किसानों में न केवल जागरूकता बढ़ी, बल्कि वे इसे अपनी आर्थिकी का आधार भी बनाने लगे। लेकिन अब ये सारे संस्थान लगभग बंद हो गये हैं। इन्हें तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी संभाल रहे हैं। हेमवतीनन्दन बहुगुणा ने बागवानी को बढ़ाने के लिये ‘बागवानी मिशन’ और बाद में नारायणदत्त तिवारी ने एक उच्चस्तरीय ‘बक्शी एवं पटनायक कमेटी’ बनाकर पर्वतीय क्षेत्र में बागवानी को सुदृढ़ करने के प्रयास किये। पर्वतीय क्षेत्रों में उद्यानीकरण के विकास के लिये चौबटिया गार्डन से जो शुरुआत हुर्इ उसने निश्चित रूप से बागवानी के लिये रास्ता तैयार किया। सरकार ने इस संस्थान के निर्देशन में पर्वतीय क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में सरकारी बगीचे लगाये।
मौजूदा समय में अल्मोड़ा में 11, नैनीताल में 11 पिथौरागढ़ में 15, बागेश्वर में 2, चंपावत में 6, ऊधमसिंहनगर में 3, पौड़ी में 9, चमोली में 11, रुद्रप्रयाग में 4, हरिद्वार में 1, देहरादून में 8, उत्तरकाशी में 7 और टिहरी में 7 उद्यान लगाये। राज्य बनने के बाद जहां ये उद्यान फलोत्पादन से किसानों की आथ्र्िाकी का आधार बन सकते थे, वहीं सरकार ने इन्हें एक-एक कर खुर्द-बुर्द करना शुरू कर दिया। राज्य आंदोलन के समय लोग कहते थे कि हम राज्य को उद्यानीकरण की अर्थव्यवस्था से ही आत्मनिर्भर बना देंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा। जब राज्य में पहली चुनी हुर्इ नारायणदत्त तिवारी के नेतृत्व में पहली चुनी हुर्इ सरकार आर्इ तो उन्होंने इन बगीचों को निजी हाथों में देने का रास्ता तैयार कर दिया। राज्य के सभी 104 बगीचों को निजी कंपनियों को लीज पर दे दिया गया। इसके बाद तो उद्यानीकरण का जो बाजा बजा उसे चैबटिया गार्डन से समझा जा सकता है। चैबटिया गार्डन जो कभी 235 हैक्टेयर में फैला था अब मात्र 106 हैक्टेयर में सिमटकर रह गया है। अब यहां मात्र 60 हैक्टेयर क्षेत्रफल में सेब होता है। कभी इस बगीचे से 500 से 700 टन तक सेब का उत्पादन होता था जो आज मात्र 20 से 30 टन रह गया है। जिन बगीचों को सरकार ने लीज पर दिया था 2012-13 में फिर विभाग में वापस ले लिये गये। इन सभी बगीचों की स्थिति मौजूदा समय में दयनीय है। इनमें से चार बगीचे अभी भी लीज पर हैं। (जारी…)
संदर्भः
- कुमाऊं का इतिहास, बद्रीदत्त पांडे।
- ‘शोध गंगा’ में प्रकाशित ‘उत्तराखंड में उद्यानीकरण का इतिहास’ अध्याय-5, शोधकर्ता का नाम नहीं दिया है।
- शरदोत्सव रानीखेत से प्रकाशित स्मारिका-1993 में रामलाल शाह का लेख- ‘ए शाॅर्ट हिस्ट्री आॅफ गवनर्मेंट गार्डन, चौबटिया ।
- निदेशालय, उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण, उत्तराखंड, उद्यान भवन चौबटिया ।
- कृषि विशेषज्ञ डाॅ राजेन्द्र कुगसाल से लगातार लंबी बातचीत।
- रामगढ में पृथ्वीसिंह, भीमताल में संजीव भगत, रानीखेत में गोपाल उप्रेती का फीडबैक।।
उत्तराखंड में आलू की खेती(Potato Farming in Uttarakhand)
- फलों के साथ-साथ यहां कई प्रकार की सब्जियों की कृषि पर भी ध्यान दिया गया, जिनमें आलू प्रमुख था।
- मान्यता के अनुसार आलू की खेती हेनरी रैम्जे ने ब्रिटिश कुमाऊँ में प्रसारित की थी।
- भारत में गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिग्स ने अपने कार्यकाल के दौरान आलू की खेती को प्रोत्साहित किया।
- उत्तराखण्ड में आलू की खेती देहरादून में 1823 ई० में सर्वप्रथम मेजर यंग द्वारा की गई।
- सर्वप्रथम विदेशी आलू को श्रीमती हैरी बर्जर ने सन् 1864 में नैनीताल व आसपास के क्षेत्रों में रोपित किया।
- आलू के उत्पादन व उन्नत बीजों के लिए ज्योलीकोट में कुमाऊँ गवर्नमेण्ट गार्डन को लगभग 1909 में स्थापना की गई और इस गार्डन का कार्यभार नार्मन गिल को सौंपा गया।
- नैनीताल आलू एक ट्रेडमार्क बन गया।
- नोट:- उत्तराखंड का आलू देश भर में पहाड़ी आलू के नाम से विख्यात है।
- आलू की सबसे लोकप्रिय प्रजाति लॉग कीपर को कुमाऊँ लाने का श्रेय नार्मन गिल को जाता है।
- आलू की कृषि को वैज्ञानिक ढंग से प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सन् 1943 मे इम्पीरियल कृषि अनुसंधान केन्द्र दिल्ली के अतंर्गत भवाली में एक इम्पीरियल पोटेटो रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई।
उत्तराखंड में सेब की खेती(Apple Farming in Uttarakhand)
Apple Farming in Uttarakhand |
- 1864 में फ्रेडरिक विल्सन नामक अंग्रेज द्वारा हर्षिल में बागवानी फसलों की कृषि आरम्भ की।
- आज भी यहां सेब की एक प्रजाति विलसन के नाम से प्रसिद्ध है।
- चौबटिया उद्यान की स्थापना 1869 में वन विभाग द्वारा डब्लू क्रा की देखरेख में की गई।
- डब्लू क्रा इस उद्यान के प्रथम सुपरिन्टेंडेंट थे।
- प्रो स्टोक जो एक जाने माने उद्यान विशेषज्ञ थे उन्होंने सेब की रेड डेलीसियस नामक प्रजाति को यहां पर उगाया।
- 1906 में लवग्रोव जो कि उस समय वन संरक्षक के पद में थे इस उद्यान में आए व उन्होंने इस उद्यान के प्रबंधन हेतु सरकार के लिए एक रिपोर्ट तैयार की।
- सन् 1914 में राजकीय उद्यान चौबटिया वन विभाग द्वारा कुमाऊँ कमिश्नर के अधीन कर दिया गया और इसका प्रबन्धन नार्गन गिल को सौंपा गया।
- गिल ने यहां जैम व मुरब्बा बनाने, फल प्रसंस्करण एवं वितरण हेतु कारखाने की स्थापना की।
- उन्होंने यहां पर औषध पादपों की खेती भी प्रारम्भ की।
- गिल ने पहाड़ी जिलों का भ्रमण किया तथा उन्होंने कई महत्वपूर्ण जंगली पौधों के बारे में जानकारियां एकत्र की तथा उन्होंने फ्लोरा ऑफ कुमाऊँ शीर्षक से एक हर्बेरियम भी बनाया था।
- गिल के सहयोगी राम लाल शाह थे।
- गिल का काल कुमाऊँ के बागवानी विकास का स्वर्णयुग था।
- सन् 1932 में राजकीय उद्यान चौबटिया में एक हिल फ्रूट रिसर्च स्टेशन की स्थापना की गई थी।
- पर्वतीय सब्जियों में शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सन् 1936 में अल्मोड़ा में विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोसी सेन द्वारा की गई।
- नोट:- विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना 1924 में कोलकाता में की गई व 1936 में इसे अल्मोड़ा स्थानांतरित किया गया।
उत्तराखण्ड में बैलाडोना की खेती (Belladonna Cultivation in Uttarakhand)
- गिल ने इसकी खेती 1910/1903 से ही शुरू कर दी थी।
- गिल ने कुमाऊँ में बोन हेतु जैटोपा बैलाडोना का बीज विदेशों से मंगा कर नैनीताल तथा चाबटिया में बोया।
- सन् 1944 में रानीखेत में पायरेथ्रम के फूलों की खेती शुरू की गई। इसके फूलों से मलेरिया के मच्छर मारने को दवा बनती थी।
- सन् 1924 में गिल की मृत्यु के बाद चौबटिया उद्यान संकटों से घिर गया। कुछ साल बाद सरकार ने उद्यान को मुमताज हुसैन को पट्टे पर दे दिया था।
उत्तराखण्ड में चाय की खेती(Tea Cultivation in Uttarakhand)
![]() |
Tea Cultivation in Uttarakhan |
- राज्य में मध्य हिमालय और शिवालिक पहाड़ियों के मध्य स्थित पर्वतीय ढालों पर चाय पैदा की जाती है। भारतीय चाय बोर्ड का कार्यालय अल्मोड़ा में है।
- चाय की खेती के लिए अर्द्ध एवं उष्ण जलवायु और 200-250 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है।
- राज्य में चाय, के बाग अल्मोड़ा, पौढ़ी गढ़वाल, नैनीताल, चमोली, पिथौरागढ़, देहरादून आदि सात पर्वतीय जिलों के 18 ब्लॉकों में एक हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में फैले हैं।
- सन् 1824 में ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर ने कुमाऊँ में चाय की संभावना व्यक्त करते हुए कहा है कि कुमाऊँ की धरती पर चाय के पौधे जंगली रूप में उगते हैं परन्तु कार्य में नहीं लाए जाते हैं।
- हेबर ने अपनी पत्रिका में लिखा था कि कुमाऊँ की मिट्टी का तापमान तथा अन्य मौसमी दशाएं चीन के प्रचलित
- चाय के बगानों से काफी मेल रखती हैं।
- बैंटिक ने सन् 1834 में कॉल्हने के नेतृत्व में एक एक चाय कमेटी का गठन किया जिसका मुख्य कार्य चाय के पौधे प्राप्त करना व बागान लगाने हेतु योग्य भूमि ढूंढना था।
- अंग्रेजों ने 1834 में यहां चाय के बागान के विकास हेतु चीन से चाय का बीज मंगवाया।
- सन् 1834 में झरीपानी (देहरादून) को चाय प्रशिक्षण हेतु सबसे उपयुक्त पाया गया।
- सन् 1835 में कलकत्ता से दो हजार पौधों की पहली खेप कुमाऊँ पहुंची जिसमें अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर व भीमताल के पास भरतपुर में चाय की पौधशालाएं स्थापित की गई।
- अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में सबसे पहले डॉ० फाल्कनर ने 1835 बगीचा बनाया।
- नोट- उत्तराखंड में व्यावसायिक स्तर पर चाय की खेती 1835 में डा रायले ने शुरू की।
- सन् 1835 में कोठ (टिहरी गढ़वाल) में भी चाय की खेती प्रारम्भ की गई।
- यहां की चाय की समानता चीन से आयातित की जाने वाली उलांग चाय से की गई।
- सन् 1838 में फॉरच्यून नामक अंग्रेज अधिकारी को चाय के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन भेजा गया।
- सन् 1841 में हवालबाग में मेजर कॉर्बेट ने बगीचा बनाया जिसको लाला अमरनाथ साह ने खरीदा।
- सन् 1843 में कैप्टन हडलस्टन ने पौड़ी व गडोलिया में चाय बागानों की स्थापना की।
- सन् 1844 में देहरादून के पास कौलागीर में सरकारी बागान की शुरूआत डॉ० जेमिसन के निर्देशन में हुई।
- सन् 1850 में राम जी साहिब ने कत्यूर में बगीचा बनाया जिसे श्री नार्मन टूप ने खरीदा।
- सन् 1850 में ईस्ट इण्डिया कंपनी के आमंत्रण पर एसाई वांग नामक एक चीनी चाय विशेषज्ञ भी गढ़वाल आए थे।
- आगे चलकर अंग्रेजों द्वारा यहां के अनेक क्षेत्रों जैसे वज्यूला, डूमलोट, ग्वालदम, बेड़ीनाग, चौकड़ी आदि में चाय
- बगीचे लगाए गए। इन बगीचों में कौसानी, बेड़ीनाग व लोध से चाय का खूब व्यापार हुआ।
- पौड़ी नगर के निकट गडोली में चौफिन नामक एक चीनी काश्तकार द्वारा सरकारी चाय फैक्ट्री की स्थापना (1972
- में की गई।
- नोट- यह उत्तराखंड में स्थापित पहली सरकारी चाय फैक्टरी थी।
- 1918 में चौकड़ी व बेड़ीनाग के बगीचे को देव सिंह बिष्ट द्वारा जिम कॉर्बेट के मामा राबर्ट बिलेयर से खरीद लिया गया।
- 1928 में नैनीताल में यूरोपियनों द्वारा पांच चाय के बगान लगाए गए। जो कि भीमताल में मि जोन्स द्वारा, भवाली (न्यूटन का बगान), भवाली (मुलियन का बगान), व्हीलर द्वारा घोड़ाखाल में डेरियाज द्वारा रामगढ़ में उद्यान लगाए गए।
- नोट- भीमताल में चाय का बगान 1928 में मि. जोन्स द्वारा स्थापित किया गया था।
- सन् 1930 में अल्मोड़ा जिले का सबसे बड़ा चाय उद्यान मल्ला कत्यूर में था तथा दूसरा कौसानी चाय उद्यान था।
- इसके अलावा अलकनंदा नदी बेसिन में भी चाय की खेती होती थी यहां सबसे बड़ा चाय उद्यान ग्वालदम में स्थित था।
- नोट- सर्वप्रथम बीजों के कृषिकरण की लिखित जानकारी मूरक्राफ्ट के यात्रा वृतांत से प्राप्त होती है।
- नोट:- उत्तराखंड राज्य गठन के पश्चात यहां उत्पादित होने वाली चाय का ब्रांड नाम कैच उत्तराखंड रखा गया है।
- चाय प्रसंस्करण इकाई की स्थापना नैनीताल के घोड़ाखाल में की गई है।
- झलतोला टी स्टेट बेरीनाग, पिथौरागढ़ की चाय का विश्व प्रसिद्ध घोषित किया गया है।
- चाय विकास परियोजना का प्रारंभ 1993-94 में किया गया था।
- 1994 में चाय उत्पादन का दायित्व कुमाऊँ मण्डल विकास निगम को दिया गया।
- राज्य के कौसानी, भीमताल, भवाली, चौकोड़ी तथा कोटाबाग आदि के टी स्टेट चाय बागान ब्रिटिश काल से ही विख्यात रहे हैं।
- राज्य में चाय विकास बोर्ड का गठन 11 फरवरी 2004 को किया गया है, जो चौघाणपाटा (अल्मोड़ा) में स्थित चाय विकास बोर्ड द्वारा 2012-15 तक 3 नई चाय फैक्ट्रियां चम्पावत, नौटी व हरीनगरी की स्थापना कर उच्च गुणवत्ता वाली चाय आर्थीडिक्स चाय उत्पादित की जा रही है।
चाय के इतिहास के संबंधित कुछ प्रमुख तिथियां (Some Important Dates Related to the History of Tea)
- 1824 -विशप हेबर की कुमाऊँ यात्रा और चाय की खेती की संभावना व्यक्त की थी।
- 1834 - विलियम बैंटिक द्वारा कॉल्हने के नेतृत्व में चाय कमेटी का गठन।
- 1834-ब्रिशिश सरकार द्वारा चाय की खेती हेतु चीन से चाय का बीज मंगवाया गया।
- 1834 -देहरादून स्थित झरीपानी को चाय प्रशिक्षण हेतु उपयुक्त पाया गया।
- 1835 -कलकत्ता से सर्वप्रथम 2 हजार चाय के पौधे कुमाऊँ पहुंचे।
- 1835 -अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में सबसे पहले डॉ फॉल्कनर ने चाय बगीचा लगाया।
- 1835 - टिहरी गढ़वाल के कोठ में चाय की खेती प्रारंभ की।
- 1835 - कौसानी में चाय उत्पादन का कार्य शुरू ।
- 1838/48 - में फॉर्चून नामक अंग्रेजी अधिकारी को चाय की खेती सीखने के लिए चीन भेजा गया था।
- 1841 - हवालबाग में मेजर कॉर्बेट द्वारा चाय बगीचा लगाया गया।
- 1842 - पौढ़ी में 1842 में मिस्टर ब्लैकवर्थ के अधीन चाय का उत्पादन शुरू। इसे पौचोंग नाम दिया गया।
- 1843 - कैप्टन हडलस्टन द्वारा पौढ़ी व गडोलिया में चाय बागानों की स्थापना की गई।
- 1844 - डॉ जेमिसन द्वारा देहरादून के पास कौलागिरी/कोवलाघीर में सरकारी बागान की शुरूआत की गई।
- 1850 - कत्यूरी स्थित चाय बागान की स्थापना राम जी साहिब द्वारा की गई, जिसे नॉर्मन ट्रूप ने खरीदा।
- 1850 - एसआई वांग नामक चीनी चाय विशेषज्ञ गढ़वाल आए।
- 1856 -गंगोली व कत्यूर में रैम्जे द्वारा चाय बागानों की शुरूआत की गई।
- 1907 -चौफिन नामक चीनी काश्तकार द्वारा पौढ़ी के गडोली में सरकारी चाय फैक्ट्री की स्थापना की गई।
- 1918 -चौकोड़ी व बेरीनाग के चाय बागान देव सिंह बिष्ट द्वारा रॉबर्ट विलेयर से खरीदे गए।
- 1928 -मिस्टर जोन्स द्वारा भीमताल, भवाली में न्यूटन और मुलियन का बागान, घोड़ाखाल में व्हीलर का बागान, रामगढ़ में मिस्टर डेरियाज द्वारा चाय बागानों की स्थापना की गई।
- 1930 -अल्मोड़ा जिले का सबसे बड़ा चाय बागान मल्ला कत्यूर तथा दूसरा कौसानी चाय उद्यान था।
- 1993-94 – चाय विकास परियोजना प्रारंभ ।
- 1994 -चाय उत्पादन का दायित्य कुमाऊँ मण्डल विकास निगम को दिया गया।
- 2001 -कौसानी में चाय फैक्ट्री की शुरूआत की गई।
- 2002 - कौसानी में उत्तरांचल चाय का उत्पादन शुरू किया गया।
- 11 फरवरी, 2004 चाय विकास बोर्ड का गठन किया गया ।
- कुमाऊँ गवर्नमेंट गार्डन चौबटिया, रानीखेत
- सन् 1827 में डॉ० रायल ने तत्कालीन गवर्नर जनरल सर एमहर्स्ट को यह सुझाव दिया कि कुमाऊँ गढ़वाल की प्राकृतिक रचना एवं जलवायु चाय की खेती के लिए उपयुक्त है। अतः यहां पर ब्रिटेन के सम्पन्न परिवारों को चाय बागान लगाने हेतु बसाया जाए।क्षजब यह खबर ब्रिटेन पहुंची तो 1830 से 1856 के बीच अंग्रेज परिवार कुमाऊँ के भीमताल, घोड़ाखाल, रामगढ़ आदि स्थानों पर आकर बसे थे।
- कंपनी सरकार ने इन परिवारों को चाय बगान लगाने हेतु बड़ी मात्रा में भूमि आंवटित की। जो फ्री सैंपल इस्टेट कहलाती थी।
- इन्हीं परिवारों में से एक टूप का परिवार भी था। जिसके अनेक सदस्य पलटन में उच्च पदों पर थे। इस परिवार ने चौबटिया से रानीखेत धोबीघाट के बीच चाय बगान स्थापित किया। स्थानीय लोगों ने इनका नाम 'चहाबगिच' कर दिया था।
- रामलाल शाह जो चौबटिया में कार्यरत थे ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद फ्लोरा रानीखेतयेन्सीज के नाम से लिपिबद्ध किया था।
- उत्तराखंड में कृषि
राज्य में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलें चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, सोयाबीन, दालें, तिलहन और कई फल और सब्जियां हैं।
- उत्तराखंड में क्या विकास हो रहा है?
अन्य प्रमुख उद्योगों में पर्यटन और जलविद्युत शामिल हैं, और आईटी, आईटीईएस, जैव प्रौद्योगिकी, फार्मास्यूटिकल्स और ऑटोमोबाइल उद्योगों में संभावित विकास है। उत्तराखंड के सेवा क्षेत्र में मुख्य रूप से पर्यटन, सूचना प्रौद्योगिकी, उच्च शिक्षा और बैंकिंग शामिल हैं।
- राज्य उत्तराखंड क्षेत्र के प्रमुख उद्योग:
- इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग , उत्तराखंड राज्य में लगभग 41,216 लघु उद्योग और लगभग 191 बड़े पैमाने के उद्योग हैं ।
_______________________________________________________________________________
- [ उत्तराखण्ड के प्रमुख लोकनृत्य ] [2 - Uttarakhand ke Pramukh Loknrityan ]
- [ उत्तराखण्ड के प्रमुख त्यौहार ] [ उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला ] [ फूलदेई त्यौहार]
- [ उत्तराखण्ड में सिंचाई और नहर परियोजनाऐं ]
- [ उत्तराखंड की प्रमुख फसलें ]
- [ उत्तराखण्ड की मृदा और कृषि ]
- [ उत्तराखण्ड में उद्यान विकास का इतिहास ]
- [ उत्तराखंड के प्रमुख बुग्याल ] [ 2 उत्तराखंड के प्रमुख बुग्याल ]
- [ उत्तराखंड में वनों के प्रकार ]
- [ उत्तराखंड के सभी वन्य जीव अभ्यारण्य ]
- [ उत्तराखंड की प्रमुख वनौषिधियां या जड़ी -बूटियां ]
- उत्तराखंड के सभी राष्ट्रीय उद्यान
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
0 टिप्पणियाँ