म्यर पहाड़ "पहाड़ी कविता" (myer pahad "pahadi kavita")
अगर मेरा गांव मेरा देश हो सकता है तो म्यर पहाड़
जहाँ पेड़ पौधे भी धरती का धन्यवाद करती हैं
क्यों नही? म्यर पहाड़ यानि मेरा पहाड़ लेकिन ऐसा कहने
से ये सिर्फ मेरा होकर नही रह जाता ये तो सब का है वैसे
ही जैसे मेरा भारत हर भारतवासी का भारत। खैर पहाड़
को आज दो अलग अलग दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं,
एक कल्पना के लोक में और दूसरा सच्चाई के धरातल में।
जिनकी नई-नई शादियां होती हैं हनीमून के लिये उनमें
ज्यादातर की पहली या दूसरी पसंद होती है कोई हिल
स्टेशन। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी होती है
उनकी भी पहली या दूसरी पसंद होता है कोई हिल स्टेशन,
अब बूढ़े हो चले हैं धर्म कर्म करने मन हो चला है तो भी याद
आता है म्यार पहाड़ चार धाम की यात्रा के लिये।
पहाड़ की खूबसूरती होती ही ऐसी है
कि किसी को भी बरबस अपनी तरफ आकर्षित कर ले,
वो ऊंची ऊंची पहाड़ियाँ, सर्दियों में बर्फ से
ढकी वादियाँ, पहाड़ों को चुमने को बेताब दिखते बादल,
मदमस्त किसी अलहड़ सी भागती पहाड़ी नदियां, सांप
की तरह भागती हुई दिखायी देती सड़कें, कहीं दिखायी देते
वो सीढ़ीनुमा खेत तो कहीं दिल
को दहला देनी वाली घाटियां, जाड़ों की गुनगुनी धूप और
गर्मियों की शीतलता। शायद यही सब है
जो लोगों को अपनी और खिंचता है, बरबस उन्हें आकर्षित
करता है अपने तरफ आने को।
लेकिन पहाड़ में रहने वाले के लिये, एक पहाड़ी के लिये ये
शायद रोज की ही बात हो उसका जुड़ाव पहाड़ से तो कुछ
जुदा ही है। ये जुड़ाव मुखर हो उठता है पहाड़ से जुदा होते
ही नराई के बहाने, बकौल काकेश -
मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक
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नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये
ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक
बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है
ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर
बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने
का निठल्ला चिंतन। ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है
ना ही मेरा सौन्दर्यबोध, मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल
है ,मिट्टी की सौंधी महक है , ‘ हिसालू ’ के टूटे मनके है ,
‘ काफल ’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट
पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट
जंगली फल हैं , ‘ भट ’ की ‘ चुणकाणी ’ है , ‘घौत’ की दाल
है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको
बारामासा ’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात
है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है ,
‘ पालक का कापा ’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है।
मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-
नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और
देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में
फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित
और संवेदनशील व्यक्ति की तरह
भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह
को ढाल बनाकर लड़ रहा है. लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ
पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक
की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर
अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-
मारखां समझने लगता है।
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