नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा
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नंदा देवी मंदिर - Nanda Devi Tempil |
समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।
कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।
नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।
अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।
अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।
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नंदा देवी |
पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।
षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।
मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।
मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।
नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा FQCs
1. नंदादेवी मेला क्या है?
नंदादेवी मेला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में विशेष रूप से अल्मोड़ा में मनाया जाने वाला एक प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व है। यह मेला देवी नंदा के सम्मान में भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को आयोजित किया जाता है।
2. नंदादेवी मेला कब और कहां आयोजित होता है?
यह मेला हर वर्ष भाद्र मास की शुक्ल अष्टमी को अल्मोड़ा नगर के ऐतिहासिक नंदादेवी मंदिर में आयोजित होता है।
3. नंदादेवी का धार्मिक महत्व क्या है?
नंदादेवी को हिमालय की पुत्री माना जाता है और उन्हें पूरे उत्तराखंड में बहन-बेटी के रूप में पूजा जाता है। उनके नाम पर पर्वत, नदियाँ और कई स्थल जैसे नंदाकिनी, नंदादेवी पर्वत, और नंदप्रयाग हैं।
4. नंदादेवी मेला कितने दिनों तक चलता है?
मेले की अवधि आमतौर पर तीन दिन या उससे अधिक होती है। पंचमी तिथि से यह मेला शुरू होकर अष्टमी तिथि तक चलता है।
5. मेले के दौरान क्या विशेष गतिविधियाँ होती हैं?
- देवी नंदा और सुनंदा की कदली (केले के वृक्ष) से निर्मित भव्य प्रतिमाओं का निर्माण।
- परंपरागत पूजा, जागर गायन, और बलिदान।
- देवी प्रतिमाओं का नगर भ्रमण (डोला यात्रा)।
- झोड़ा, छपेली और छोलिया जैसे पारंपरिक नृत्य।
- लोक गाथाओं का गायन और बैरियों द्वारा प्रश्नोत्तर गायकी।
6. नंदादेवी की प्रतिमाएँ कैसे बनाई जाती हैं?
प्रतिमाएँ विशेष कदली स्तंभों (केले के पेड़) से बनाई जाती हैं। षष्ठी तिथि को विशिष्ट पूजा विधि से स्तंभ चुने जाते हैं और सप्तमी की रात्रि को इनसे देवी प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है।
7. नंदादेवी मेला का इतिहास क्या है?
इस मेले का इतिहास चंद राजाओं से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (1638-78) देवी नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से अल्मोड़ा लाए थे।
8. नंदादेवी मेला क्यों खास है?
नंदादेवी मेला धार्मिक आस्था के साथ-साथ कुमाऊं की समृद्ध लोक संस्कृति, नृत्य और संगीत का जीवंत उत्सव है। यह मेला कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर को समझने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
9. मेले में प्रमुख आकर्षण क्या हैं?
- नंदादेवी और सुनंदा देवी की मूर्तियाँ।
- लोक नृत्य: झोड़ा, छपेली, छोलिया।
- लोक गायन: जागर गाथा और बैरियों की पारंपरिक प्रश्नोत्तर गायकी।
- डोला यात्रा और देवी प्रतिमाओं का विसर्जन।
- स्थानीय हस्तशिल्प और सरकारी स्टॉल।
10. नंदादेवी मेला के दौरान बलिदान की प्रक्रिया क्या है?
अष्टमी तिथि को चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा परंपरागत बलिदान किया जाता है। इस दिन भैंसे की बलि भी दी जाती है।
11. नंदादेवी मंदिर का इतिहास क्या है?
नंदादेवी मंदिर का निर्माण चंद वंश के काल में हुआ था। यह मंदिर अल्मोड़ा नगर के मध्य स्थित है और इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता अत्यंत विशेष है।
12. जागर क्या होता है और इसका क्या महत्व है?
जागर एक पारंपरिक लोक गायन है, जिसमें गायक देवी-देवताओं की गाथा लयबद्ध तरीके से गाते हैं। नंदादेवी मेले में यह गाथा विशेष रूप से देवी नंदा के सम्मान में गाई जाती है।
13. डोला यात्रा क्या है?
मेले के अंतिम दिन देवी नंदा और सुनंदा की प्रतिमाओं को भव्य जुलूस (डोला) के रूप में नगर भ्रमण कराया जाता है। अंत में प्रतिमाओं का विसर्जन नगर के समीप स्थित एक कुंड में किया जाता है।
14. मेले में कौन-कौन से लोक कलाकार भाग लेते हैं?
मेले में कुमाऊं के पारंपरिक गायक, नर्तक और बैरी भाग लेते हैं। लोक गाथाओं को गाने वाले ‘जगरिये’ भी इस अवसर पर विशेष प्रदर्शन करते हैं।
15. नंदादेवी मेला देखने के लिए अल्मोड़ा कैसे पहुँचा जा सकता है?
अल्मोड़ा उत्तराखंड का प्रमुख शहर है, जो सड़क मार्ग द्वारा प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है और निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर है।
16. क्या नंदादेवी मेला के दौरान स्थानीय उत्पादों की प्रदर्शनी लगती है?
हाँ, मेले में अब सरकारी और स्थानीय उत्पादों के स्टॉल भी लगाए जाते हैं, जहाँ हस्तशिल्प और अन्य वस्तुएँ प्रदर्शित की जाती हैं।
17. नंदादेवी मेला में कौन से नृत्य प्रमुख हैं?
झोड़ा, छपेली और छोलिया नृत्य इस मेले के प्रमुख आकर्षण हैं।
18. क्या नंदादेवी मेला में तांत्रिक पूजा होती है?
कुछ विद्वान मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण तंत्र विधियों से संबंधित है, जिसमें शक्ति पूजा के विशेष अनुष्ठान होते हैं।
19. नंदादेवी पर्वत का क्या धार्मिक महत्व है?
नंदादेवी पर्वत को देवी नंदा का निवास स्थान माना जाता है। स्कंद पुराण में इसे विशेष रूप से उल्लेखित किया गया है।
20. नंदादेवी मेला का सांस्कृतिक महत्व क्या है?
नंदादेवी मेला कुमाऊं की लोक संस्कृति, धार्मिक आस्था और परंपराओं का एक अभिन्न हिस्सा है। यह कुमाऊं क्षेत्र के लोगों के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का प्रमुख अवसर भी है।
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