उत्तराखण्ड के प्रमुख त्यौहार | Uttrakhand ke Pramukh Tyohaar

उत्तराखण्ड के प्रमुख त्यौहार | Uttrakhand ke Pramukh Tyohaar


मानव का स्वभाव सदैव आनंदमयी तथा उत्सव प्रेमी होता है। वह जीवन में सदा सुख-समृद्धि, मान-सम्मान एवं प्रगति की कामना करता है और इन्हें प्राप्त करने हेतु निरन्तर प्रयासरत भी रहता है। यह प्रयास वास्तव में जीवन पर्यन्त चलने वाली एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मानव को अनेक संघर्षों, समस्याओं तथा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस दौरान उसे अपने जीवन काल में कई बार असफलता, निराशा, हताशा एवं थकान का अनुभव भी होता है। ऐसी परिस्थितियों में मानव के जीवन में त्यौहार, मेले, नृत्य, गीत-संगीत, विविध ललित कला आदि महती भूमिका का निर्वाह करते हुए हमारे जीवन को उमंग एवं हर्षोल्लास से भर देते हैं। इनके माध्यम से ही हमारे जीवन में एक नई ऊर्जा और चेतना का संचार होता है। यह मानव के आनन्दमयी स्वभाव को पोषण प्रदान करते हैं। यह तत्व मानव के सांस्कृतिक पक्ष का भी सृजन करते हैं। यदि उत्तराखण्ड राज्य के परिप्रेक्ष्य में चर्चा करें, तो यह देवभूमि सांस्कृतिक रूप से उन्नत दिखायी देती है। सांस्कृतिक प्रगति के संदर्भ में यह क्षेत्र एक विशिष्ट पहचान रखता है। यहाँ स्थानीय त्यौहार, मेले, नृत्य, गीत-संगीत, तथा विविध कला समाज की स्थानीय भाषाओं, मान्यताओं, खान-पान, मनोरंजन, पर्यावरण आदि को दर्शाते हैं और यहाँ के लोगों की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उत्तराखण्ड राज्य भी इसका अपवाद नहीं है। यह देवभूमि अपने विभिन्न तीज-त्यौहारों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ प्रमुख राष्ट्रीय त्यौहारों के साथ-साथ अनेक स्थानीय तथा क्षेत्रीय त्यौहार भी मनाये जाते हैं। 

उत्तराखण्ड के प्रमुख त्यौहार 

फूलदेई त्यौहार


उत्तराखण्ड की धरती पर ऋतुओं के अनुसार कई पर्व मनाये जाते हैं। इन्हीं त्यौहारों में से एक पर्व फूलदेई उत्तराखण्ड का एक प्रसिद्ध लोक पर्व है। इस त्यौहार को फुलफुलमाई, फूल संक्रांति, फूल सगरांद, फूलकण्डी, फूलदेई भी कहा जाता है।

यह त्यौहार चैत्र मास की संक्रांति में मनाया जाता है तथा इसी के साथ हिन्दु पंचाग के अनुसार नववर्ष का आगमन होता है। अत: उत्तराखण्ड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात् पहले दिन से ही बसंत ऋतु के आगमन की प्रसन्नता एवं स्वागत में फूलों का त्यौहार 'फूलदेई' मनाया जाता है।

इस त्यौहार का सम्बंध प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से है। चैत्र माह में चारों ओर हरियाली छायी हुई होती है। नये फूल खिलने लगते हैं। चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण होता है। इस प्रसन्नता की अभिव्यक्ति फूलदेई पर्व के रूप में होती है।

इस त्यौहार के अवसर पर छोटे बच्चे फ्यूंली, बुरांश, कचनार आदि के फूल एकत्रित कर उन्हें सबके घरों की दहलीज में जाकर डालते हैं और गीत गाते हैं। घर के बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चों को चावल और गुड़ दिया जाता है। बच्चे निम्न गीत गाते हैं-

फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली से बारंबार नमस्कार, पूजें द्वार बारंबार, फूले द्वार (आपकी दहलीज फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली हो, घर एवं समय सफल रहे, भण्डार भरे रहें। इस त्यौहार की धार्मिक मान्यता भी है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान शिव तथा माँ पार्वती का मिलन हुआ था। यह माह औजी जाति के लिए भी महत्वपूर्ण होता है।

चैत्र माह के समय औजी जाति के लोग अपने यजमानों के घर जाकर चैत गीत गाते हैं और ढोल-दमाऊं का वादन करते हैं। बदले में वे अपने यजमानों से दान-दक्षिणा, वस्त्र-आभूषण तथा अनाज प्राप्त करते हैं। औजी जाति के लोग अपने यजमानों की ब्याही कन्याओं के ससुराल जाकर मायके का संदेश पहुंचाते हैं।कुमाऊँ एवं गढ़वाल के अधिकांश स्थानों में यह त्यौहार मनाया जाता है, जबकि टिहरी के कुछ क्षेत्रों में यह एक माह तक मनाया जाता है। त्यौहार के अंतिम दिन सारा चावल, गुड़, घी आदि इकट्ठा कर उसका प्रसाद बनाया जाता है और घोघा माता को भोग लगाया जाता है।

मरोज पर्व - 

यह पर्व उत्तरकाशी जनपद की रूपिन घाटी में मनाया जाता है। यहाँ प्रत्येक वर्ष जनवरी माह में मरोज पर्व का आयोजन किया जाता है। इस पर्व में विभिन्न प्रकार के स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। इन पकवानों के अतिरिक्त भोजन में मांस भी तैयार किया जाता है। रासो तथा तांदि नृत्य भी इस पर्व का एक महत्वपूर्ण अंग है।

वास्तव में मरोज पर्व जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, उत्साह एवं उमंग का पर्व है। पूर्व में इस क्षेत्र में भारी हिमपात होता था। हिमपात के कारण कृषि कार्य नहीं हो पाता था। अतः लोगो का व्यवसाय पशुपालन या मुख्य रूप से भेड़-बकरी पालन था। यहाँ के लोग ग्यारह माह तक कार्य करते थे और जनवरी माह में अपने कार्य से निवृत होकर मरोज पर्व मनाते थे।

मरोज महोत्सव देहरादून के जौनसार बावर में माघ के पूरे महिने में मानाया जाने वाला उत्सव है। यह जौनसार, जौनपुर, रवाई घाटी का एक लोकप्रिय लोक उत्सव है। इस उत्सव में प्रत्येक गांव के पंचायती आंगन या किसी नियत स्थान पर एकत्र होकर लोक वा‌यों की धुन पर पारम्परिक लोकनृत्यों जैसे हारूल, तांदी, झेंता, जंगबाजी आदि का दौर चलता है। यह त्यौहार अपनी मेहमान नवाजी के लिए विख्यात है। इस त्यौहार के लिए विशेषतौर पर लोग अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को आमंत्रण देते हैं। दूरदराज गांवों में अपनी विवाहित बेटियों को यहां से प्रसाद भी उनके घर पहुंचाया जाता है।
इसका धार्मिक महत्व भी माना जाता है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जौनसार बावर क्षेत्र में तमसा नदी के पास एक किरमिर राक्षस का आतंक था। जिसके लिए प्रतिदिन उस क्षेत्र से एक ग्रामीण को उसके भोजन के लिए अपनी जान देनी पड़ती थी। तब वहां एक ब्राह्मह्मण जिसका नाम हुणाभाट था ने तपस्या करके महासू देवता को कुल्लू से हनोल लाए। महासू देवता के आदेश पर उनके सेनापति कयलू माहाराज ने किरमिर राक्षस का वध किया। राक्षस के वध की खबर से पूरे क्षेत्र में महीने भर तक वहां के लोगों ने जश्न मानाया। तभी से यह पर्व मनाया जाता है।
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इगास पर्व

यह गढ़वाल का त्यौहार है। पौराणिक मान्यता के अनुसार जब भगवान राम रावण का वध करके घर पहुंचे तो, इसकी सूचना ग्यारह दिन बाद उत्तराखण्ड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में पहुंची। इसलिए यहाँ के लोग दीपावली के ग्यारह दिन बाद इगास का पर्व मनाते हैं।
भैलो खेलने का रिवाज 


यह व्रत तथा देवपूजन का अवसर होता है। इस दिन रात्रि में भैलों नृत्य भी किया जाता है। इस त्यौहार का सम्बंध वीर भड़ माधोसिंह भण्डारी से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि जब माधो सिंह भण्डारी तिब्बत के अभियान में गये हुए थे, तब इस कारण दीपावली पर्व का आयोजन नहीं किया गया था। जब माधो सिंह विजयश्री का वरण कर गढ़वाल लौटे, तो उनकी विजय की खुशी में बड़े धूमधाम से दीपावली पर्व मनाया गया और इसे इगास नाम दिया गया। इगास को बूढ़ी दीपावली भी कहा जाता है।
[ इगास बग्वाल उत्तराखंड की संस्कृति और गौरवशाली इतिहास का पर्व है, यह पर्व आज देव उठनी एकादशी के दिन मनाया जाता है इसे बूढ़ी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है।

इस पर्व को लेकर एक बहुत रोचक और गौरवशाली तथ्य भी छिपा हुआ है दो पंक्तियों में पूरे त्योहार का सार छिपा है। वो लाइनें हैं…बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई। मतलब साफ है। बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई। इगास की पूरी कहानी वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के आसपास ही है। एक मान्यता यह भी है लंका विजय के बाद जब प्रभु श्रीराम दीपावली को अयोध्या लौटे तब पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को 11 दिन बाद यह खबर प्राप्त हुई तब पहाड़ी अंचल में दीपोत्सव मनाया गया था।
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भैलो खेलने का रिवाज :

 इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है. यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है. यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है. इसे दली या छिल्ला कहा जाता है. जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं. इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है. फिर इसे जला कर घुमाते हैं. इसे ही भैला खेलना कहा जाता है. परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं. जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं। ]

गोवर्द्धन पूजा

इस पर्व को कार्तिक मास के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन मनाया जाता है। दीपावली के अगले दिन गोवर्द्धन पूजा की जाती है। इसे अन्नकूट पर्व भी कहा जाता है। इस त्यौहार का सम्बंध प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। इस दिन गोधन की पूजा की जाती है। अत: इस पर्व को पशुओं विशेषत: दुधारू पशुओं से जोड़ा जाता है। इस अवसर पर उनकी पूजा की जाती है। उन्हें नहलाया-धुलाया जाता है एवं उन्हें फूलों की माला आदि पहनायी जाती है और फिर पूजा जाता है।

रणोशा त्यौहार -
डॉ० पंवार तथा डॉ० गैरोला के अनुसार इस त्यौहार को गढ़वाल में गांव की विभिन्न दुःख, बीमारियों तथा समस्याओं से रक्षा हेतु तथा गांव की सुख-समृद्धि के लिए मनाया जाता है। इस अवसर पर गांव के निवासी एक कपड़े में सात प्रकार के अनाज, जिन्हे सतनजा कहा जाता है, को बांधकर उस पोटली को अपने परिवार के सदस्यों तथा पशुओं के सिर पर चारों ओर घुमाते हैं। इसके बाद सभी गांववासी अपने-अपने सतनजा को एक साथ मिला लेते हैं जिसे म्यलाख कहा जाता है। इसके पश्चात एक कण्डी में खिचड़ी, रॉट, दीपक, धूप आदि रखकर गांव के चारों ओर घूमाकर गांव की सीमा के किनारे फेंका जाता है। उसमें रखे हलवा-पूरी को वहीं खाया जाता है। इस त्यौहार को सारा उत्सव कहा जाता है।

जागड़ा उत्सव

इस त्यौहार का आयोजन भाद्र मास में किया जाता है। यह त्यौहार भी जौनसारियों का है। इस त्यौहार के अवसर पर महासू देवता को स्नान कराया जाता है।

मण उत्सव

मण जौनसार-बावर के प्रमुख त्यौहारों में से एक है। इस त्यौहार की प्रमुख विशेषता यह है कि इसे बड़े क्षेत्र में मनाया जाता है। इसमें कई खतें मिलकर भाग लेते हैं। यह त्यौहार चार वर्ष, बारह वर्ष या कई पीढ़ियों के अन्तराल में मनाया जाता है। यह त्यौहार दो भागों में विभाजित है, प्रथम् मछमौण् अर्थात मछली पकड़ना तथा दूसरा जतरिया मौण अर्थात एक भव्य मेले का आयोजन करना।

चैतोल त्यौहार - 

पिथौरागढ़ जनपद में चैत्र मास की अष्टमी को चैतोल त्यौहार का आयोजन किया जाता है। इस पर्व का उद्देश्य अपने कुटुम्ब के कल्याण की कामना करना है। इस दिन यहाँ के स्थानीय देवता देवल समेत की धार्मिक शोभायात्रा के रूप में पूजा की जाती है। देवल समेत देवता की इस क्षेत्र में बड़ी मान्यता है। उन्हें भगवान शिव का अंश माना जाता है। स्थानीय लोग शिव से सम्बंधित कथा व गीत गाकर इस पर्व का आयोजन करते हैं। माना जाता है कि सोर घाटी के 22 गांवों में देवल समेत महाराज की 22 बहनें रहती हैं, जिन्हे वह भिटौली देने भी जाते हैं। 22 गांवों के लोग प्रतिवर्ष चैत्र माह में इस मंदिर में देवल समेत की पूजा करते हैं और उनका डोला निकालते हैं। इस समारोह को चैतोल कहा जाता है।

जुगात त्यौहार

इस त्यौहार का आयोजन चमोली जनपद के मल्ला नागपुर क्षेत्र में किया जाता है। यह त्यौहार माँ नंदा को समर्पित है। यह सर्वविदित है कि माँ नंदा को उत्तराखण्ड के लोग अपनी विवाहित कन्या मानते हैं। उनके विवाह की स्मृति में प्रत्येक वर्ष छोटी नंदाराजजात तथा प्रत्येक बारह वर्षों में बड़ी नंदा राजजात का आयोजन किया जाता है। जुगात त्यौहार के अवसर पर माँ नंदा का आह्वान किया जाता है और इस अवसर पर उत्सव मनाया जाता है।

लोसर त्यौहार

भोटिया बौद्ध पंचांग का प्रयोग करते हैं, जो फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से आरम्भ होता है। इस अवसर पर भोटियों द्वारा प्रसिद्ध 'लोसर' पर्व बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। लोसर के अवसर पर प्रीति-भोज दिये जाते हैं एवं समारोहों का आयोजन किया जाता है। इस पर्व का विस्तृत उल्लेख 'उत्तराखण्ड : आदिम मानव समुदाय एवं जनजातियाँ' नामक अध्याय में किया गया है। इस दौरान कण्डाली पौधे को समाप्त किया जाता है, जिसे बुराई का प्रतीक माना जाता है। इस पर्व का विस्तृत उल्लेख 'उत्तराखण्ड : आदिम मानव समुदाय एवं जनजातियाँ' नामक अध्याय में किया गया है।

नाग पंचमी त्यौहार

नागपंचमी उत्तराखण्ड का एक प्रमुख त्यौहार है। इसे कुमाऊँ में विरूड़पंचमी तथा ऋषि पंचमी भी कहते हैं। कुमाऊँ के अतिरिक्त गढ़वाल के रूद्रप्रयाग, नाकुरी, पंथोली, धौलनार आदि में भी नाग पंचमी मेले का आयोजन किया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण मास की शुक्ल घुट पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनायी जाती है। इस त्यौहार के दिन सभी लोग व्रत रखकर नाग देवता के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन नागों को दूध पिलाने की प्रथा भी प्रचलित है। 
उत्तराखण्ड में विशेष रूप से गढ़वाल में भगवान कृष्ण नागर्जा के रूप में विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त उत्तराखण्ड में प्राचीन नागवंशीय राजाओं की सत्ता भी पायी जाती है। नाग को भगवान शिव के गले में तथा भगवान विष्णु के शयन स्थान के रूप में जाना जाता है। कुल मिलाकर प्राचीन तथा पौराणिक काल से ही नागों का हमारी संस्कृति में विशेष स्थान रहा है। नागों के सम्मान में ही नाग पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है।

बिखौती त्यौहार(विषुवत संक्रांति)

बिखोती  उत्तराखण्ड का प्राचीन त्यौहार है। यह त्यौहार बैशाख माह के प्रथम दिन मनाया जाता है। श्री बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं कि इस अवसर पर बच्चों को तालू लगाने का प्रचलन है। यह उत्तराखण्ड में घरेलू उपचार के रूप में कार्य करता है। ज्यादा रोने वाले अथवा ज्यादा खाने वाले बच्चे ऐसा करने से ठीक हो जाते हैं। इस पर्व के दिन थल, लोहारखेत, द्वाराहाट, स्याल्दै, चौगड़, कर्णप्रयाग, कीर्तिनगर, दनगल, देवलगढ़, व्यासघाट, बिल्बकेदार आदि स्थानों में मेले का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर लोग गाते-बजाते तथा नृत्य करते हुए दिखाई देते हैं। पहले कहीं-कहीं पर बकरों की बलि भी दी जाती थी, परन्तु अब इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया है।

घुघुतिया त्यौहार

कुमाऊं में मकर संक्रांति को क्या कहा जाता है?
 उत्तराखंड के कुमाऊं में मकर संक्रांति पर 'घुघुतिया' पर्व धूमधाम से मनाया जाता है.

घुघुती का त्यौहार क्यों मनाया जाता है?
घुघुति के मिल जाने पर मां ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे। घुघुति ने कौवों को बुलाकर खाना खिलाया। यह बात धीरे-धीरे सारे कुमाऊं में फैल गई और इसने बच्चों के त्योहार का रूप ले लिया। तब से हर साल इस दिन धूमधाम से इस त्योहार को मनाते हैं।

कुमाऊँ में मकर संक्रांति पर घुघुतिया त्यौहार मनाया जाता है। यह कुमाऊँ का एक प्रमुख एवं प्राचीन त्यौहार है। इस त्यौहार को कुमाऊँ पंचांग के अनुसार माघ मास के प्रथम दिन को मकर संक्रांति के अवसर पर मनाया जाता है। यह त्यौहार प्रत्येक वर्ष जनवरी माह में दिनाँक 14 और 15 को मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस त्यौहार को भिन्न-भिन्न रूप में पूरे भारत वर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में 13 जनवरी को मनाया जाता है। कुमाऊँ के लोग इस अवसर पर आटे को गुड़ तथा घी से गूथकर उससे विभिन्न आकृतियाँ बनाते हैं, जिन्हे 'घुघुत' कहा जाता है। घुघुतों को तेल में तला जाता है एवं ईश्वर को चढ़ाया जाता है। इन घुघुतों से परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए एक माला बनाई जाती है। इस माला में घुघुतों के मध्य एक संतरा भी पिरोया जाता है।

इस त्यौहार की सुबह बच्चे 'काले कौवा काले घुघुति माला खाले' जैसी पंक्तियाँ गाकर कौवे को बुलाते हैं। कौवों द्वारा इन घुघुतों को खाना शुभ माना जाता है। उल्लेखनीय है कि मकर संक्राति के अवसर पर ही विभिन्न स्थानों पर उत्तरायणी मेले का आयोजन किया जाता है, किंतु बागेश्वर के उत्तरायणी मेले की अपनी एक प्रमुख विशेषता है। इस त्यौहार के अवसर पर ही सन् 1921 में सरयू नदी के तट पर बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा का अंत किया गया था।

हरेला

हरेला कुमाऊँ का एक प्रसिद्ध त्यौहार है। यह त्यौहार श्रावण मास की संक्रांति को प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। त्यौहार के 10 दिन पहले किसी डलिया या छोटे पात्र में सात अनाजों, यथा धान, मक्का, जौ, भट्ट आदि को बोया जाता है। इस डलिया को अंधेरे में रखा जाता है। कुछ दिन बाद उसकी निराई, गुड़ाई की जाती है। इस फसल को हरेला कहा जाता है। अंधेरे में रखने के कारण इस फसल का रंग पीला हो जाता है। हरेला जितना अधिक पीला एवं घना उत्पन्न हो, उतना ही अच्छा माना जाता है। हरेले को त्यौहार के दिन काटा जाता है। कुमाऊँ में बड़े बुजुर्गों द्वारा परिवार के लोगों को हरेला चढ़ाया जाता हैं। बड़े बुजुर्गों द्वारा हरेला चढ़ाये जाते समय एक गीत गाया जाता है-"जी राया जाग राया, यौं दिन मास भेटने राया"।

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दुबडी त्यौहार -टिहरी गढ़वाल

इस त्यौहार को टिहरी जनपद के नैनबाग ब्लॉक में मनाया जाता है। इसे अच्छी फसल की कामना हेतु मनाया जाता है। यह एक अनोखा त्यौहार है। इस दिन गांव की विवाहित कन्याएं अपने मायके आती हैं और अपने भाई के शुभ एवं कल्याण के लिए पूजा करती हैं। इसलिए इस त्यौहार को रक्षाबंधन भी कहा जाता है। स्थानीय लोगों के अनुसार भाद्रपद के शुक्ल पक्ष में जिस गांव में बालिका का जन्म होता है, उस गांव में यह त्यौहार मनाया जाता है।

श्री गंगा दशहरा

यह त्यौहार हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ मास की दशमी (मई/जून) को मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन अर्थात ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन माँ गंगा भगवान गंगाधर के केशों से मुक्त होकर धरती पर अवतरित हुई थी। इस दिन स्नान का बड़ा महत्व होता है। स्कन्दपुराण के अनुसार गंगा दशहरे के दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी में स्नान अवश्य करना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव न हो, तो माँ का मात्र स्मरण कर लेने से ही पुण्य लाभ कमाया जा सकता है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से व्यक्ति दस प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।

गंगा दशहरा में गंगा नदी की पूजा की जाती है और दशहरा के पोस्टर घरों और मंदिरों के प्रवेश द्वार में चिपकाये जाते हैं। इन पोस्टरों में देवी-देवताओं के चित्र होते हैं। इन पोस्टरों को लगाना शुभ माना जाता है। माना जाता है कि इससे परिवार की अनिष्ट से रक्षा होती है तथा परिवार का कल्याण होता है। यह पोस्टर ब्राह्मण द्वारा गांव के प्रत्येक परिवार में दिये जाते हैं तथा बदले में यजमान लोग ब्राह्मण को दान-दक्षिणा आदि देते हैं।

घी या घृत संक्रांति

कुमाऊँ पंचांग के अनुसार प्रत्येक 09 गते भाद्रपद की संक्रांति को घी संक्रांति का त्यौहार मनाया जाता है। भाद्रपद संक्रांति को सिंह संक्रांति भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है। कुमाऊँ में इस त्यौहार के दिन परिवार के सदस्यों के सिर में घी लगाया जाता है। इसलिए इसे घ्यूं त्यार (घी का त्यौहार) कहा जाता है। इस अवसर पर उड़द की दाल तथा घी का सेवन मुख्यतः किया जाता है। इसका एक नाम ओलगिया भी है, जो चंदों की ओलग प्रथा से उत्पन्न हुआ है। हम अध्ययन कर चुके हैं कि इस दिन कुमाऊँ की प्रजा चंद शासकों को भेट आदि देती थी।

रामलीला

सम्पूर्ण भारत की भांति उत्तराखण्ड के प्रायः सभी स्थानों में रामलीला का आयोजन किया जाता है। इस दौरान भगवान राम के मर्यादित एवं अनुकरणीय जीवन वृतांत का सचित्र वर्णन किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में दशहरे के दिन इसका आयोजन तथा कभी खरीफ की फसल कटने के उपरांत होता है। उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा जनपद की रामलीला को उत्तराखण्ड की सबसे प्रसिद्ध तथा प्राचीन रामलीला माना जाता है। यह रामलीला मूलत: अल्मोड़ा शैली की रामलीला मानी जाती है।

होली

बसंत ऋतु में मनाये जाने वाला होली त्यौहार बसंत ऋतु का संदेशवाहक भी है। समस्त उत्तराखण्ड में फाल्गुन की पूर्णिमा में होली के त्यौहार को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। फाल्गुन माह में मनाये जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहा जाता है। यह त्यौहार दो दिन तक मनाया जाता है। प्रथम दिन होलिका दहन किया जाता है। दूसरे दिन रंग खेला जाता है। पहले बांस की पिचकारी का प्रयोग किया जाता था, जिनका स्थान वर्तमान में आधुनिक पिचकारियों ने ले लिया है। इस दिन को धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन भी कहा जाता है। इस अवसर पर लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और पकवान का आनंद लेते हैं।

 इस दिन गुझियां विशेष रूप से बनाई जाती हैं। बहुत से लोग भांग का पेय तथा पकौड़े भी बनाते हैं। होली के गीत प्रत्येक घर के आंगन में गाये जाते हैं। कुमाऊँ के प्रसिद्ध वाद्य यंत्र 'ढोल, दमाऊ, तथा नगाड़ों' के साथ होली गीतों का गायन किया जाता है। सांझ होते ही गाँव के नवयुवकों तथा बुजुर्गों द्वारा होली के गीतों का गायन किया जाता है और बुजुर्गों द्वारा नवयुवकों को होली गीतों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। वर्तमान समय में मदिरा के प्रचलन के कारण इस त्यौहार का यथार्थ स्वरूप विकृत हो रहा है।

खतड़वा त्यौहार

कुमाऊँ में प्रसिद्ध खतड़वा त्यौहार को कुमाऊँ पंचांग के अनुसार अश्विन मास की संक्रांति को मनाया जाता है। यह एक ऐतिहासिक महत्व का त्यौहार है। हम चंद इतिहास में अध्ययन कर चुके हैं कि चंद शासक लक्ष्मी चन्द ने गढ़वाल पर सात आक्रमण किये थे, किन्तु पंवार शासक मानशाह ने हर बार लक्ष्मी चंद को पराजित कर दिया था। चन्दों को पंवारों के विरूद्ध आठवें आक्रमण में कुछ सफलता प्राप्त हुई थी। चंदों के आठवें आक्रमण का नेतृत्व सेनापति गैण्डा सिंह ने किया था। गैण्डा सिंह ने पंवार सेनापति खतड़ सिंह को पराजित कर दिया था और इस विजय की सूचना घास के ढेरों को जलाकर अल्मोड़ा पहुंचायी गई थी। अल्मोड़ा में विजय के इस अवसर को एक पर्व के रूप में मनाया गया, जिसे "खतड़वा पर्व" कहा जाता है। खतड़वा पर्व में खतड़ सिंह का घास का पुतला बनाकर उसका दहन किया जाता है। खतड़वा पर्थ के दौरान लोग यह गीत गाते हैं-

भैल्लो जी भैल्लो खतड़वा, गैण्डा की जीत, खतड़ की हार गैण्डा पड़ो श्योल, खतड़ पड़ो भ्योल ।

इस दिन सायंकाल में खतड़ सिंह का पुतला दहन किया जाता है। दहन स्थल पर सभी लोगों द्वारा अखरोट, खीरा आदि लाकर लोगों में वितरित किया जाता है। खतड़वा पर्व को गाय का त्यौहार भी कहते हैं। सम्भवतः इसका कारण यह है कि चन्दों का प्रतीक चिन्ह गाय थी। खतड़वा पर्व के साथ एक परम्परा यह भी जुड़ गई कि इस त्यौहार से लोगों के पशु विशेषकर दुधारू पशु स्वस्थ्य रहते हैं। ऐसी लोकप्रचलित मान्यता है कि खतुड़वा के नष्ट होते ही पशु अनिष्ट भी नष्ट हो जाते हैं। राज्य के गठन के पश्चात् इस त्यौहार का आयोजन लगभग समाप्त हो गया है।

बैसी

कुमाऊँ में श्रावण तथा पौष मास को धार्मिक माह माना जाता है। श्रावण तथा पौष मास में उत्तराखण्ड के देवी-देवताओं की निरन्तर 22 दिनों तक मंदिर में रहकर पूजा की जाती है। इस पर्व में सभी डंगरिये (अवतरित देवता) 22 दिनों तक मंदिर में रहकर एक समय का भोजन करते हैं तथा प्रात: एवं सायं काल में स्नान करते हैं। पूरे 21 दिन तक मंदिर परिसर में जागरों का आयोजन किया जाता है और 22वें दिन पूरे विधि विधान के साथ पूजा-अर्चना की जाती है। 22 दिनों तक पूजा होने के कारण इसे 'बैसी' नाम दिया गया है।

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन का त्यौहार हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय त्यौहार है। यह त्यौहार सम्पूर्ण देश के कई क्षेत्रों में श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण मास में मनाये जाने के कारण इसे सावनी या सलूनो भी कहा जाता है।। स्थानीय भाषा में इसे जन्मो-पुण्यो भी कहा जाता है। रक्षाबंधन भाई-बहन के पवित्र सम्बंध के लिए मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई में राखी बाँधकर उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है और भाई अपनी बहन की सदैव रक्षा करने का वचन देता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रक्षाबंधन का सम्बंध राजा इन्द्र तथा असुरराज बलि से जोड़ा जाता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र की कलाई में बांधते हुए निम्नलिखित मंत्रोच्चारण किया था- येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल । तेन त्वामपित बध्नामि रक्षे मा चल मा चल। अर्थात्, "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बांधती हूँ। हे रक्षे (राखी) ! तुम अडिग रहना"।

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भिटौली

उत्तराखण्ड के इस त्यौहार को हिंदु पंचांग के अनुसार चैत्र मास में मनाया जाता है। भिटौली का शाब्दिक अर्थ है, भेंट या मुलाकात करना। उत्तराखण्ड में चैत के माह में विवाहित लड़की के माता-पिता या बड़ा भाई फल-फूल, मिठाई, व्यंजन तथा वस्त्र को देने लड़की के ससुराल जाते हैं। इसी के बहाने दोनों के एक-दूसरे की कुशलक्षेम भी मिल जाती है। लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो, उसे भिटौली की अत्यंत प्रतिक्षा रहती है। प्रथम भिटौली बैशाख माह में और उसके पश्चात प्रत्येक वर्ष चैत माह में दी जाती है। पहाड़ों में चैत माह में घुघती नामक पक्षी बोलने लगता है, जिससे चैत के माह का ज्ञान होता है। इस सम्बंध में लोक गीत भी प्रसिद्ध है-
न बासा घुघती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की'
यह त्यौहार इस मान्यता पर आधारित है कि पुत्री का उसके माता-पिता से सम्बंध विवाह के पश्चात भी अटूट रहता है और पुत्री भी माता-पिता के लिए उतनी ही अधिक प्रिय एवं निकट होती है, जितना कि पुत्र। इस त्यौहार में माता-पिता द्वारा अपनी विवाहित कन्या को प्रेम स्वरूप उपहार दिये जाते हैं। इन उपहारों को 'भिटौली' की संज्ञा दी गई है। विवाहित कन्याएं इस माह की बड़ी तत्परता से प्रतीक्षा करती है।

दीपावली

सम्पूर्ण भारत वर्ष में दीपावली को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। आज यह त्यौहार एक वैश्विक रूप ग्रहण कर रहा है। यह त्यौहार असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है। गढ़वाल में इसे बग्वाल तथा कुमाऊँ में बग्वाई कहा जाता है। दीपावली कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनायी जाती है। यह सर्वविदित है कि दीपावली से पहले घरों की साफ-सफाई की जाती है। इसके पश्चात् महालक्ष्मी पूजन की रात्रि दीप जलाकर पूरे क्षेत्र में दीपावली का प्रकाशोत्सव मनाया जाता है। इस दिन महालक्ष्मी, जिन्हें धन की देवी के रूप में भी माना जाता है, की पूजा विशेष रूप से की जाती है। इस त्यौहार को सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

इस अवसर पर गढ़वाल के अनेक स्थलों में रात्रि को भैला खेला जाता है। दिन में युवक भैला के निर्माण में जुट जाते हैं। भैला वास्तव में एक मशाल होती है। इसका निर्माण चीड़ की सूखी लकड़ी, कपड़ा, भूसा आदि की सहायता से किया जाता है। रात्रि में भैला की सहायता से विभिन्न करतब किये जाते हैं।

विजयादशमी या दशहरा या दशाई

उत्तराखण्ड में विजयादशमी के त्यौहार को बड़े धूम- धाम से मनाया जाता है। अश्विन (क्वार) माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को इसका आयोजन किया जाता है। यह एक पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन भगवान राम ने रावण का वध किया था और इसी दिन दुर्गा माता ने नौ रात्रि एवं दस दिनों तक युद्ध के पश्चात महिषासुर का वध किया था। इस दिन को सत्य की असत्य पर विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसलिए इसे विजयादशमी कहा जाता है।

गढ़वाल तथा कुमाऊँ के राजा (पंवार तथा चंद) इस दिन अपने अस्त्र-शस्त्र, छत्र तथा मुकुट आदि की पूजा करते थे। नवरात्रि के व्रत की समाप्ति के पश्चात दसवें दिन दशहरा पर्व मनाया जाता है। नवरात्रि के प्रथम दिन हरियाली बोयी जाती है और दशहरे के दिन देवताओं को हरेला चढ़ाकर स्वयं को चढ़ाया जाता है। इस दौरान रामलीला का मंचन भी किया जाता है। रामलीला के दसवें दिन विजयादशमी को रावण का पुतला दहन किया जाता है। इस अवसर पर गाँवों तथा नगरों में मेले जैसा वातावरण रहता है।

गणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार भारत के विभिन्न भागों में मनाया जाता है। इस त्यौहार को कुमाऊँ तथा गढ़वाल में भी बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार मुख्यतः भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस दिन लोग व्रत रखकर भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करते हैं तथा कई धार्मिक स्थानों पर भगवान गणेश की प्रतिमाएँ भी स्थापित की जाती हैं। माना जाता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण को चन्द्रमा दर्शन करने से कलंक लगा था, इसलिए इस दिन चन्द्र दर्शन करना वर्जित माना जाता है।

शिवरात्रि

यह उत्तराखण्ड का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत का एक लोकप्रिय पर्व है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस सम्बंध में माना जाता है कि इस दिन ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति हुई थी। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन ही महादेव के अग्निलिंग से सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति हुई थी और इसी दिन माँ पार्वती तथा भगवान शिव का विवाह हुआ था। इस अवसर पर व्रत रखे जाते हैं। कंद-मूल फलों का सेवन किया जाता है। शिवमंदिरों में लोगों की बड़ी संख्या में जल चढ़ाने तथा दर्शन के लिए भीड़ उमड़ती है। कई स्थानों पर मेले एवं भण्डारों का आयोजन भी किया जाता है।

कृष्ण जन्माष्टमी

इस राष्ट्रीय पर्व का आयोजन प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष के आठवें दिन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। भगवान कृष्ण भगवान विष्णु के सबसे लोकप्रिय अवतारों में से एक हैं। उनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण तथा जीवन संघर्ष मानव जाति के लिए सदैव अनुकरणीय रहेगा। इस पर्व के अवसर पर व्रत रखे जाते हैं। मंदिरों के दर्शन करना, भगवान कृष्ण की लीलाओं का गायन तथा नृत्य आदि के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। कई स्थानों पर मेलों का भी आयोजन किया जाता है।
दूर्वाष्टमी व्रत
भाद्र शुक्ल अष्टमी को यह व्रत किया जाता है। इस व्रत को महिलाएँ अपने परिवार की समृद्धि और संतान प्राप्ति के लिए करती हैं। यह व्रत अगस्त-सितम्बर माह में मनाया जाता है। श्री पाण्डे के अनुसार इस दिन महिलाएं सोने, चाँदी व रेशम का दुर्वा बनाकर पूजा-प्रतिष्ठा कर उसे धारण करती हैं। इस दिन अग्नि में कोई भी पकवान नहीं बनाये जाते हैं।
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