गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरूप (History and nature of Garhwali folk literature)

गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरूप

 (History and nature of Garhwali folk literature)

गढ़वाली लोक साहित्य का परिचय

  1. गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप
  2. गढ़वाली लोक गीत : स्वरुप एवं साहित्य 
  3. गढ़वाली लोक गाथाएं : स्वरुप एवं साहित्य
  4. गढ़वाली लोक कथाएं : स्वरुप एवं साहित्य
  5. गढ़वाली लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तियां
  6. गढ़वाली लोक साहित्य का वर्तमान स्वरूप एवं समस्याएं

कुमाउनी लोकसाहित्य का परिचय

  1. कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप
  2. कुमाउनी लोक गीत : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य
  3. कुमाउनी लोक कथाएं : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य
  4. कुमाउनी लोक कथाएं : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य
  5. कुमाउनी लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तिया

गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप 

  1. प्रस्तावना
  2. उद्देश्य
  3. गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरूप
  • गढ़वाली और गढ़वाली लोक मानस
  • गढ़वाली लोक साहित्य के संरक्षक
  • गढ़वाली लोक साहित्य का क्रमिक विकास
  • गढ़वाली लोक साहित्य का वर्गीकरण
  • गढ़वाली लोक साहित्य की भाषा
  • गढ़वाली का काव्यात्मक (गेय) लोक साहित्य
  • गढ़वाली का नाट्य साहित्य 
  4.  लोकवार्ता के रूप में प्राप्त साहित्य
  5. सारांश
  6. अभ्यास प्रश्न
  7. पारिभाषिक शब्दावली
  8. अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
  9. संदर्भ ग्रंथ सूची
 10. सहायक उपयोगी पाठ्य सामग्री
  11. निबन्धात्मक प्रश्न

1. प्रस्तावन

लोक का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है उसके प्रभामंडल की परिसीमा में उसकी संस्कृति, कलाएं, विश्वास, भाषा और इतिहास-धर्म सब कुछ आ जाता है । इन्हें लोक से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। डॉ0 गोविन्द चातक के अनुसार, 'लोक मानस की उद्भावना में इसके साथ ही सामूहिक जीवन-पद्धति का बड़ा हाथ होता है।' उसमें यथार्थ और कल्पना में भेद करने की प्रवृत्ति पर बल नहीं होता, इसलिए जड़-चेतन की समान अवधारणा पर उसका विश्वास बना रहता है। लोक साहित्य में यही लोक मानस बोलता है । मोहनलाल बाबुलकर 'गढ़वाली लोक साहित्य की प्रस्तावना' पुस्तक की भूमिका में इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि, "साधारण जनता जिन शब्दों में गाती है, रोती है, हँसती है और खेलती है । इन सबको लोक साहित्य के अन्तर्गत रखा जा सकता है । वे लोक साहित्य की प्राचीनता के विषय में उल्लेख करते हैं कि, 'ऋग्वेद में अनेक लोक कथाएं उपलब्ध हैं। शतपथ ब्राहमण और एतरेय ब्राह्मण में ऐसी ही गाथाएं प्राप्त होती हैं। भारतीय नाट्य शास्त्र ने भी लोक प्रचलित नाटकों को अपना विवेच्य विषय बनाया है । गुणाढ्य की वृहत्कथा सोम देव के 'कथा सरित सागर' में लोक मानस ही वर्णित है। मध्य युगीन निजंधरी कथाओं में भी मूलरूप से लोक कथाएं ही हैं' । लोकगीतों, लोकनाट्यों, लोककथाओं,लोक गाथाओं यहाँ तक कि लोक भाषाओं में भी लोक,रसा-बसा रहता है। लोक का प्रदेय ही लोक साहित्य है । यही करण है कि लोक को और उसके साहित्य को अलग करके नहीं देखा जा सकता है। निष्कर्षतः लोक का साहित्य ही लोक साहित्य है।
लोक को जानने - पहचानने के लिए साहित्य के इतिहास को जानना भी जरूरी है! क्योंकि लोक जैसे -जैसे आगे बढ़ता है, उसकी संस्कृति विकसित होती चली जाती है और उसका इतिहास भी संस्कृति का अनुगमन करता हुआ आगे बढ़ता रहता है। इस तरह से भाषा का संस्कृति का और लोक व्यवहार का रूप सदैव बदलता रहता है वे निरंतर परिष्कार पाते रहते हैं ।लोक के इन घटकों के साथ-साथ लोक साहित्य भी अनुपद चलता रहता है । और उसके साथ-साथ साहित्य का इतिहास भी सृजित होता रहता है। अतएव 'लोक' को जानने के लिए उसकी परंपराएं, रीतिरिवाज, जातीय विश्वास मिथक, आदि को जानना जरूरी होता है । बिना इन्हें जानें आप लोक को नहीं समझ पाएंगें। लोक को समझने में लोक साहित्य पथ प्रदर्शक का कार्य करता है। अतः लोक साहित्य के स्वरूप को जानना भी हमारे लिए परम आवश्यक हो जाता है । लोक 1. साहित्य के स्वरूप के अन्तर्गत, लोक साहित्य की भाषा, उसकी प्रकृति, सभी गद्य-पद्य नाटक आदि विधाएं ,उसकी सृजन प्रक्रिया भेद-उपभेद, और सौंन्दर्य तत्वों का गम्भीर अध्ययनआवश्यक होता है । अतएव लोक साहित्य के स्वरूप के साथ-साथ उसके क्रमिक वृद्धिंगत इतिहास पर भी आपकी दृष्टि रहनी चाहिए।
2.  उद्देश्य
गढ़वाली लोक साहित्य' अन्य भारतीय प्रदेशों के लोक साहित्य की तरह रोचक और लोक मानस का प्रतिनिधित्व करता है। अतएवं गढ़वाली लोक मानस' के लोक साहित्य के क्रमिक इतिहास को समझना ही इस इकाई लेखन का मुख्य उद्देश्य है। इस का अध्ययन करने से आप गढ़वाली लोक मानस के स्वभाव उनकी प्रवृत्तियों, उनके लोक साहित्य में लोक विश्वासों, मिथकों तथा उनके लोक साहित्य की बनावट व बुनावट के बारे में जान सकेंगे तथा साथ ही आप गढ़वाली लोक साहित्य के उद्भव एवं विकास के क्रमबद्ध इतिहास को भी जान सकेंगे.

3. गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरूप 

गढ़वाली और गढ़वाली लोक मानस
हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार, "बावन गढ़ों के कारण इस प्रदेश का नाम गढ़वाल पड़ा है। लगभग 1500 ई0 में राजा अजयपाल ने इन बावन गढ़ों को जीतकर सबकों अपने राज्य में मिला दिया। तब से इस पूरे पर्वतीय प्रदेश को जिसमें वे बावनगढ़ थे गढ़वाल कहा जाने लगा। एच0जी बाल्टन ने अपनी पुस्तक 'ब्रिटिस गढ़वाल गजेटियर' में बहुत सारे गढ़ों वाला अंचल (गढ़वाल) प्रकारान्तर से कहा है। पातीराम ने अपनी किताब 'गढ़वाल एन्सेन्ट एंड मार्डन' में 'गढ़पाल से गढ़वाल' नाम पड़ा स्वीकार किया है । डॉ0 हरिदत्त भट्ट शैलेश' ने अपनी पुस्तक गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य में लिखा है, 'मेरी मान्यता है कि गढ़वाल शब्द गडवाल से निकला है। 'गड् और वाड' ये दोनों शब्द वैदिक संस्कृत के हैं। और इनका गढ़वाली भाषा में प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है।

गाड़' बड़ी नदी और 'गड़' छोटी नदियों जैसे -दुण्गड, लोधगड आदि। यहाँ अनेक गड़ छोटी नदियाँ हैं। इसलिए गड़वाल छोटी-छोटी असंख्य नदियों का प्रदेश गढ़वाल हुआ। वाल-वाला। वाल शब्द गढ़वाली में बहुत प्रयुक्त होता है। जैसे-सेमवाल, डंगवाल आदि।

कविवर भूषण ने भी अपनी एक कविता में इस भूभाग के लिए 'गडवाल' शब्द का प्रयोग निम्न पद्य में किया है.

"सुयस ते भलो मुख भूषण भनैगी वाटि
गडवाल राज्य पर राज जो बखानगो।

यहां के मूल निवासी कौन थे, यह कहना कठिन है । प्रागैतिहासिक काल में यहां कक्ष-किन्नर, गन्धर्व, नाग, किरात, कोल, तंगण,कुलिन्द, खस आदि जातियाँ निवास करती थी। इस के मध्य भाग में कोल, भील और राजस्थान, गुजरात,महाराष्ट्र और बंगाल से यहां बसी हुई जातियाँ निवास करती है। जिन्हें अब गढ़वाली कहते हैं। वर्तमान में उत्तर भारत के अनेक नगरों में रहने वाले लोग यहाँ बसने के लिए ललायित रहने लगे हैं यह यहाँ की संस्कृति ,प्राकृतिक छटा और शान्त वातावरण का प्रभाव माना जा सकता है। गढ़वाली लोक मानस, भोला-भाला, आस्तिक, प्रकृति प्रेमी, शान्त और परम्परावादी है। वह लोक अनुश्रुतियों, रूढियों, देवीदेवताओं की पूजन की विविध परम्पराओं और वीर योद्धाओं, प्रेमियों, धार्मिकों के चरित्र से प्रभावित रहता है। अनेक वाह्य समागतों के गढ़वाल में बस जाने पर अब गढ़वाली जनमानस उनकी संस्कृति को भी अपनाने लग गया है। विवाह के अवसरों पर 'पंजाबी भाँगडा' गुजराती 'गरबा' राजस्थानी नृत्यगान भी लाकप्रिय हाते जा रहे हैं । बाहर से आए वाद्य वादक, बैंड की धुन में गढ़वाली गीतों को ऐसे गाते और बजाते हैं जैसे वे वर्षों से यहीं बसे हों । गढ़वाली जनमानस ने अपनी परम्पराओं के साथ, देव पूजन आदि में और त्योहारों की रीति नीतियों में भी भारी
परिवर्तन करके अपने मिलनशील स्वभाव और घुलनशील संस्कृति का परिचय दे दिया है । गढ़वाली लोक मानस की भाषा का नाम भी इस प्रदेश के नाम के अनुसार 'गढ़वाली' ही है । गढ़वाल की भाषा गढ़वाली। गढ़वाली में वैदिक संस्कृत, और शौरसेनी प्राकृत के शब्द अधिक संख्या में मिलते हैं । द्रविड़ भाषा के शब्द और उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी तथा राजस्थानी, गुजराती,महाराष्ट्री भाषाओं के अनेक शब्दों को गढ़वाली जनमानस ने अपनी भाषा में स्थान दिया है। अब वे इस भाषा में ऐसे घुल-मिल गए हैं कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व सरलता से पता नहीं लगता है। भाषा के साथ यहाँ का साहित्य भी बंगाली, राजस्थानी, और गुजराती साहित्य से आंशिक प्रभावित जान पड़ता है।

यहाँ की वीरगाथाएं, लोककथांएं और पवाड़ों का स्वर सरगम बहुत कुछ राजस्थानी से प्रभावित लगता है। वीरता, प्रेम, प्रतिज्ञा पालन, धर्म रक्षा, दैवीशक्तियों पर विश्वास, जादू-टोना, नृत्यगान में अभिरूचि आदि इसके प्रमाण हैं । प्रकृतिप्रेमी गढ़वाली लोक मानस की गंगा जी और चारोंधामों (बद्रीनाथ, केदार नाथ, गंगोत्री और यमनोत्री ) में अगाध श्रद्धा है। देश की सीमा पर आज भी यहाँ के वीर सैनिक तैनात हैं जो कि देशभक्ति, और कर्तव्यपरायणता के प्रतीक बनकर गढ़वाली लोक मानस की एक दिव्य छवि, देश और विश्व के आगे रखते हैं । तथापि शराबखोरी,अकर्मण्यता आदि दुर्गुणों से भी यहां का लोकमानस मुक्त नहीं माना जा सकता है.

गढ़वाली लोक साहित्य के संरक्षक

गढ़वाली का लोक साहित्य गद्यात्मक और पद्यात्मक दो रूपों में प्राप्त होता है। बहुत सा अलिखित साहित्य श्रुति परम्परा से बाजगियों, व पंडितों द्वारा रटा-रटाया होने से सुरक्षित है। यहाँ के लोक ने वीरों की गाथाओं को परम्परा से गा-गाकर सुरक्षित रखा, नानी ओर दादियों ने लोक कथओं,बालगीतों (लोरियों) और ऐणा-मेणा (पहेली और लोकोक्तियों) को बच्चों को सुना-सुनाकर जीवित रखा है। साथ ही जागरियों, और पवाड़ा गायकों ने देव गाथाओं तथा श्रंगार वीरता से भरे, गीतों तथा वार्ताओं व कथासूत्रों को सुरक्षित रखकर अपने कर्तव्य का पालन किया है। गढ़वाली के लिखित साहित्य को खोजने का काम अंग्रेज विद्वानों तथा अधिकारियों ने सर्व प्रथम किया, मध्य पहाड़ी और गढ़वाली बोली लोक साहित्य के संकलन में एटकिन्सन के साथ उनके गढ़वाली विद्वानों का अवदान सराहनीय रहा है। जिनमें स्व0 तारादत्त गैरोला' पादरी मिस्टर ओकले, भजन सिंह, सिंह, डॉ0 गोविन्द चातक आदि का नाम अग्रगण्य कहा जा सकता है। डा0 गोविन्द चातक ने जहाँ लोक गीत- और लोक कथाओं तथा लोक गाथाओं का संकलन किया, वहीं मोहनलाल बाबुलकर ने गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचन करके उसके स्वरूप तथा विकास को दर्शाया है। इन्होंने ही पहली बार लोक साहित्य का वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया । चातक जी ने गढ़वाली लोक साहित्य को एक साथ अनेक पुस्तकों में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया है। डॉ० हरिदत्त भट्ट शैलेश' ने गढ़वाली के भाषा तत्व पर अनुसंधानपरक ग्रंथ लिखे (गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य ) उनकी उल्लेखनीय पुस्तक है। सुप्रसिद्ध लेखक भजन सिंह, सिंह, जनार्दन काला, अबोध बंधु बहुगुणा, डॉ0 महावीर प्रसार लखेड़ा, कन्हैयालाल डंडरियाल,डॉ0 प्रयाग दत्त जोशी,डॉ0 जगदम्बाप्रसाद कोटनाला औरडॉ०नन्दकिशोर ढौंडियाल ने गढ़वाली लोक साहित्य के लेखन एवं संवर्धन में उल्लेखनीय कार्य किया ।

गढ़वाली लोक साहित्य का क्रमिक विकास

मोहनलाल बाबुलकर ने अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक साहित्य की प्रस्तावना में गढ़वाली लोक भाषा के लिखित विकास के पाँच चरण माने हैं ।(1) आरम्भिक युग (2) गढ़वाली युग (3) सिंह युग (4)पॉधरी युग (5)आधुनिक युग। वे लिखते हैं, कि गढवाली भाषा में लिखित परंपरा सन् 1800 से प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है। इस संदर्भ में भी विद्वानों के अनेक मत हैं। कई विद्वान गढवाली भाषा की लिखित परम्परा सन् 1850, तो कोई 1852, तथा कोई 1900 ई0 को आधुनिक युग,अथवा आरम्भिक युग मानते हैं। प्रारम्भ की रचनाएं हरिकृष्ण दौर्गादत्ति, हर्षपुरी लीलानन्द कोटनाला की हैं सन् 1892 में गढवाली भाषा में मिशिनरियों ने बाईबिल प्रकाशित की, और गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल की गढ़वाली हितोपदेश छापी । प्रारम्भिक युग की दो कविताएं, चेतावनी,और 'बुरो संग' (हर्षपुरी) जी की है । गढवाली युग गढवाली पत्र के प्रकाशन से प्रारम्भ होता है । 1905 में गढवाली के अंक में प्रकाशित 'उठा
गढ़वालियों सत्य शरण रतूड़ी की रचना थी, जिसने गढवाली मानस को झकझोर दिया था। चन्द्रमोहन रतूड़ी, आत्माराम गैरोला, तारादत्त गैरोला, गिरिजा दत्त नैथानी, विश्वम्भर दत्त चन्दोला बल्देव प्रसाद शर्मा दीन' की रामी तारादत्त गैरोला की सदेई और योगेन्द्र पुरी की फुलकंडी, चक्रधर बहुगुणा की रचना मोछंग तोताकृत गैरोला का प्रेमीपथिक भवानीदत्त थपिलियाल के, जयविजय और प्रहलाद नाटक ने गढ़वाली के पद्य और नाट्य साहित्य की श्रीवृद्धि की । गढवाली छन्दमाला (लीलानन्द कोटनाला) तथा गढ़वाली पखाणा(शालीग्राम वैष्णव) की कालजयी कृतियाँ हैं। भजन सिंह सिंह अपने कृतित्व से एक युग प्रवर्तक कवि और लेखक के रूप में गढवाली लोक साहित्य में अवतरित हुए। उनका युग उनके नाम से ही ( ' सिंह युग") युग') कहलाने लगा. इस कालखंड के लोक साहित्यकारों में भजन सिंह, सिंह के अतिरिक्त कमल साहित्यकार , विशालमणि शर्मा, ललिता प्रसाद ललाम' सत्य शरण रतूड़ी उल्लेखनीय हैं । पांथरी युग के कर्णधार भगवती प्रसाद पांथरी थे। उनकी रचना बजवासुरी के बाद भगवतीचरण निर्मोही' की हिलांश पुरूषोत्तम डोभाल की वासन्ती तथा भगवतीप्रसाद पांथरी लिखित नाटक भूतों की खोह, पाँचफूल उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । इस युग के स्वनाम धन्य कवियों में अबोधबन्धु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, गिरधारी प्रसाद कंकाल सुदामा प्रसाद प्रेमी, सच्चिदानन्द कांडपाल, उमाशंकर 'सतीश' डॉ0 पुरुषोत्तम डोभाल, आदित्य राम दुध पुड़ी, महावीर प्रसाद गैरोला, जीतसिंह नेगी और डॉ0 गोविन्द चातक उल्लेखनीय हैं । आधुनिक युग के गढवाली लोक साहित्यकारों में नरेन्द्र सिंह नेगी, मधुसूदन थपलियाल, कुटज भारती, निरंजन सुयाल,लोकेश नवानी, रघुवीर सिंह रावत अयाल', महेन्द्र ध्यानी और चन्द्र सिंह राही प्रमुख हैं

गढ़वाली लोक साहित्य का वर्गीकरण

(क) लोक गाथा - गढवाली लोक साहित्य को विशेषकर लोक गाथाओं को डॉ0 गोविन्द चातक ने चार भागों में बाँटा है-
(1) धार्मिक गाथाएं
(2) वीरगाथाएं
(3) प्रणय गाथाएं 
(4) चैती गाथाएं ।

 इनमें अधिकांश धार्मिक गाथाओं का आधर पौराणिक है । वीरगाथाओं में तीलूरौतेली, लोदी रिखोला, कालू भंडारी,रणरौत, माधोसिंह भण्डारी की प्रमुख गाथाएं हैं। प्रणय गाथाओं में, तिल्लोगा (अमरदेव सजवाण) राजुला मालूशाही तथा धार्मिक गाथाओं में पाण्डव गाथा, कृष्ण गाथा,कुदू-विनता, और सृष्टिउत्पत्ति गाथा मुख्य है।
(ख) लोक कथा - कथा शब्द संस्कृत की 'कथ्' धातु से बना है। जिसका अर्थ है 'कहना' । कहना से ही कहानी बनी है। कथसे 'कथा शब्द निष्पन्न हुआ है। लोक अपनी बात को अपने कथन को जिस विधि से कहता है वही लोककथा है लोक कथा में लोक मानस की अपनी व्यथा-कथा और कल्पना, तथा रहस्य-रोमांच, विश्वास,रीति- रिवाज व्यवस्था, रूढ़ि और मिथक (लोक विश्वास) कार्य करते हैं। इन्हीं से लोक का हृदय कथा बुनता है उसमें प्राण डालता है
और लोक ही उसे मान्यता भी देता है। लोक कथाएं लोक का प्रतिनिधित्व करती हैं। गढवाली में कथा-कानी, बारता तीनों शब्दों का व्यवहार होता है । 

गढ़वाली की लोक कथाएं अपने वर्य विषय के कारण निम्नवत् वर्गीकृत हैं 
  1. देवी देवताओं की कथाएं, 
  2. परियों, भूतों,प्रेतों की कथाएं 
  3. आँछरियों की कथाएं
  4. वीरगाथाएं 
  5. पशु पक्षियों की कथाएं 
  6. जन्मान्तर-पुनर्जन्म की कथाएं 
  7. रूपक और प्रतीक कथाएं 
  8. लोकोक्क्ति अप्सराओं की कथाएं । पक्षियों की गढ़वाली कथाएं निम्न रूपों में वर्गीकृत की गई हैं -

पक्षी कथाएं - चोली, घिडूडी,घुमती, कौआ, पता पुरानी, जिस्ता, हाथी-टिटों, समुद्रभट्कुटरू, मैं, कठफोड़वा, सतरपथा-पुरै-पुरै, सौत्यापूत पुरफुरै, तिलरू, स्याल ।

पशुकथाएं - स्याल हाथी की कथा /स्याल बाघ की कथा स्याल भगवान की कथा/ ऊँट हाथी की कथा, बाघ और बटोही की कथा/हिरण स्याल और कौआ/ स्याल और तीतर।

ज्ञान नीति की कथाएं -अच्छी सलाह / दुखः में चितैकी, वफादार कुत्ता,महत्त्वाकांक्षा आदि इस प्रकार लोक कथा के अन्तर्गत कतिपय लोक कथाएं ( देव विषयक) भी गिनी जा सकती हैं।

व्रत कथाएं - पूर्णमासी,बैकुठं चतुर्दशी, शिवरात्री, संकटचौथ आदि की कथा भी गढ़वाली लोक  साहित्य में प्रकारान्तर से प्राप्त होती है।

व्यंग्य कथाए - कन्हैयालाल डंडरियाल की हास्य व्यंग्य कथा के अन्तर्गत 'सत्यनारायण की कथा' इसका उदाहरण है। वर्तमान समय में श्री नरेन्द्र कठैत की व्यंगात्मक कथाएं कहानियाँ बहुचर्चित हो रही हैं जिसमें उनकी "धनसिंग बागी फस्ट' कुल्ला-पिचकरी, कृतियाँ उल्लेख्य हैं।

    गढ़वाली लोक साहित्य की भाषा

गढ़वाली के लोक साहित्य से पहले हम आपको गढ़वाली भाषा के लिखित रूप से परिचित कराएंगें। गढ़वाली भाषा की पहली विशेषता यह है कि गढ़वाली उकार बहुला भाषा है और इसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है । गढ़वाली भाषा के आरम्भिक लिखित रूप का पता देवप्रयाग मंदिर के सन् 1335 के महाराजा जगतपाल के दान पात्र से चलता है 

यह विवरण गढ़वाली भाषा में निम्नवत् है -

  1. श्री संवत 1412 शाके 1377 चैत्र मासे पक्षे चतुर्थी तिथौ रविवासरे जगतीपाल रजवार शुक्ल
  2. ले० शंकर भारती कृष्ण भट्ट कौं रामचन्द्र का भट्ट सर्वभूमि जाषिनी कीती जी यांटो मट सिलापट
  3. अब देवलगढ़ में महाराज अजयपाल (1460- 1519) का लेख देखिए
  4. 'अजैपाल को धरम पाथो भंडारी करौं उक' ।
  5. अब महाराजा पृथ्वीशाह (1664) का गढ़वाली में लिखा लेखांश प्रस्तुत है "श्री महाराजा पृथ्वीपति ज्यू का राज्य समये श्री माधोसिंह भंडारी सुत श्री गजेसिंह ज्यू की पलि परम् विचित्र श्री मथुरा वौराणी ज्यूल तथा तत्पुत्र अमरसिंह भंडारी ज्यूल पाट चढ़ाया प्रतिष्ठा कराई.. इन लेखों में दी गई गढ़वाली भाषा को पढ़कर अब आप जान गए होंगे कि इसमें गढ़वाली के साथ संस्कृत शब्दों की भरमार है
  6. ग्रियर्सन' ने गढ़वाली के विषय में लिखा है कि यह स्थान-स्थान पर बदलती है । यहाँतक की परगनै की बोली का भी अपना भिन्न रूप है, प्रत्येक का अपना स्थानीय नाम भी है फिर भी गढ़वाली का अपना एक आदर्शरूप (स्टैण्डर्ड) है।" 

ग्रियर्सन ने गढ़वाली के आठ भेद माने हैं जो निम्नलिखित हैं -

  1. श्रीनगरी 
  2. नागपुरिया 
  3. बधाणी, 
  4. दसौल्या 
  5. राठी 
  6. टिहरियाली 
  7. सलाणी 
  8. माझ- कुमैय्या।


"किसी आदमी के दो लड़के थे' इस वाक्य में इन भाषाओं के रूप देखिये-

  1. श्रीनगरी- कै आदमी का द्वी नोन्याल छया।
  2. नागपुरिया- कै वैख का दुई लौंडा छया।
  3. दसौल्या- कई आदमी का दुई लडीक छया ।
  4. बधाणी- कै आदमी का द्वि छिचौड़ी छिया ।
  5. राठी- कै मनख की द्वी लौड़ छाया।
  6. टिहरियाली- एक झणा का द्वी नौन्याल थया।
  7. सलाणी- कै झणा का दुई नौना छया।
इस उदाहरण से आप समझ गए होंगें कि गढ़वाली की क्रियाएं एवं वाक्य स्थान-स्थान व (प्रत्येक जिले) में भिन्न हैं । फिर भी वे अच्छी तरह समझ में आ जाती हैं । संस्कृत से बिगड़े हुए तद्भव और शौरसेनी प्राकृत से ये रूप प्रभवित प्रतीत होते हैं। अब हम आपको गढ़वाली के लिखित लोक साहित्य की संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जानकारी दे रहे हैं।

गढ़वाली का काव्यात्मक (गेय) लोक साहित्य

हर्षपुरी जी जिनके विषय में आप पहले भी अध्ययन कर चुके हैं उनके द्वारा लिखित कविता 'बुरोसंग' गढ़वाली में लिखित पहली गेय कविता है । जिसकी बानगी (स्वरूप) इस प्रकार है

अकुलौ माँ मायाँ करी कैकी बी नी पार तरी।
 बार विधा सिर थरी,वैकु बि कू रोयेंद" ।।

 इन्हीं का एक विरह गीत देखिए .


आयो चैतर मास सुणा दो मेरी ले सास ।

वण-वणूडे सबी मौलीं गैन चीटे मौलि घास ।।
 स्वामी मेरो परदेश गै तो द्वी तीन होई गैन मास

अज्यू तई सुणी नीमणी ज्यू को ह्वेगे उत्पास ॥
जौ का स्वामी धरू छन तौंको होयु छ विलास ।

रंग-बिरंगे चादरे-ओढ़ी अड़ोस-पड़ोस-सुहास" ।।

सन् 1905 में गढ़वाली पत्र के प्रकाशन के बाद का कालखंड गढ़वाली युग" के नाम से जाना जाता है। गढ़वाली युग के कवि सत्यशरण रतूड़ी की कविता द्रष्टव्य है।

“उठा गढ़वालियों, अब त समय यो सेण को नीछ 
तजा यही मोह-निद्रा कू अजौं हैं जो पड़ी हीं छ।

 अलो! अपणा मुलक की यीं छुरावा दीर्घ निद्रा कु
सिरा का तुम् इनी गेहरी खड़ा या जीन गेर याल्ये
अहो ! तुम भरे त देखा कभी से लोक जग्या छन 
जरा सी आँख त ख्वाला कनोअब घाम चमक्यूँछ"।

तोता कृष्ण गैरोला के प्रेमी पथिक में कल्पना और रसान्विति इतनी सुन्दर है कि कविता में प्रकृति का बिंब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगता है मन्दाक्रान्ता छन्द नें उनकी कविताओं पर चार चाँद लगा दिए हैं

चंदा आध सरद पर थै सर्कणी बादल्यूँमा
कॉसी की-सी थकुलि रड़नी खत्खली खूल्याँमा।
निन्योर ये निजन बण का नौवल्या गीत गाणी
शर्दे रातें शरदि लगणी, शीतली पौन-पाणी ।

अर्थात् आधा चन्द्रमा आसमान में बादलों के बीच में कॉसे की थाली के समान रगड़ खाते हुए चल रहा है। नीचे धरती में निम्यारे झिल्लीयाँ निर्जन वन में (झन-झन करते हुए) नए नवेली के गीत गा रहे हैं। शरद की रातों में सर्दी बढ़ जाने से पानी और हवा भी ठंडी हो गई है।

सिंह युग अथवा समाज सुधार युग इस युग के मूर्धन्य कवि भजन सिंह 'सिंह' थे। उनके नाम से गढ़वाली कविता साहित्य का यह युग सिंह युग कहलाया इस युग की कविताएं छन्दबद्ध, अलंकृत और समाज सुधार की भावना से ओत- प्रोत हैं कविवर भजन सिंह 'सिंह' के सिंहनाद की कविता उदाहरणार्थ प्रस्तुत है -

फ्रांस की भूमि जो खून से लाल छ 
उख लिख्यूँ खून से नाम गढ़पाल छ
रैंदि चिन्ता बडौं तै बड़ा नाम की
काम की फिर्क रैंदी न ईनाम की
राठ मा गोठ मौं को अमर सिंह छयो 
फ्रांस को लाम या भर्ति है की गयो।
 ज्यौं करी धर में काम पर दौड़िगे 
फ्रांस मा, स्वामि का काम पर दौड़िगे।
 नाम लेला सभी माइ का लाल को 
जान देकी रखे नाम गढ़वाल को।

इस तरह सिंह युग की सभी कविताएं प्रायः देशभक्ति और बलिदान के साथ ही प्रकृति चित्रण तथा समाज सुधर-उद्यम, पुरूषार्थ आदि से ओत प्रोत हैं। आत्माराम गैरोला गढ़वाली युग की एक श्रेष्ठ काव्य विभूति माने जाते हैं। उनकी कविता "पंछीपंचक" से उदाहरण प्रस्तुत है -

अरे जागा कागा कब बिटि च कागा उड़ि उड़ी
करी काका काका घर घर जागोणू तुम सणी।
उठी गैन पंछी करण लगि गैन जय-जय
उठा भायों जागा भजन बिच लागा प्रभुजि का।
घुमूती घूगूती घुगति घुगता की अति भली
 भली मीठी बोली मधुर मदमाती मुदमयी।

गढ़वाली में रचित यह कविता बहुत बड़ी है और शिखरणी छन्द में रची गई है इसकी काव्यात्मक लय और शब्दावली संस्कृत के प्रभाव को लिए है।

बलदेव प्रसाद 'दीन' संवाद काव्य लिखने में अधिक सफल रहे हैं, उनकी लोक प्रिय रचना रामी' (बाटा गोडाई) और जसी आज भी गढ़वाली जनता के मुख से सुनी जा सकती है। रामी का संक्षिप्त काव्यरूप प्रस्तुत है -

बाटा गोडाई क्या तेरो नौं छे, बोल बौराणि कख तेरो गौं छ? 
बटोही-जोगी ! न पूछ मैकू। केकु पुछदि, क्या चैंद त्वैकू ?
रौतु की बेटि छौं, रामी नौछ । सेठु की ब्वारी छौं,पालि गाँछ।।

विरह गीत लिखने में गढ़वाली कवि अधिक सफल हुए हैं क्योंकि पर्वतीय नारी की विवसता पति के परदेश जाने के कारण और बढ़ जाती है । गढ़वाल का प्राकृतिक सौदर्य, विरहणी नायिकाओं (नवविवाहिताओं) को अधिक सताता है । कवियों ने इन गढ़वाली बिरहिणियों के 1. हृदय की चीत्कार और कर्मव्यथा को निस्सन्देह अपनी कविताओं और काव्य रूपों (खण्ड काव्य) (गीति काव्य) या (गीतिनाट्य) में प्रखर स्वर दिया है। पुरूष की विरह दशा का वर्णन चक्रधर बहुगुणा ने अपने कविता संग्रह मोछंग की छैला कविता में इस प्रकार किया है.

जिकुड़ी धड़क धड़क कदी, अपनी नी छ वाणी।
छैला की याद करी उलरिगे परागी।
पखन जखन सरग गिडिके, स्यां स्यां के विजुलि सरके
ढॉडु पड़े तड़-तड़ के,रूण झुण के पाणी
छैला की याद करी उलगिरे पराणी ।।

पांथरी युग - भगवती प्रसाद पांथरी की कृति 'बजबांसुली' से यह युग शुरू होता है । इस परम्परा में भगवतीचरण' निर्मोही' की 'हिलांस' काव्यत्व की दृष्टि से उच्च कोटि की कृति मानी गई है। कहानी संग्रह भी इस युग में खूब निकले 'पाँच फूल' पांथरी जी का कहानी संग्रह है । भूतों की खोह, 'वासन्ती आदि उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । इस युग के लेखकों में अबोधवन्धु बहुगुणा ने तिड़का,मण्डाण,घोल' अन्तिमगढ़ आदि प्रख्यात रचनाओं से अपनी विशेष पहचान बनाई थी। उन्होंने गढ़वाली का पहला महाकाव्य भूम्याल" भी रचा। कन्हैयालाल डंडरियाल का महाकाव्य नागरजा' इसी युग का प्रदेय है। भले ही यह काव्य बहुत बाद में प्रकाशित हो पाया। कुएड़ी, अज्वाल,मंगतु उनकी श्रेष्ठ काव्य कृतियाँ हैं । उनके गढ़वाली नाटक जो अभी तक अप्रकाशित हैं दिल्ली और मुम्बई में मंचित किये गये उनका व्यम्य 'बागी उप्पन की लड़े लोक प्रिय खण्ड काव्य है। उनका नागरजा' एक कालजयी गढ़ावाली महाकाव्य है। गिरधारी प्रसाद 'कंकाल', सच्चिदानन्द कांडपाल, डॉ0 हरिदत्त भट्ट शैलेश' डॉ0 गोविन्द 'चातक डॉ0पुरूषोत्तम डोभाल, जीत सिंह नेगी आदि इस युग के श्रेष्ठ गढ़वाली साहित्यकार माने जाते हैं। इस काल खण्ड में मोहनलाल बाबुलकर एक समीक्षक के रूप मे उभरे हैं इस युग में गढ़वाली साहित्य में शिल्प की दृष्टि और वर्ण्य विषयों की विविधता से एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया । गढ़वाली में लिखे नाटकों की संख्या के विषय में बाबुलकर जी का मत है कि "इनकी संख्या लगभग 67 है। नाटक लेखकों में ललित मोहन थपल्याल, स्वरूप ढौडियाल, अबोध बन्धु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, महावीर प्रसाद गैरोला, उमाशंकर सतीश और नित्यानन्द मैठानी प्रमुख हैं।

आधुनिक युग:- डॉ0 जगदम्बा प्रसाद कोटनाला इसे चतुर्थ चरण कहते हैं । इस कालखंड में चन्द्रसिंह राही का 'रमछोल 2382 प्रकाश में आया । आत्माराम फोन्दानी का गीत संग्रह रैमोडी' के गीतों ने लोकरंजन किया उसके बाद चिन्मय सायर' मधुसूदन प्रसाद थपलियाल, निरंजन सुयाल, कुटजभारती के काव्य प्रकाश में आए। मधुसूदन प्रसाद थपलियाल ने गढ़वाली में गजल विधा को आरम्भ किया। उनकी काव्य पुस्तकें 'कस-कमर' और 'हर्षि-हर्वि' लोक प्रिय रही हैं। हास्य व्यंग्य विधा में कन्हैयालाल डंडरियाल द्वारा बनाए काव्य मार्ग पर सर्व प्रथम (रघुवीर सिंह 'अयाल") चले अयाल जी के दो काव्य गुढयार (1988) पूर्णतः हास्य - व्यंग्य के छलकते रस कलश हैं। हास्य व्यंग्य विधा को ललित केशवान ने 'दिख्यांदिन तप्यांघाम (1994) रचकर चरम शिखर तक पहुंचाने का प्रयास किया है लोकेश नवानी की 'कभी दिल्ली निजौ' सुप्रसिद्ध लोक प्रिय रचना स्वीकारी गई कतिपय नए रचनाकार भी लगातार वर्तमान काल की समस्याओं को अपनी हास्य-व्यंग्यमय कविताओं को व्यंजना और वक्रोक्ति द्वारा अभिव्यक्त करने में सफल हो रहे हैं। नरेन्द्र कठैत का साहित्य इसका प्रमाण है। बाल साहित्य की कमी गढ़वाली में पहले से ही बनी रही है। अबोध बन्धु के 'अंख-पंख' के बाद कोई उत्कृष्ट बाल रचनाएं प्राप्त नहीं हुई है। नए लेखक भी इसकी उपेक्षा कर रहे हैं

इस कालखण्ड के साहित्य की सूची आपके सरल अध्ययन हेतु प्रस्तुत की जा रही है।

कृति का नाम

कवि                                              लेखक                                   प्रकाशन वर्ष
1  द्वी ऑसू                              सुदामा प्रसाद प्रेमी                             सन 1962
2- गढ शतक                           गोविन्द राम शास्त्री                            सन 1963
3- उज्याली                             शिवानन्द पाण्डे                                 सन 1963
4 रंत रैवार                               गोविन्द चातक                                 सन 1963
5- विरहिणी शैलबाला                पानदेव भारद्वाज                             सन 1964
6 - वट्वे                                      सुदामाप्रसाद प्रेमी                          सन 1971
7- अग्याल।                              सुदामापसाद प्रेमी                           सन 1971
8- माया मेल्वड़ी                        भगवान सिंह रावत।                        सन 1977
9- पितरूकू रैबार                      गोकुलानन्द किमोठी                      सन 1979
10- गढ़गीतिका                         बलवन्त सिंह रावत                          सन 1980
11- समलौण                          जग्गू नौटियाल                                    सन 1980
12- कुयेड़ी                             कन्हैयालाल डंडरियाल                      सन1990
13- सिंह सतसई                     भजन सिंह 'सिंह                                 सन 1985 
14- गंगू रमोला                        बृजमोहन कवटियाल                         सन 1997
15- पार्वती                             अबोधबन्ध बहगणा                              सन 1994

 गढ़वाली का नाट्य साहित्य 

उत्सव प्रिय गढ़वाली जन-मानस का चित्त जहां रमणीय अर्थवाली गीतिकाओं से आनन्दित होता रहा है, वहीं नाटकों में जो दृश्यऔर श्रव्य दोनों होते हैं से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। नाटक देखने के लिए जितनी भीड़ जुटती है उतनी कविता सुनने के लिए नहीं। महाकवि 1, कालिदास ने इसी लिए नाटक को महत्त्व प्रदान करते हुए लिखा है, 'काव्येषु नाटकं रम्यं' अर्थात् काव्यों में नाटक रमणीय है। महर्षि भरत ने, 'लोकः विश्रान्ति जनन नाट्यं- लोक की थकान मिटाने वाला,आनन्द प्रदान करने वाला, व्यवहारिक ज्ञान देने वाला, तत्व नाटक को माना है। गढ़वाली का नाट्य लेखन भवानी दत्त थपल्याल के 'जय विजय' और प्रह्लाद नाटक से शुरू माना जाता है। विश्म्भर दत्त उनियाल का 'बसन्ती', ईश्वरीदत्त जुयाल का परिवर्तन भगवतीप्रसाद पांथरी के दो नाटक (क) भूतो की खोह (ख) अधः पतन, तथा गोविन्द चातक का जंगली फूल अबोध बन्धु के नाटक- कचविडाल' अन्तिमगढ़' माई को लाल नित्यानन्द मैठानी की चौडण्डी' प्रेम लाल भट्ट का 'बॅट्वरू कन्हैयालाल डंडरियाल के नाटक कन्सानुक्रम, राजेन्द्र धस्माना का 'अर्धग्रामेश्वर' विश्वमोहन बडोला का 'चैतकी एक रात' ललितमोहन थपलियाल का नाटक 'एकीकरण' तथा उर्मिल थपलियाल का 'खाड़ू लापता आदि सुप्रसिद्ध गढ़वाली नाटक हैं। इनके अतिरिक्त जीत सिंह नेगी का नाटक डॉडा की अएड' गोविन्द राम पोखिरियाल 'मलेथा की कूल' आदि उल्लेख्य हैं।

कहानी एवं उपन्यास


गढ़वाली में सर्वाधिक संख्या में कहानी लिखी गई हैं । कहानीकारों में रमाप्रसाद पहाड़ी, भगवती प्रसाद जोशी 'हिमवंतवासी' डॉ0 उमेश चमोला, हर्ष पर्वतीय आदि उल्लेखनीय हैं । डॉ0 गोविन्द चातक ने सर्वाधिक कार्य नाटकों पर किया है अब हम आपके अध्यनार्थ गढ़वाली नाटकों की भाषा के कुछ अंश संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं -

प्रहलाद नाटक की भाषा:

'कालजुगी,माराज मी पर गुस्सा न होवन । सरकार, मैंत सब ताड़नाकर चुक्यूँ । ये पर बार-बार अर गुरू जी न भि ये तैं दिखाये खूब धुधकार-फुटकार, परन्तु ये न जरा भर भिन छोडि बोलणा, नारेण-हरिकर्तार! यां ते महाप्रभु! कुछ आपही कराये को बिचार हमते होई गया ये ते बिलकुल लाचार।" -
अब विशम्भर उनियाल के वसन्ती नाटक की काव्यभाषा प्रस्तुत है -

"दिदि, देख दौं हम लोंगू या कतना बुरो रिवाज छ कि नौन्यूं को ब्यौ बुडयो से कर देंदन। भई इना करण से त जैं दिन नोंनि निजै वे दिन हि दतेरे द्योन त अच्छो हो। जिंदगीभर का रोण-धोण से नि होण हि भलो"।

अब भगवतीप्रसाद पांथरी के नाटक 'अधःपतन' के संवाद देखिए -

नैनो की सोनाकि कुंजी हि प्यार को दरवाजू खोल सकदी? पर क्य कंगाल कि हृदय कि अभिलाषा धूल मा हि लिपटण का होन्दी? वे का प्यारकी कुलाई कि डालि क्या दुसरूं का सुख की होलि। जब्नौण का हि लपकदि?

राजेन्द्र धस्माना के 'अर्धग्रामेश्वर' की भाषा देखिए -
सूत्रधार- “अब ब्वनु क्या च माराज सुन्दरता मा यूडा दि छन हमरि ब्वनाच अब खुणै भग्यान वक्नन्दा तै भग्यान भि छिन,अर गरीब ब्वलन्दा ते गरीब हुई अर एक चित दिखे जा।

कवार्ता के रूप में प्राप्त साहित्य

लोकवार्ताएं केवल देवी-देवताओं के जागर में नृत्यमयी उपासना के बीच सुनाई जाती है । प्रायःरात ही उसके लिए उपयुक्त होती हैं रात में देवता का नृत्य देखने के लिए एकत्र हुए लोगों के मनोरंजन के लिए कभी वार्ताएं आवश्यक समझी जाती थीं। आज भी लोकवार्ता का महत्त्व वैसे ही बना हुआ है जैसे पहले था । लोकवार्ता का काई भी ज्ञाता व्यक्ति मंडाण अर्थात् देववार्ता सुनने और देवता का नृत्य देखने के लिए एक समूह के बीच में बैठते हैं और अवसर पाते ही समूह के बीच से उठकर दोनों हाथों से अपने कानों को दबाकर या उनके छिद्रों में उंगली डालकर संगीत के स्वरों में कोई वार्ता छेड़ता है वह वार्ता के आमुख के रूप में ढोल या डमरू(डौंर) बजाने वाले औजी (वादक) को संबोधित करता है । देवी देवताओं की वार्ता के समय सभी श्रोता एवं दर्शक भक्तिभाव से बैठे रहते हैं। देवी-देवताओं के समान ही अनिष्ट कारिणी शक्तियों जैसे (भूत,आँछरी) आदि की मनौती के लिए भी उन्हें नचाने खेलवाने के लिए नृत्य के साथ गीत गाए जाते हैं। उन वार्ताओं में कथा का अंश बहुत होता है और उसको रांसो कहा जाता है । डॉ0 गाविन्द चातक इसे 'रासो' से उत्पन्न मानते हैं उनका मानना है कि बोल-चाल में रासो का अर्थ धर्म कथा होता है । कहानी का ध्येय मूलतः मनारंजन होता है लेकिन रासो मनुष्यों को देवताओं और आँछरी, आदि के भय से निर्मुक्त करने की नृत्यमयी उपासना है। लोकवार्ता के रूप में प्राप्त साहित्य के अन्तर्गत -गढ़वाली का वृहत अलिखित साहित्य लोकवार्ता के रूप में आज भी मौजूद है एटकिन्सन ने भी गढ़वाल के इतिवृत्त लेखन में लाकवार्ता साहित्य की मदद ली। उसने यहां की धार्मिक गाथाओं, तथा यहाँ के ऐतिहासिक अनैतिहासिक वीरों, राजाओं, महाराजाओं, वीरांगनाओं के गीतों को लोगों के मुख से सुना और उनसे यहां की सभ्यता-संस्कृति व भाषा का विश्लेषण किया गढ़वाली लोकवार्ताएं राजस्थान,गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल के लोकवार्ता साहित्य के समकक्ष है ।

गढ़वाल की देव गाथाओं में भूगोल के साथ-साथ इतिहास की जानकारी भी मिलती है । विशेषकर तंत्र मंत्र और देव गाथाओं में पौराणिक भूगोल का वर्णन मिलता है जैसे - देवलोक जाग नागलोक जाग खारा समुद्र जाग, अन्तरिक्ष लोक जाग । इनके साथ ही गढ़वाल के प्रमुख पर्वत,नदी,घाटी, गुफाएं वन आदि का वृतान्त मिलता है यहां के भड़ों और राजाओं की विरूदावली व वंशानुचरित भी गढ़वाली लोकवार्ता के अन्दर मिल जाते हैं।

  5. सारांश

गढ़वाली लोक साहित्य से परिचित हो गए होंगे.

गढ़वाली लोक साहित्य के इतिहास से भी परिचित हो गए होंगे

गढ़वाली लोक साहित्य का क्रमिक विकास प्राप्त कर चुके होंगे

गढ़वाली लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं को जान गए होंगे

गढ़वाली लोक साहित्य के विभिन्न युगों(काल-खंडों) को जान गए होंगे

शब्दावली

  1. सृजित बनना ,    निर्मित होना
  2. आस्तिक          ईश्वर पर आस्था रखने वाला
  3. मानस              मन, हृदय
  4. मूर्धन्य            बड़ा, विशेष
  5. चीत्कार           चीखना, चिल्लाना
  6. उत्कृष्ट             अच्छा, सर्वश्रेष्ठ

  6. अभ्यास प्रश्न 

1 (क) सोमदेव 
(ख) गुणाड्य 
(ग) पातीराम 
(घ) योगेन्द्र पुरी

2 (क ) मिथक -पुराने लोक विश्वासों,पौराणिक कथा एवं गाथाओं को 'मिथक' साहित्य कहा जाता है। मिथक में सत्य का विस्थापन होता है। जैसे हम कहें उषा के बाद सुर्योदय होता है तो मिथक कार उसे कहता है -सूर्य उषा का पीछा करता है।

3 तीन प्रमुख पक्षी कथाएँ निम्नलिखित हैं:

(1)भटकुटुरू
 (2) चोली
 (3)सतर पथा-पुरै-पुरै
 (4) पता-पुरकनी।

 4 - अजयपाल का धर्मपाथो (अनाज मापने का बर्तन ) भंडारियों के यहाँ है।

 5 - ग्रियर्सन ने गढ़वाली भाषा के विषय में कहा है कि यह स्थान-स्थान पर बदलती है यहां तक कि परगने की बोली का भी अपना भिन्न रूप है। प्रत्येक का अपना स्थानीय नाम भी है । और गढ़वाली का अपना एक आदर्श (स्टैण्डर्ड) रूप है। ग्रियर्सन ने गढ़वाली के आठ भेद माने हैं।
6 - "किसी आदमी के दो लड़के थे। इसका रूप नागपुरी और बधाणी में निम्नवत् होगा -

(क) नागपुरिया बोली में - कै बैख का दुई लौंडा छया।

(ख) बधाणी बोली में कै आदमी का दिवू छिचौड़ी छिया।

7 सिंह युग' की गढ़वाली कविताओं की 4 विशेषताएं निम्नलिखित हैं -

(1) सुधारवादी दृष्टिकोण 
(2)छन्दबद्ध कविताएं व गीत 
(3) लोक से जुड़ी गढ़वाली भाषा का काव्यात्मक प्रयोग 
(4) संवाद परकता।

8- बाटा गोडा (रामी) लोक गीत - लोक काव्य के स्वचिता का नाम है -बल्देव शर्मा 'दीन'।

  9. संदर्भ ग्रंथ सूची 

1. गढ़वाली लोककथाएं- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 2396, तक्षशिला प्रकाशन, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

2. गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य- डॉ0 हरिदत्त भट्ट शैलेश, प्रथम संस्करण 2007, तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

3. उत्तराखण्ड की लोककथाएं- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 2003, तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली ।

4. गढ़वाली लोक साहित्य की प्रस्तावना- मोहनलाल बाबुलकर, प्रथम संस्करण अप्रैल 2004, भागीरथी प्रकाशन गृह, बौराड़ी, नई टिहरी।

5. गढ़वाली काव्य का उद्भव विकास एवं वैशिष्ट्य- डॉ0 जगदम्बा प्रसाद कोटनाला, प्रथमसंस्करण 2011, प्रकाशक- विजय दयाल, 558/1, विजय पार्क, देहरादन।
6.   गढ़वाली लोक गीत विविधा- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 2001 प्रकाशक (तेज सिंह) तक्षशिला प्रकाशन, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

                10. निबन्धात्मक प्रश्न

1.  गढ़वाली लोक साहित्य के इतिहास को विस्तारपूर्वक समझाइए.

2. गढ़वाली लोकसाहित्य के क्रमिक विकास की विवेचना कीजिए .

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  4. कुमाउनी लोक कथाएं : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य
  5. कुमाउनी लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तिया

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