सप्त शुक्रवार व्रत विधान तथा कथा
मगध देश में राजगृह नगर के पास विपुलाचल पर श्री महावीर स्वामी का समवरण आने का समाचार, महाराज श्रेणिक ने वनपाल के मुख से सुना और हर्षित होकर महारानी चेलना के साथ सपरिवार वहाँ पहुँचे।
बड़े भक्तिभाव से जय-जयकार करके तीन प्रदक्षिणाएँ देकर श्री वीर प्रभु को त्रिवर नमोऽस्तु किया । फिर वे बारह सभा के मनुष्यों के कोटे में बैठ गये। भगवान की दिव्य ध्वनि, श्री गौतन गणधर की वाणी से सुनकर राजा-रानी ने भक्तिभाव से आनंदित होकर हाथ जोड़ विनती की, हे भगवन् । संसार में दम्पती को अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिए? इस विषय में कोई एक कथा हमें सुनाइये। तब भगवान के मुख से वाणी निकली। प्राचीन काल में सौराष्ट्र देश में परिभद्रपुरी नाम का नगर था। वहाँ विकारमाप्ता नामक तेजस्वी, महापराक्रमी, न्यायी, धर्मी व प्रजावत्सल राजा था। उसके बहुत रानियाँ थीं। उनमें भूमिभुजादेवी पटरानी पतिव्रता, चतुर व कार्यकुशल थी, इसलिये राजा को मंत्री की तरह सहायता देती थी। दोनों ने अपने राज्यमें खूब धर्म प्रभावना की। उसकी नगरी में श्रुणुयात नाम का एक दरिद्र व्यापारी था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मावती था। उसकी जैन धर्म में बहुत श्रद्धा व भक्ति थी। पाप के डर से उससे कोई बुरे कार्य नहीं होते थे। घर में दरिद्रता के कारण वह दुखी थी, इसलिये उसे किसी के पास जाकर बैठना बुरा लगता था और अपने घर में जो था उसी में सन्तुष्ट थी। अपनी बुरी स्थिति के कारण वह किसी से नहीं बोलती थी। अधिक संतान होने के कारण उनकी देखभाल में उसका सारा दिन बीत जाता था।
वह सन्तान की इच्छापूर्ति तथा पालन-पोषण में असमर्थ थी। इस दुख से छुटकारा पाने की रात-दिन उसे चिन्ता रहती थी। इससे उसका शरीर दुर्बल हो गया था। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, उसे कुछ समझ में नहीं आता था। एक दिन पड़ोसिन ने आकर उसे समझाया, देखो! आज भाग्य का दिन निकला है। ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं। गाँव के बाहर बगीचे में श्री विजयाभिनन्दन नाम के मुनीश्वर आये हैं। उनके दर्शनों के लिए गाँव के स्त्री-पुरुषों की भीड़ लग रही है। वे बहुत ज्ञानी हैं तथा भक्तों को हितकारी उपदेश देते हैं, सो हम भी उनके दर्शनों का लाभ लें और इहलोक परलोक के हित को साधकर सद्गति प्राप्त कर लें। इसलिये मैं तुझे बुलाने आई हूँ। तेरी इच्छा हो तो मेरे साथ चल। यह सुनकर रुक्मावती को अत्यन्त हर्ष हुआ। चितित मन में शांति हुई। घरेलू दुःखों से छूटने का मार्ग मिले और शांति सुख की प्राप्ति हो, इस भावना से वह उस स्त्री के साथ जाने को निकली। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि दर्शनों की प्रतीक्षा में अपार जनसमुदाय श्री विजयामिनन्दन मुनिराज के सामने जय-जयकार कर रहा है। विमान से पुष्पवृष्टि हो रही है। यह दृश्य देखकर रुक्मावती का मन प्रफुल्लित हुआ। उसने मुनीश्वर को सादर नमस्कार किया और श्राविकाओं की सभा में जाकर बैठ गई। मुनीश्वर ने उपदेश प्रारम्भ किया। उसे सुन वह इतनी खुश हुई कि अपने बाल-बच्चों, घर-बार व संसार को भूल गई। मुनिराज ने अपनी अमृतवाणी से सात तत्व का वर्णन किया, जीव तत्व का महत्व समझाया, अनादि संसार के सुख-दुःखों का वर्णन किया, जीव के हित का मार्ग बतलाया और अखण्ड शोभा बढ़ाने वाली व अत्यन्त सुख देने वाली सप्त शुक्रवार व्रत की क्रिया बतलाई। वह क्रिया रुक्मावती ने ध्यानपूर्वक सुनी।
वह क्रिया इस प्रकार थी -विधान - श्रावण महीने में प्रत्येक शुक्रवार को उपवास अथवा एकाशन करें, शक्ति अनुसार पूजा सामग्री लेकर श्री जिन मंदिर में जाकर दर्शन स्तुति स्तोत्रादि द्वारा भगवान की भक्ति करें और १००८ श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर की, श्री धरणेन्द्र, श्री पद्मावती सहित पंचामृत अभिषेक पूर्ण करके पद्मावती देवी की मूर्ति को दूसरे एक ऊँचे आसन पर विराजमान करें। नाना प्रकार के वस्त्रालंकारों से उनका शृंगार करें। दीप, धूप, फूलों के हार, केले के खम्म इत्यादि साधनों से मण्डप सजावें, हल्दी, कुंकुम, भीगे हुये चने आदि लेकर पंचोपचार पूजा करें। बाद में श्री पद्मावती महादेवी को मणि मंगलसूत्र आदि आभूषण पहनावें। फिर आटे के दो दीपक सहित जयमाला बोलकर तीन प्रदक्षिणाएँ देकर पूर्णार्ध्य चढ़ावें। तदनन्तर महादेवी के मंत्र की आरती करके शांति भक्तिपूर्वक विसर्जन करें। फिर सप्त शुक्रवार की कथा सुनें श्री पद्मावती के सहस्त्र नाम के प्रत्येक बीजाक्षर मंत्र को बोलकर एक-एक चुटकी कुंकम या लवंग पुष्प चढ़ावें। प्रत्येक शतक में अर्घ्य चढ़ावें, गंधोदक सेचन करें। "ॐ आं कों ह्रीं ऐंक्ली हंसी श्री पद्मावती दैव्ये नमः, मम सर्व विघ्नोपशांतिं कुरु कुरु स्वाहा।" इस मंत्र का लाल कनेर के फूलों से १०८ बार त्रिकाल जाप करें। यदि कनेर के फूल उपलब्ध न हों तो जाती व गुलाब पुष्प से जाप करें। आखिरी शुक्रवार को ऊपर कही गयी सारी क्रिया परिपूर्ण करके श्री पद्मावती माता को साड़ी पहनावें, षोडशालंकार से शृंगार कराएँ और नीचे लिखी सामग्री लेकर उनकी गोद भरें। पाँच हरी चूड़ियाँ पहनावें, पाँच हल्दी गाँठ, पाँच खोपरा, कुंकुम के पाँच चौपड़े, पाँच नींबू, पाँच केले, पाँच घुहारे, पाँच मखाने, बतासे आदि इस प्रमाण को लेकर उत्तम नारियल तथा चोली का वस्त्र लेकर गेहूँ या चावल से पाँच सुवासनी स्त्रियों द्वारा गोद भराएँ।
गोद भरते वक्त नीचे लिखा मन्त्र पढ़ें –
धरणेन्द्रराज कुलयक्षिणी, दीर्घ आयुरारोग्यरक्षिणी ।।
उसके बाद कुटुम्बीजनों को भीगे चने, हल्दी, कुंकुम, मखाना, बतासा, गुड़, खोपरा, पान, सुपारी इत्यादि गोद का प्रसाद बोलकर बाँटे। एकत्र सौभाग्यवती स्त्रियों को हल्दी कुंकुम लगाएँ। बाद में जय-जयकार करके मंगल गीत गाजे-बाजे के साथ गा, घर वापिस आएँ। इस प्रकार पाँच वर्ष पर्यन्त यह व्रतविधि पूर्ण होने पर उद्यापन करें।
उद्यापन विधि -- पाँचकोनी कुम्भों की स्थापना करें। पाँच कलश स्थापित करें। पंचवर्णी रेशमी सूत बाँधकर पाँच कोने तैयार करें। चारों दिशाओं में केले के खम्म खड़े करें। हाँडी, गोला, झाड़ आदि से सजावट करें, आटे के दीपक से आरती उतारें, चमर ढलावें, कुंकुम मिश्रित अक्षत एवं फूलों की वृष्टि करें। श्री पद्मावती देवी का विधान करें। पाँच पकवान के पाँच नैवेद्य अर्पण करें। श्री देव, शास्त्र, गुरु, पद्मावती देवी और सुवासिनी बहिन को दोने में फूल रखकर, फूल पर कुंकुम और मोती रखकर चढ़ावें और देवें। पाँच-पाँच मंगल वस्तुएँ श्री जिन मंदिर में चढ़ावें । आर्यिका को आहारदान तथा वस्त्रदान करें। पाँच दम्पती को इच्छित भोजन देकर सन्तुष्ट करें। इस प्रकार से यदि उद्यापन करने की शक्ति न हो तो दूना व्रत करें। ऐसा करने से उद्यापन करने का फल मिलता है।
मां, बाप, बहिन, भाई, ननव, देवर, जेठानी, सास, ससुर सबके आशीर्वाद से पति परमेश्वर का आखिर तक अच्छा सहवास मिले। सुसंतान सहित सुखी संसार बने, आनन्द से समय बीते, साथ-साथ धन और संतान की वृद्धि, आरोग्यता, दीर्घ आयु एवं भूत पिशाचादिक का भयनाश इत्यादि सुखों की प्राप्ति होकर चारों तरफ कीर्ति फैलती है। इस व्रत की महिमा अपरम्पार है। परन्तु श्री जिन धर्म पर एकनिष्ठ भक्ति रखें। जीवनपर्यन्त श्री पद्मावती माताजी की सेवा नियमित रूप से करने की परम्परा से मोक्ष मार्ग की सिद्धि होती है।
स्त्रियों के लिए कुमारी अवस्था में "आत्मकुंकुम" हल्दी और यौवन अवस्था में 'सप्तकुंकुम' निश्चय से दुर्गति निवारक है, परन्तु इस जन्म में भी --
एवं पंच प्रकीर्त्यानि ककाराणि पुरन्ध्रीणाम् ।”
अर्थ- काजल, कुंकुम, काँच, चोटी एवं कर्णफूल ये। सौभाग्यवती स्त्री के प्रसाधन कहे गये हैं। सौभाग्यवती कहलाने वाली महाभाग्यवती को ऊपर कहे पाँच ककार की जीवन के आखिर तक प्राप्ति होती है। अखण्ड सौभाग्यवती कहलाकर बड़े गौरव से उसका आयुपर्यन्त यश फैलता है। “आत्मकुंकुम" सप्तकुंकुम इन व्रतों के महत्व का वर्णन श्री धरणेन्द्र देवराज की चंचल जिह्वा द्वारा भी किया जाना अति कठिन है। यह महाकल्याणकारी है। बरसाती तुच्छ नदी के प्रवाह के समान क्षणभंगुर जीवन को निस्सार समझकर संसार बढ़ाना मूर्खता है। इस भवसागर से पार होने के लिए विचारशील व्यक्ति को यह व्रत करणीय है। इसलिए महिलागण इस व्रत के पालन में अबला की तरह अति कोमल न हों। स्त्री जन्म को इसी भव में सार्थक कर लें। अगला जन्म उच्च कुल में होगा, ऐसा निश्चय से नहीं कहा जा सकता, इसलिए नर से नारायण बनने का यही उत्तम साधन है।
बार-बार नरभव प्राप्त नहीं होता, इसलिए जागरूक होकर उत्साह व प्रसन्नता से व्रत धारण करें, उससे सुख की प्राप्ति होगी। इस प्रकार रुक्मावती ने मुनीश्वर के मुखारविन्द से व्रत का माहात्म्य, विधि और फल सुनकर अपनी दरिद्रता की बिना परवाह किये मुनिराज के पास व्रत लेने का मन में निश्चय किया। उसने मुनिराज को नमोऽस्तु करके अपना भाव व्यक्त किया। मुनिराज ने पंचपरमेष्ठि की साक्षी में उसको व्रत दिया। श्री गुरुमुख से व्रत लेकर प्रसन्न मन से रुक्मावती घर गयी और शक्य साधन सामग्री से व्रत शुरु किया। उसी गाँव में उसका गुरुदेव नाम का भाई रहता था। वह बड़ा सेठ था। उसने अपने पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त गाँव के सारे नागरिकों को एक सप्ताह पर्यन्त इच्छित भोजन कराकर संतुष्ट करने के भाव से घर-घर निमंत्रण भेजा, परन्तु अपनी बहन को निमंत्रण नहीं भेजा क्योंकि वह दरिद्र थी। अगर आयेगी तो देखकर लोक में निन्दा होगी, सोचकर उसे याद तक नहीं किया। गाँव के छोटे-बड़े सब लोग खा-पीकर जब उसी के दरवाजे के सामने से जाने लगे तो उसे आश्चर्य हुआ और सोचने लगी कि मैं और मेरा भाई एक ही हाड़-मांस, रक्त, पिण्ड के हैं। उसने सब लोगों को तो संतुष्ट किया है, मैंने उसके ऐसे क्या घोड़े मारे हैं ? फिर सोचा काम की धाँधली में भूल गया होगा, इसलिए बेकार उस पर रोष करके अपने सोने जैसे भाई को दोष देना ठीक नहीं। निमंत्रण नहीं भेजा तो क्या हुआ, भाई ही का तो घर है, जाने में क्या हर्ज है। ऐसा विचार करके वह बाल-बच्चों सहित जीमने गयी। बच्चों को सामने लेकर स्त्रियों की पंगत में बैठी। थोड़ी देर बाद उसका भाई, कौन आया कौन रहा, यह जानने के लिए वहाँ घूम रहा था, उसका ध्यान बहिन की तरफ गया. तो पास आया और गुस्से में बोला, बहिन, तू आज यहाँ कैसे आयी ? तेरी गरीबी के कारण मैंने जानकर तुझे नहीं बुलाया। तेरे पास न अच्छे कपड़े हैं, न गहने। तुझे ऐसी दरिद्र देखकर मुझे लोग हँसेंगे। इसलिए आज आयी तो आयी मगर कल मत आना, समझी ? बहिन बेचारी लज्जित होकर नीची गरदन कर, खाकर बच्चों को लेकर घर गई। दूसरे दिन भी बच्चे कहने लगे, माँ आज भी मामा के यहाँ खाने के लिए जायेंगे। यह सुनकर माँ के पेट में खलबली मची। उसने बच्चों को बहुत डाँटा । मगर वे माने नहीं, उनकी हठ के कारण फिर मन में विचार किया कि कैसा भी हो अपना भाई ही तो है, बोला तो क्या हुआ, अपनी गरीबी है तो सुनना ही पड़ेगा। मगर आज का निर्वाह तो होगा, सोचकर दूसरे दिन भी बच्चों को लेकर भाई के घर गई और खाने को बैठी।
कल की तरह ही भाई की सवारी पंगत में आने पर उसने उसे देखा और बोला, बहिन कैसी भिखारिन है ? कल तुझे मना किया था तो भी आज सुअरनी की तरह बच्चों को लेकर आ गयी ? तुझे शर्म कैसे नहीं आयी ? आज आयी तो आई अगर फिर कल आई तो हाथ पकड़कर निकाल दूँगा । उसने यह चुपचाप सुन लिया और खाने के बाद उठकर अपने घर चली गयी। तीसरे दिन भी इसी प्रकार हुआ। तब भाई को खूब गुस्सा आया और उसने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया। उसे बड़ा दुःख हुआ। घर आकर फूट-फूटकर रोयी। उसके मन में विचार आया कि मैंने कौन-सा घोर पाप किया जिससे इस जन्म में मुझे घोर दरिद्रता की मार पड़ रही है। सच है अनन्त जन्मों के पापों की राशि इस दरिद्रता की अवस्था है। इसकी अपेक्षा तो मुझे नरक के दुःखों में भुन जाना ही अच्छा होता। अब यह यम यातना सही नहीं जाती। इससे तो मरण अच्छा क्योंकि वह तो एक बार ही भोगना पड़ता है।
परन्तु दरिद्रता का दुःख जीवनपर्यन्त भोगना पड़ता है, धिक्कार है, मेरे ऐसे जीने को हे पद्मावती देवी हे अम्बिका माता। तू ही मेरी सहायता कर माँ। मुझे जगत में किसी का आधार नहीं, आसरा दे माता। इस प्रकार करुण कन्दन करके वह खूब रोई, रोते-रोते उसे नींद आ गयी। नींद में उसे स्वप्न आया। उसके रुदन की ध्वनि श्री पद्मावती देवी के कानों पर जा टकराई, महादेवी तत्काल मुकुट, कुण्डल, हार आदि पहन, एक हाथ में धर्मचक्र लिए हुये जगमगाती पोशाक पहन उसके पास आकर खड़ी हो गयी और कहने लगी- हे महाभागे । तू दुःखी न हो, घबरा मत, तू जो आचरण कर रही है उस सप्त शुक्रवार व्रत को मैं अच्छी तरह जानती हूँ।
आज तुझे दरिद्रता सम्बन्धी अतिशय दुःख हुआ है, तथापि तेरा कष्ट अत्यन्त तेज से युक्त है -
“सुज्ञावाक्या चरिता भुक्ति मुक्ति तदधीना ।"
अनाथ झाली तुमची दुहिता । भूवरी नुरला मजला त्राता ।।
भाऊ-भाऊ म्हणुनि आता । कोठे जाऊ । तुझेचि मनमनवाहू ।।
अर्थ -- मैंने तुम्हारी शरण को पाया है। मेरी रक्षा करो, मुझे सन्मार्ग पर लगाओ। तुम्हारी लड़की अनाथ है। इस जगत में मेरा कोई रक्षक नहीं रहा। भाई, भाई, कहती हुई अब कहाँ जाऊँ, मैंने तुम्हें ही अपने मन में धारण किया है।
इस प्रकार बहुत देर तक प्रार्थना व भक्ति करने के बाद उसे मान हुआ कि घर में बच्चे भूख से व्याकुल होंगे, सोचकर ध्यान से उठी और घर को चली। घर आकर देखा कि बच्चे कामदेव के अवतार के समान दिख रहे हैं। घर में धन धान्य की भरभराहट होने लग रही है, जगह-जगह वैभव खुलने लग रहे हैं। हर एक काम में यश वृद्धि हो रही है और सामने नयी नवकोनी हवेली बनकर तैयार हैं। घर में लक्ष्मी की बाढ़ ऐसी आयी हुई है कि शायद सावन मास में बहने वाली नदी का प्रवाह भी उससे कम ही होगा। जहाँ तहाँ आनन्द है। सच देखा जाये तो उसे दो वक्त के खाने की भी मारामार थी वहाँ अब पाँच पकवान की थालियाँ भरी दिखने लगी हैं। अनेक प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त हैं। सब तरह से घर में भरभराहट है। उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी है। यह कीर्ति सुनकर उसका भाई आश्चर्यचकित हुआ। अपनी बहिन का आदर सत्कार करना चाहिए, विचार कर स्वयं उसके घर आया और बहिन से बोला, बड़ी बहिन, तुम कल मेरे घर खाने को आना । ना मत करना, तुम आओगी तो ही खाना खाऊँगा, नहीं तो मैं भी खाना नहीं खाऊँगा, समझी ? बहिन ने सोचा चलो, अपना भाई बड़े सम्मान से बुलाता है, अब हम श्रीमंत हुए तो गर्व नहीं करना, इसका इस समय अपमान करना ठीक नहीं। सिर्फ इसको अपने किये हुए का पश्चात्ताप हो और सन्मार्ग प्रर्वतक होकर अहंकार छोड़े, ऐसा विचारकर वह अच्छे गहने तथा बढ़िया ओढ़नी पहनकर उत्तम शृंगार कर सम्मान से भाई के घर गयी। भाई बड़ी आस्था से राह देख रहा था। उसके आने के साथ उसे पाँव धोने को गरम जल दिया। पाँव पोंछने को रुमाल दिया। थाली परोसने पर दोनों बहिन-भाई बड़े प्रेम से पास-पास खाने को बैठे बिछे हुए
पाटे पर बहिन ने बदन पर से ओढ़नी उतारकर रक्खी, भाई ने समझा गरमी लगती होगी। बाद में उसने शरीर पर से गहने उतारकर रक्खे। भाई ने सोचा अपनी कोमल बहिन को बोझ लगता होगा सो उतारे हैं। परन्तु उसके बाद बहिन ने पहला चावल का ग्रास उठाया और ओढ़नी पर रक्खा। पूरण पोली उठाई और हार पर रक्खी। भाजी उठाई कण्ठी पर रक्खी, लड्डू उठाया भुजाबंद पर रक्खा, जलेबी उठायी मोती के कंगन पर रक्खी। यह देखकर भाई ने पूछा, बड़ी बहिन तुम यह क्या करती हो ? बहिन ने शान्त मुद्रा से कहा, मैं जो करती हूँ वह ठीक है। जिनको तुमने खाने को बुलाया है उनको मैं खाना दे रही हूँ। उसको कुछ समझ में नहीं आया, फिर उसने विनती की, बहिन । अब तो तुम खाओ। तब बहिन ने कहा, हे भाई साहब! आज मेरा खाना नहीं है, इस लक्ष्मी बहिन का है, मेरा खाना मैं पहिले ही खा चुकी हूँ। ऐसा सुनकर भाई के मन में पश्चात्ताप हुआ। उसने उसके पाँव पकड़े, बीती हुई गलती की क्षमा माँगी। बहिन भी उस समय बहुत दुःखी हुई और दोनों आपस में गले मिले। बाद में दोनों आनन्द से खाने बैठे। मन में जो शल्य था वह निकाल दिया। जिनकी कृपा के प्रभाव से अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई उन पट्टमावती माता जी की दोनों कुल के छोटे-बड़े सभी कुटुम्बीजन सेवा करने लगे और अपनी अनगिनत सम्पत्ति का उपयोग अनेक व्रत उद्यापन, चतुर्विध संघ को दान, जिन मंदिर जीर्णोद्धार, सिद्ध क्षेत्र-क्षेत्रादिक सम्बन्धी धर्म कार्यों में करने लगे। सहस्त्रनाम मंत्र का कम से कुंकुम अर्चन करने लगे। इन सब परिणामों को देखकर वहाँ के राजा ने भी भक्ति से दृढ़ होकर जिन धर्म की खूब ठाट-बाट से प्रभावना की। बाद में थोड़े समय में सर्व कुटुम्बीजनों ने राजा सहित जिन दीक्षा धारण कर घोर तप किया और वे चतुर्गति का नाशकर अंत में मोक्ष को गए।
।। इतिसप्त शुक्रवार व्रत विधान कथा सम्पूर्णा ।।
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