जयमाला, सोरठा, गीताछन्द, पंच कल्याणक,धत्ता part 7(jayamala, soratha, geetachhand, panch kalyanak,dhatta)
जयमाला
सोरठा
चिच्चिंतामणिरत्न,
तीन लोक में श्रेष्ठ हो ।
गाऊँ गुणमणिमाल,
जयवंते वर्ती सदा ।| 1।।
(चाल हे दीनबंधु
श्रीपति - - )
जय जय श्री
अरिहंत देवदेव हमारे ।
जय घातिया को घात
सकल जंतु उबारे ।।
जय जय प्रसिद्ध
सिद्ध की मैं वंदना करूँ ।
जय अष्ट
कर्ममुक्त की मैं अर्चना करूँ ।। २ ।।
आचार्य देव गुण
छत्तीस धार रहे हैं ।
दीक्षादि दे
असंख्य भव्य तार रहे हैं ।।
जैवंत उपाध्याय
गुरु ज्ञान के धनी ।
सन्मार्ग के
उपदेश की वर्षा करे घनी ।। ३ ।।
जय साधु अठाईस
गुणों को घरें सदा ।
निज अतमा की
साधना से च्युत न हों कदा ।।
ये पंचपरमदेव सदा
बंध हमारे ।
संसार विषम सिंधु
से हमको भी उबारें ।। ४ ।।
जिन धर्म चक
सर्वदा चलता ही रहेगा ।
जो इसकी शरण ले
वो सुलझता ही रहेगा ।।
जिनकी ध्वनि
पीयूष का जो पान करेंगे ।
भव रोग दूर कर वे
मुक्ति कांत बनेंगे ।। ५ ।।
जिन चैत्यकी जो
वंदना त्रिकाल करे हैं ।
वे चित्स्वरुप
नित्य आत्म लाभ करे हैं ।।
कृत्रिम व
अकृत्रिम जिनालयों को जो भजें ।
वे कर्मशत्रु जीत
शिवालय में जा बसें ।। ६ ।।
नव देवताओं की जो
नित आराधना करें।
ये मृत्युराज की
भी तो विराधना करें ।।
कर्मशत्र जीतने
के हेत ही जजूँ ।
सम्पूर्ण
"ज्ञानमती" सिद्धि हेतु ही मजूँ ।। ७ ।।
दोहा
'नवदेवों को
भक्तिवश, कोटि कोटि प्रणाम
।
भक्ति का फल मैं
यहूँ, निजपद में
विश्राम ।।८ ।।
ॐ ह्रीं
अर्हसिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधु जिन धर्म जिनागम जिन चैत्यचैत्यालयेभ्यो जयमाला
अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा---।
शांतये शांतिधारा,
दिव्य पुष्पांजलिः ।
गीताछन्द
जो भव्य
श्रद्धाभक्ति से नवदेवता पूजा करें ।
वे सब अमंगल दोष
हर सुख शांति में झूला करें ।।
नवनिधि अतुल
भंडार लें, फिर मोक्ष सुख भी पावते ।
सुखसिंधु में हो
मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते ।। ६ ।।
इत्याशीर्वादः
श्री पार्श्वनाथ पूजा ।
गीताछन्द
चरण जिनके वर स्वर्ग आनत को विहाय, सुमात वामा सुत भये ।
अश्वसेन के सुत पार्श्व जिनवर, सुर नये ।।
नवहाथ उन्नत तन विराजै, उरग लच्छन पद लसै ।
थापूँ तुम्हें जिन आय तिष्ठो, करम मेरे सब नसै ।। 9 ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर, सर्ववषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र भम सन्निहितो भव भव वषट्।
अथाष्टक - नाराच छन्द
क्षीरसीम के समान अम्बुसार लाइये, हेमपात्र धारकैं सु आपको चढाइये।
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूं सदा,
दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० ।
चन्दनादि केशरादि स्वच्छ गन्ध लीजिये ।
आप चरण चर्च मोहताप को हनीजिये ।। पार्श्व० ।। २ ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं० ।
फेन चन्द के समान अक्षतान् लाइकै ।
चरण के समीप सार पुंजको नसाइये । पार्श्व० || ३ ||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं ।
केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइये ।
धार चरण के समीप कामको नसाइये ।। पार्श्व० ।। ४ ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्प० ।
घेवरादि बावरादि मिष्ट सय में सने ।
आप चरण अर्चते क्षुधादि रोग को हनै । पार्श्व० । १५ ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् ।
लाय रत्नदीप को सनेहपूर के भरूँ ।
वातिका कपूर वारि मोह ध्वांत कूँ हरु । पार्श्व० ||६||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं० ।
धूपगन्ध लेय के सु अग्निसंग जारिये ।
तास धूप के सुसंग अष्ट कर्मवारियो । पार्श्व० ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं बीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं० ।
खारिकादि चिरभटादि रत्नथाल में भरें।
हर्ष धारिक जूँ सुमोक्ष सुक्खको वरूँ ।। पार्श्व० ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय मोक्षफलप्रात्ये फलं ।
नीरगंध अक्षतान् पुष्प चरु लीजिये ।
दीप धूप श्रीफलादि अर्ध से जजीजिये ।। पार्श्व० ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य० ।
पंच कल्याणक
शुभआनत स्वर्ग विाये, वामा माता उर आये ।
वैशाखतनी दुतिकारी, हम पूजें विघ्न निवारी । 19 ।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा द्वितीयायां गर्भमंडल मण्डिताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्थः ।
जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशी पौष विख्याता ।
स्यामा तन अद्भुत राजे, रवि कोटिक तेज सु लाजै । २ ।।
ॐ ह्रीं पोषकृष्णैकादश्यां तपोमगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राया
कलि पौष इकादशि आई, तब बारह भावन भाई ।
अपने कर लोच सुकीना, हम पूर्जे घरन जजीना ।। ३ ।।
ॐ ह्रीं पोष कृष्णैकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्रायार्ध्यम् ।
कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवलज्ञान उपाई ।
तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवन को सुख दीना ।। ४ ।।
ॐ वैत्रकृष्णाचतुर्थी दिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथायाम् ।
सित सातै सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई ।
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजै मोक्ष कल्याना ।| ५ ।।
ॐ ह्रीं श्रावण शुक्ला सप्तम्यां मोक्षमंगल मंडिताय श्री पार्श्वनाथायाम् ।
जयमाला ।
पारसनाथ जिनेन्द्र तने वच,पौनभखि जबते सुन पाये |
कयो सरधान लहूयो पद आन भये पद्मावति शेष कहाये ।।
नाम प्रताप टरे संताप तु भव्यन को शिवशरण दिखाये ।
हे विश्वसेन के नन्द भले, गुणगावत हैं तुमरे हरखाये || 9 ।।
दोहा------
केकी-कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ।
लक्षण उरग निहार पग, बन्दों पारसनाथ ॥२॥
पद्धरि छन्द
रची नगरी छहमास अगार, बने चहुं गोपुर शोभ अपार ।
सुकोट तनी रचना छवि देत, कंगूरन पै लहकै बहु केत ।| 3।।
बनारस की रचना जु अपार, करी बहुभाँति धनेश तैयार ।
तहां विश्वसेन नरेंद्र उदार, करे सुख वाम सु दे पटनार || ४ ||
तज्यो तुम आनत नाम विमान, भये तिनके घर नन्द सु आन ।
तबै सुरइन्द्र-नियोजन आय, गिरिंद करी विधि न्हीन सुजाय ।।
पिता घर सॉपि गये निज धाम, कुबेर करे वसु जाम सुकाम ।
बढै जिन दोज मयंक समान, रमै बहु बालक निर्जर आन | ६ ।
भये जब अष्टम वर्ष कुमार, घरे अणुव्रत महा सुखकार ।
पिता जब आनकरी अरदास करो तुम ब्याह वरै मम आस 1 ७ 1
करी तब नाहिं, रहे जगचन्द, किये तुम काम कषाय जु मन्द ।
चढे गजराज कुमारन संग, सु देखत गंगतानी सु तरंग ।| ८ ।।
सु लख्यो इक रंक करें तप घोर, चहुँदिशि अगनि बलै अतिजोर ।
कही जिननाथ अरे सुन भात, करे बहुजीवन की मत घात १६ ।
भयो तब कीप कहे कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव ।
लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्मकृषिसुर आय ।।
तबै सुर चार प्रकार नियोग, घरी शिविका निजकंध मनोग ।
कियो बन मांहिं निवास जिनंद, घरे व्रत चारित आनंदकंद ।।
गत अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास ।
दियो पयदान महा-सुखकार, भई पनवृष्टि तहां तिहिंवार । १२ ।
गये तब कानन माहिं दयाल, धरयो तुम योग सबहिं अघ टाल ।
तबै वह धूम सुकेत अयान, भयो कमठाचर को सुर आन || १३ ||
करें नम गौन लखे तुम धीर, जु पूरब वैर विचार गहीर ।
कियो उपसर्ग भयानक घोर, चलो बहु तीक्ष्ण पवन झकोर || 9४ |।
रह्यो दसहुँ दिशि में तम छाय, उगी बहु अग्नि लखी नहि जाय
सुरुण्डनके बिन मुण्ड दिखाय, पडे जल मूसलधार अथाय || १५ |।
तबै पदमावति कंथ धनिंद, नये युग आय तहाँ जिनचन्द ।
भग्यो तब रंक देखत हाल, लहूयो त्रय केवलज्ञान विशाल || १६ ||
दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोधि समेद पधार ।
सुवर्णभद्र जहँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिव नारि लही वसुरिद्ध || १७ |।
जजूँ तुम चरन दुहूँ कर जोर, प्रभु लखिये अब ही मम ओर ।
कहे 'बखतावर रत्न' बनाय, जिनेश हमें भवपार लगाय । १८ ।
धत्ता
जय पारस देवं, सुरकृत सेवं, वंदत चरण सुनागपति ।
करुणा के धारी, परउपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ।। १ ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ।
जो पूजै मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही,
ताके दुख सब जाँय भीति व्यापै नहिं कितही ।
सुख संपति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे,
अनुकम सों शिव लहै 'रतन' इमि कहे पुकारे । २० ।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलि)
धरणेन्द्र का अर्घ्य
नागेन्द्रों के राजा तुम हो, इसीलिये धरणेन्द्र कहाये ।
जिन शासन की सेवा करते, पूजा करने हम आये ।।
जलफलादि वसु द्रव्य सजाकर कनक थाल में भर लाया ।
आवाहनादि स्थापन करके मैं अर्ध चढाने तव आया ।।
ॐ आं कों ह्रीं हे परिवार सहित धरणेन्द्र देवाय अत्रागच्छ इदं पाद्यं, गंध, अक्षत पुष्पं,
चरुं दीपं, धूपं फलं, अर्ध्यचयज्ञ भागयजा महे प्रतिगच्छतां प्रतिगच्छतां अर्धसमर्पयामि ।।
शांति धारा, पुष्पांजलिंक्षिपेत् ।
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