जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी (Jai Maa Kalinka! Garh and Kumaon Devi)

जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी (Jai Maa Kalinka! Garh and Kumaon Devi)

सुदूर हिमालय की गोद में बसे पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड देवभूमि के नाम से जाना जाता है । यहाँ पौराणिक काल से ही विभिन्न देवी-देवताओं का पूजन भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रचलित है। इनमें से एक शक्ति-पीठ ‘कालिंका देवी’ (काली माँ) पौड़ी और अल्मोड़ा  दोनों जिलों के बीच सीमा पर ऊंचे पहाड़ की चोटी में स्थित है। इस चोटी से देखने पर हिमालय के दृश्य का आनन्द बहुत ही अद्भुत और रोमांचकारी होता है। सामने वृक्ष, लता, पादपों की हरियाली ओढ़े ऊंची-नीची पहाडि़याँ दिखाई देती हैं और पीछे माँ कालिंका के मंदिर का भव्य दृश्य।

जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी 

जय माँ कालिंका! इतिहास

ऐतिहासिक रूप से, मंदिर के निर्माण का श्रेय बडियारी समुदाय को दिया जाता है। बडियारी एक अर्ध-खानाबदोश चरवाहा जनजाति थे। कुछ समय पहले तक, उन्होंने राज्य में अलग-अलग पेशे अपनाए हैं, कुछ उत्तराखंड के भीतर या बाहर बड़े शहरों में बस गए हैं। हालांकि, कुछ अभी भी खेती और पशुपालन के अपने पैतृक पेशे का अभ्यास करते हैं। एक लोक-कथा के अनुसार, एक बडियारी चरवाहा अपनी भेड़ों को रिज पर चरा रहा था, जिसमें वर्तमान में मंदिर है। जब वह रात को सो रहा था, तो बिजली की चमक के साथ तेज कर्कश आवाज और गरज के साथ उसकी नींद खुल गई। उसने एक तेज रोशनी देखी और एक तीखी और उग्र आवाज सुनी जिसने उसे पहाड़ पर चढ़ने और वहां एक मंदिर बनाने की आज्ञा दी। मंदिर को देवी को समर्पित किया जाना था। उन्होंने देवी को प्रणाम करने के बाद चढ़ाई शुरू की और शिखर पर पहुंचने के बाद, कुछ चट्टानों को इकट्ठा किया और एक टीला बनाया।
मंदिर के अंदर देवी काली की मूर्ति

जय माँ कालिंका! बर्फीले दिन में हिमालय का दृश्य

जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी 
समय के साथ, बड़े ढांचे बनाने के लिए शिखर को सभी ब्रैम्बल्स और वनस्पतियों से साफ कर दिया गया। अपने वर्तमान कमल-कली के आकार के शिखर (गुंबद) में मंदिर का निर्माण वर्ष 2010 के आसपास किया गया था। पहाड़ी-मंदिर के आसपास के लगभग एक दर्जन गांवों के निवासियों द्वारा "गढ़वाल-अल्मोड़ा काली मंदिर विकास समिति" के नाम से एक धर्मार्थ सहकारी समिति का गठन किया गया है। इन सभी गांवों में बडियारी की काफी आबादी है। ग्रामीणों का यह संगठन मंदिर परिसर को साफ रखता है और भविष्य में किसी भी सौंदर्यीकरण परियोजना के लिए जिम्मेदार है।

 उत्तराखंड को चमत्कारों की धरती व देवभूमी माना जाता है। कहा जाता है की अत्तराखंड के हर मंदिर में आपको कोई नया चमत्कार देखने को मिलता है। यहां मंदिरों में एक अलग ही अलौकिक शक्तियां प्रवाह करती है मानों जैसे साक्षात यहीं रहती हों। ऐसा ही एक शक्तिपीठ है मां कलिंका का जो अपने रहस्य और चमत्कारों के ल‌िए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। यहां देवी खुद भक्‍तों के बीच आती हैं और उनकी मनोकामनाएं सुनती हैं। मां काली के इस मंदिर में हो रहे चमत्कार को यदि आप अपनी आंखों से देखेंगे तो आप खुद पर यकीन नहीं कर पाएंगे। मां के इस दरबार में सच्चे दिल से मनोकामना लेकर जाने वाले कभी खाली हाथ नहीं लौटते। मंदिर को लेकर कहा जाता है कि यहां मां काली खुद आपकी मनोकामना बताती हैं। इसके साथ ही मौके पर ही आपकी मनोकामना का समाधान भी कर देतीं है।

माँ कालिंका के बारे में मान्यता है कि सन् 1857 ई. में जब गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखों का राज था, तब सारे लोग गोरखों के अत्याचार से परेशान थे। इनमें से एक वृद्ध व्यक्ति (Lali Babu ji) जो बडियारी परिवार के रहने वाले थे जिनका नाम  लैली  बडियारी  के नाम से  जाना जाता है वह काली माँ के परम भक्त थे, एक बार भादौ महीने की अंधेरी रात को  रिमझिम-रिमझिम बारिश में जब वह गहरी नींद में सोये थे, तभी अचानक उन्हें बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ ही एक गर्जना भरी आवाज सुनाई दी, जिससे वह भयभीत होकर हड़बड़ाकर उठ बैठा। जब उन्होंने बाहर की ओर देखा तो माँ कालिंका छाया रूप में उनके सामने प्रकट हुई और उनसे कार्तिक माह की एकादशी को पट्टी खाटली के बन्दरकोट गांव जाकर उनका मंदिर बनवाने को कहकर अंतर्ध्यान हो गई। भक्त की भक्ति एवं माँ की शक्ति के प्रताप से देखते-देखते गांव में मन्दिर बन गया, दिन, महीने, साल बीते,

तो एक बडियारी परिवार का विस्तार चौदह गांव तक फैल गया,  तब एक दिन मां कालिंका अपने भक्तों के सपनों में आकर बोली कि वे सभी मिलकर उनकी स्थायी स्थापना गढ़-कुमाऊँ में कर ममगांई परिवार जखोला वालों को पूजा का भार सौंपे, माँ के आशीर्वाद से सभी गांव वालों ने मिलकर गढ़वाल कुमाऊँ की चोटी पर शक्तिपीठ कालिंका मंदिर की स्थापना की, जहाँ हर तीसरे वर्ष पौष कृष्ण पक्ष में शनि और मंगलवार के दिन मां कालिंका के मंदिर में मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर गांवों में बसे लोगों के अलावा हजारों-लाखों की संख्या में देश-विदेश के श्रद्धालुजन आकर फलदायिनी माता से मन्नत मांगते हैं।    

कोठा गांव में माँ कालिंका की पहली पूजा के साथ ही शुरू होता है मां कालिंका की (न्याजा) का 14 गांव-गांव यात्रा (भ्रमण। यात्राकर अपनी दीशा धायानीयो को आशीर्वाद देने के लिए लगभग 11 दिन से 1 महीने तक गाजे-बाजे के साथ भ्रमण करती है  अंत में मेले के दिन मंदिर में पहुंचती है। इसके बाद विभिन्न पूजा विधियों के साथ ही शुरू होता है माँ काली की पूजा की जाती है जिसे हम जटोडे के नाम से जानते है।
जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी 
इस मेले का मुख्य आकर्षण यह है कि जो भी भक्तगण मां कालिंका के मंदिर में मन्नत मांगते हैं, उनकी मनोकामना पूर्ण होती है तथा अगले तीसरे वर्ष जब यह मेला लगता है, तब वे खुशी-खुशी से मां भगवती के दर्शन के लिए आते हैं।
"देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।"
इस मंद‌िर में उत्तराखंड के यहां दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग अपनी परेशानियां लेकर आते हैं। सिर्फ देश से ही नहीं वल्कि विदेश से भी लोग अपनी परेशानियों का हल लेने आते हैं। मंदिर की खास बात यह है कि यहां द‌िल्ली, मुंबई, राजस्थान से कई फर‌ियादी आते हैं। मां हर भक्त की मनोकामना को पूर्ण करती हैं। उत्तराखंड की कुछ खास वजहें हैं और इन वजहों से ही इसे देवभूमि कहा जाता है। मां कालिंका के इस मंदिर में विज्ञान भी फेल हो चुका है। हर बार यहां ऐसे ऐसे चमत्कार होते हैं कि खुद वैज्ञानिक भी हैरान हो जाते हैं। स्थानीय लोग कहते हैं कि आज माता से आशीर्वाद लेने वालों में कई वैज्ञानिक भी हैं।

कुमाऊ और गढ़वाल बॉर्डर में स्थित प्रसिद्ध कालिंका मंदिर में मां काली के रूप के दर्शन होते हैं और मां अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैै।, मंदिर में पूजा-अर्चना की जिम्मेदारी पूज्य लैली बूबा ( दादा जी ) की स्मृति मे समस्त बडियारी वंशज. गढ़वाल, अल्मौडा को दी गई, जो सनातन रूप से आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं। मंदिर वर्षभर श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है।

जय माँ कालिंका! भूगोल और जलवायु

जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी 
लगभग 2100 मीटर की ऊँचाई पर एक समतल, नंगे और चट्टानी पहाड़ी की चोटी पर स्थित है जो बहुत अधिक वनस्पति से रहित है। जैसे ही कोई मंदिर परिसर से बाहर निकलता है, वहाँ एक घना मिश्रित जंगल होता है जिसमें मुख्य रूप से बंज ओक (क्वार्कस ल्यूकोट्रिचोफोरा), रोडोडेंड्रोन, चीर पाइन (पिनस रॉक्सबर्गी) कई अन्य प्रजातियां शामिल हैं। गढ़वाल और कुमाऊं दोनों क्षेत्रों से मंदिर तक पहुंचने के कई रास्ते हैं। चढ़ाई आसान से मध्यम कठिनाई की है। यह दूधाटोली पहाड़ियों, त्रिशूल मासिफ और पश्चिमी गढ़वाल की चोटियों से बंदरपंच रेंज तक का अच्छा दृश्य प्रस्तुत करता है। जलवायु उच्चभूमि उपोष्णकटिबंधीय प्रकार (कोपेन वर्गीकरण के अनुसार) है। गर्मियों में, इसकी सुखद गर्म और सर्दियों में तेज धूप के साथ ठंडी होती है। यहाँ वर्ष भर अच्छी मात्रा में वर्षा होती है। यहां हर मौसम में बर्फबारी भी होती है। गर्मियों के दौरान तापमान में दिन के दौरान 25 से 30 डिग्री सेल्सियस और रात में 10-15 डिग्री सेल्सियस के बीच उतार-चढ़ाव होता है। सर्दियों में यह दिन में लगभग 15 डिग्री सेल्सियस और रात में लगभग 5 डिग्री सेल्सियस रहता है।

जय माँ कालिंका! सामाजिक महत्व

जय माँ कालिंका! गढ़ और कुमाऊ देवी 
जिस रिज पर यह मंदिर बना है, उसका स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व है। मध्ययुगीन काल में, गढ़वाल और कत्यूरी (कुमाऊं) राज्य अक्सर युद्ध में रहते थे और इस प्रकार लोगों ने दोनों पक्षों को पार करने के लिए इस रिज का उपयोग किया। साबलीगढ़ (पट्टी साबली या साबली क्षेत्र के नाम पर) पास के धोबीघाट गांव में एक गढ़वाली किला था। अपने उच्च ऊंचाई और सामरिक स्थान के कारण किले ने दो राज्यों के बीच एक क्षेत्रीय सीमा के रूप में कार्य किया। मंदिर के पूर्व में कुमाऊँ की भूमि कोमल है, जिसमें लुढ़कती पहाड़ियाँ और निचली उपजाऊ घाटियाँ हैं। जबकि पश्चिम में गढ़वाल है, जिसमें तुलनात्मक रूप से अधिक उबड़-खाबड़ और चट्टानी इलाका है और ऊंचाई अधिक है। ऐतिहासिक रूप से, इस मार्ग का उपयोग गढ़वाल के मवेशियों के खरीदारों द्वारा भी किया जाता रहा है। कुमाऊं की भैंस सभी मवेशियों के बीच बहुत प्रतिष्ठित थीं और अभी भी हैं, क्योंकि उन्हें घास और पानी के लिए इलाके में घूमने और फिर अपने शेड में लौटने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। 1960 के दशक में (गढ़वाल के इस हिस्से में सड़कें आने से पहले), स्थानीय लोगों ने गुड़ और नमक खरीदने के लिए पैदल तराई क्षेत्रों, विशेष रूप से रामनगर की यात्रा की। यह वस्तुतः वह सब कुछ था जिसकी उन्हें आवश्यकता थी क्योंकि वे अपने खेतों में सब कुछ उगाते थे। चीनी और नमक ही दो ऐसी चीजें हैं जो गढ़वाल की पहाड़ियों में नहीं बनती हैं। पसंद के मामले में, उन्होंने गढ़वाल के कोमल इलाके के कारण कुमाऊं मार्ग को पसंद किया।
जय माँ कालिंका!

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