रघुनाथ (राम नाम का जाप, मंत्र, श्री रामाष्टकः, आरती, दोहा) Raghunath (Chanting of Ram's name, Mantra, Shri Ramashtakah, Aarti, Doha)

रघुनाथ (राम नाम का जाप,  मंत्र, श्री रामाष्टकः, आरती, दोहा) Raghunath (Chanting of Ram's name, Mantra, Shri Ramashtakah, Aarti, Doha)

राम नाम का जाप

श्री राम जय राम जय जय राम ।
श्री रामचन्द्राय नमः ।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्र नाम तत्तुन्यं राम नाम वरानने।

श्री राम के मंत्र

ॐ राम ॐ राम ॐ राम ।
ह्रीं राम ह्रीं राम ।
श्रीं राम श्रीं राम ।
रामाय नमः ।
रां रामाय नमः


श्री रामाष्टकः

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशव ।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा ।।
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् ।।
आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम् ।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणम् ।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम् ।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि रामायणम् ।।

राम जी की आरती

आरती कीजे श्रीरामलला की । 
पूण निपुण धनुवेद कला की ।।

धनुष वान कर सोहत नीके । 
शोभा कोटि मदन मद फीके ।।

सुभग सिंहासन आप बिराजैं । 
वाम भाग वैदेही राजैं ।।

कर जोरे रिपुहन हनुमाना । 
भरत लखन सेवत बिधि नाना ।।

शिव अज नारद गुन गन गावैं । 
निगम नेति कह पार न पावैं ।।

नाम प्रभाव सकल जग जानैं ।
 शेष महेश गनेस बखानैं।।

भगत कामतरु पूरणकामा ।
 दया क्षमा करुना गुन धामा ।।

सुग्रीवहुँ को कपिपति कीन्हा । 
राज विभीषन को प्रभु दीन्हा ।।

खेल खेल महु सिंधु बधाये । 
लोक सकल अनुपम यश छाये ।।

दुर्गम गढ़ लंका पति मारे । 
सुर नर मुनि सबके भय टारे ।।

देवन थापि सुजस विस्तारे । 
कोटिक दीन मलीन उधारे ।।

कपि केवट खग निसचर केरे । 
करि करुना दुःख दोष निवेरे ।।

देत सदा दासन्ह को माना । 
जगतपूज भे कपि हनुमाना ।।

आरत दीन सदा सत्कारे । 
तिहुपुर होत राम जयकारे ।।

कौसल्यादि सकल महतारी । 
दशरथ आदि भगत प्रभु झारी ।।

सुर नर मुनि प्रभु गुन गन गाई । 
आरति करत बहुत सुख पाई ।।

धूप दीप चन्दन नैवेदा । 
मन दृढ़ करि नहि कवनव भेदा ।।

राम लला की आरती गावै । 
राम कृपा अभिमत फल पावै ।।

राम जी की आरती

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं।
नव कंजलोचन, कंज – मुख, कर – कंज, पद कंजारुणं।।

कंन्दर्प अगणित अमित छबि नवनील – नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहु तडित रुचि शुचि नौमि जनक सुतवरं।।

भजु दीनबंधु दिनेश दानव – दैत्यवंश – निकन्दंन।
रधुनन्द आनंदकंद कौशलचन्द दशरथ – नन्दनं।।

सिरा मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभूषां।
आजानुभुज शर – चाप – धर सग्राम – जित – खरदूषणमं।।

इति वदति तुलसीदास शंकर – शेष – मुनि – मन रंजनं।
मम हृदय – कंच निवास कुरु कामादि खलदल – गंजनं।।

मनु जाहिं राचेउ मिलहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सिलु सनेहु जानत रावरो।।

एही भाँति गौरि असीस सुनि सिया सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनिपुनि मुदित मन मन्दिरचली।।

दोहा

जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।

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