शक्ति देवी मंदिर छतराड़ी -shakti devi mandir chhatradi
शक्ति देवी मंदिर छतराड़ी ( Shakti Devi Temple Chhatradi) |
- चंबा नगर की स्थापना राजा साहिल वर्मन की ओर से अपनी बेटी चंपावती के नाम पर 920-940 के दौरान की गई थी। बताया जाता है कि उस समय ब्रह्मपुर अर्थात भरमौर तत्कालीन राजाओं की शीतकालीन राजधानी हुआ करता था।
- चंबा से भरमौर का पैदल रास्ता उस समय छतराड़ी से ही होकर गुजरता था। लूणा से छतराड़ी का रास्ता चारों ओर से जंगल से घिरा था। बताया जाता है कि गांव छतराड़ी में 780 ई. के आसपास शक्ति मां के मंदिर की स्थापना की गई थी। मन्नत पूरी करने वाली मां शिव शक्ति के दरबार में दूर-दूर से लोग मन्नतें मांगने आते हैं।
- इस स्थान पर पहले घना जंगल हुआ करता था। यहां से 2 किलोमीटर दूर मेड़ी गांव के लोग यहां चरागाह के लिए आते थे।
- अचंभा देख लोग बहुत हैरान हुए। बाद में लोगों की मन्नत व आराधना करने पर वहां 7 देवियां प्रकट हुईं। कहा जाता है
- दंतकथा के मुताबिक 550 ई. के आसपास मेरुवर्मन नामक सूर्यवंशी राजा ने ब्रह्मपुर राज्य की स्थापना की। जिसे आज हम भरमौर कहकर पुकारते हैं।
चम्बा से भरमौर के लिए जो सड़क गई है उसी से एक लिंक मार्ग छतराड़ी गांव तक जाता है । चम्बा से यह गांव लगभग 40 किलोमीटर की दुरी पर है । इस स्थान को प्रसिद्ध शक्तिपीठ से भी जाना जाता है । यह इसी देवी और यहाँ निर्मित कलात्मक मंदिर के कारण है । इसमें लकड़ी पर की गई नक्काशी अतिउत्तम है । मंदिर निर्माण में जिस बारीकी और कारीगरी से काम किया गया है वह आश्चर्य पूर्ण है । उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार यह माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भरमौर के चौरासी मंदिर समूहों में निर्मित लक्षणा देवी के ही समरूप है जो उतर भारतीय नागर शैली का अभूतपूर्व उदाहरण है । लेकिन यहाँ बने शक्ति देवी के इस मंदिर में मूर्ति व कला की दृष्टि से काफी भिन्नता नजर आती है । यह आम धरणा है कि इसे एक लकड़ी के खंबे पर बनाया गया है । इसी कारण पूरा मंदिर उस खम्बे पर घूमता रहता था लेकिन कुछ सालों से एक ही जगह पर स्थिर हो गया है ।
लोग ऐसा देवी के चमत्कार से मानते है लेकिन इस बात में संदेह नही है कि इतने पुराने मंदिर का वह कलापूर्ण खंबा कहीं से ख़राब भी हो सकता है । परंतु इस खंबे के बारे में अब कुछ विदित नही होता और भूमि के निचे इसका कैसा बनावटी ढांचा है , इस बारे में कहना असंभव है । देशज शैली के अंतर्गत आने वाले मंदिर में लकड़ी व पत्थर का प्रयोग हुआ है जिसकी एक तरफ से ढलवां छत है और चौकोर है । ऊपरी हिस्सा मुरमत किया लगता है और आधार जिसे हम नीवं भी कहते है अति प्राचीन है । जर्मन के एक प्रसिद्ध यात्री और इतिहासकार हरमन ने यहाँ भ्रमण किया था और उसने इस मंदिर को मूल रूप में पैगोडा शैली में निर्मित बताया । हो सकता है बाद में इसकी कुछ मुरमत हुई हो और इसमें कुछ परिवर्तन किया गया हो ।
शक्ति देवी मंदिर छतराड़ी ( Shakti Devi Temple Chhatradi) |
सातवीं शताब्दी के मध्य मेरु वर्मन ने अपने उच्च कोटि के कारीगर से इसका निर्माण करवाया था । यह कारीगर गुग्गा के नाम से विख्यात था । यह भी बताया जाता है कि देवी ने इस मंदिर को बनवाने की प्रेरणा इस कला पुरुष को स्वयं ही दी थी जिसकी सहायता राजा मेरु वर्मन ने की थी ।
इस मंदिर में शक्ति देवी की प्रतिमा अभूतपूर्व कला का प्रतिक मानी जाती है । यह कांस्य प्रतिमा अत्ति आकर्षक व् उच्चकोटि की है । कुछ लोग इसे अष्टधातु की बनी कहते है । तो कुछ पीतल की लेकिन प्रमाणिक तथ्य यही कहते है कि यह कांस्य की प्रतिमा है । इसके दायें हाथ में कमल और माला है और बाएं हाथ में घंटी और माला । प्रतिमा लक्षणा देवी की कलात्मकता से भिन्न नही है । इसकी ऊंचाई साढ़े चार फुट के करीब है । सर पर सोने का मुकुट है और पारदर्शी रंगीन रेशमी कपडे से ढकी रहती है ।
मंदिर और देवी के प्रकट होने से सम्बंधित कई कथाएं कही जाती है । इनमें से दो कथाओं का यहाँ वर्णन किया गया है । गुग्गा के सन्दर्भ में भी एक कथा गांव में प्रचलित है । इस कलाकार ने पास के एक गांव रेणु कोठी के राणा का भवन बनाया था । यह भवन बहुत सुन्दर बना जिसे जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता । इस भवन की देखकर राजा के मन में यह भवन पैदा हो गई कि इतना सुन्दर भवन और कहीं भी नही होना चाहिए । इस दृष्टि से उसने गुग्गा का दाहिना हाथ कटवा दिया । इस घृणित व्यवहार से गुग्गा वहां से चला आया और छत राड़ी गांव में रहने लगा ।
एक दिन इस गांव में माँ दुर्गा उसके स्वप्न में आई और छतराड़ी में मंदिर बनाने के लिये कहा । माँ दुर्गा के आशीर्वाद से गुग्गा का दाहिना हाथ भी ठीक हो गया और माता की प्रेरणा से उसने बहुत सुन्दर मंदिर निर्मित किया । यह भी कहा जाता है कि इसके बाद उसने माता से इस मंदिर निर्माण के लिए पुरस्कार के रूप में मौत मांग ली और वह मर गया ।
शक्ति देवी मंदिर छतराड़ी ( Shakti Devi Temple Chhatradi) |
देवी के इस गांव में प्रकट होने सम्बन्धि कथा भी अत्ति रोचक है । एक गद्दी ब्राह्मण छतराड़ी गांव से काफी दूर अपनी भेड़ बकरिया चुगाया करता था । एक दिन वे चरते चरते इस गांव में पहुँच गई । उस समय वहां घना जंगल हुआ करता था । बकरियों के बीच उसकी गायें भी चरा करती थी । जब भेड़ बकरियों के साथ वहां गायें आईं तो एक दिन उसके थनों से स्वतः ही दुग्ध की धारा जमीन पर प्रवाहित होने लगी । जब गांव के लोगों को उसने यह बात बताई तो लोगों ने उस स्थान को खोदना शुरू कर दिया । खुदाई के वक़्त ज़मीन से पत्थर की साथ पिंडियां निकली जिन्हें साथ देवी बहनों के नाम से पुकारा गया ।
अब उन साथ देवी बहनों ने निर्णय लिया कि वे अलग अलग रहा करेंगी और अपनी सम्पति को जो उनके पास थी का बंटवारा करेंगी।
इसलिए सबसे छोटी बहिन को मेदी गांव में तराजू व बट्टे लेने भेजा गया । जब वह गांव में पहुंची तो एक बुढ़िया दूध छोल रही थी । उसने बुढ़िया से तराजू देने का अनुरोध किया । बुढ़िया ने कहा की वह उसका काम देखे ताकि वह इस मध्य तराजू ढूंढ कर ला सके । लड़की ने जब दूध छोलना शुरू किया तो घड़े से बहुत मखन बाहर आने लगा । इस करिश्में को बुढ़िया ने दरवाजे से देख लिया । इसलिए उसे देर हो गई और जितने में वह वापिस अपनी बहिनों के पास गई तो उन्होंने उसे छोड़ कर आपस में ही बंटवारा कर लिया था । वह इस पर जोर जोर से रोने लगी । उसकी आँख से जो आंसू बहे उस से जमीन काली पड़ गई । लोगों का विश्वास है कि प्रोलिवाला देहरा की वह काली भूमि जहाँ वह देवी रहा करती थी मंदिर के सामने से देखी जा सकती है । इसलिए ये देवी वही थी जो गुग्गा कारीगर के स्वप्न में आई थी और जिसकी प्रेरणा पाकर उसने वहां मंदिर बनाया ।
अगस्त सितम्बर के महीने में यहाँ एक मेला आयोजित किया जाता है । उसकी कथा भी इसी मंदिर और देवी से जुडी बताई जाती है । कहा जाता है कि जब वह अकेली वहां रोने लगी तो राक्षसों ने , जो पहले से वहां रहते थे इसे अपनाना चाहा । इस पर वे बारी बारी उस से लड़ते रहे और देवी ने उन्हें एक एक करके खत्म कर दिया । इस युद्ध की कथा गाने के रूप में आज भी लोग मेले के दौरान गाते सुने देखे जा सकते है । छतराड़ी में राजा मेरु वर्मन ने ही देवी को जगह दी और समय समय पर मंदिर की मुरम्मत और साज सज्जा भी करता गया । इसलिए दूर दूर से ब्राह्मण और दूसरे लोग यहाँ आकर बसने लगे और देवी की पूजा करते रहे ।
श्री शक्ति देवी छतराड़ी के संबंध में एक और लोक मान्यता भी प्रचलित है । कहा जाता है कि रावी घाटी में राक्षसों का भारी आतंक था जिसे देवी हिरमा ने खत्म कर दिया था । देवी ने एक एक राक्षस को अपने बल से मार दिया जिससे लोगों के मन में देवी के प्रति श्रद्धा जग गई । लोगों ने चम्बा में उसका मंदिर बनाया और उसमें हिरमा की प्रतिमा स्थापित की । उसके बाद नियमित लोग यहाँ पूजा करने लग गए ।
एक दिन उसी क्षेत्र का एक ब्राह्मण मंदिर में आया तथा दुखी हृदय से देवी के आगे धरना दे दिया कि उन दोनों भाईयों के कोई संतान पैदा हो । देवी उनकी भक्ति से प्रसन्न हुई और संतान का वरदान दे दिया । एक साल बाद ब्राह्मण दंपति के घर सात कन्याएं पैदा हो गई । ब्राह्मण अब नियमित देवी हिरमा के मंदिर में उन पुत्रियों को लेकर पूजा हेतु जाया करता था जिस से देवी के प्रति उन कन्याओं की भी आस्था बढ़ गई ।
एक दिन उनके माता पिता घर से कहीं बाहर चले गए और वे सातों घर की देख रेख के लिए वहीँ रही । उनके माता पिता की अनुपस्थिति में उनके घर एक बूढी औरत आई जिसने अपना परिचय उन सात कन्याओं की बुआ के रूप में दिया और कहा कि उनके माता पिता उसी के घर है , जहाँ एक समारोह हो रहा है । उन सातो को भी उन्होंने मेरे साथ बुलाया है । वे सातों कन्याएं अपनी बुआ का कहना मान गयी और उनके साथ चल पड़ी लेकिन बाद में रावी नदी के किनारे उनका कोई पता न चला कि वे कहाँ चली गई ।
जब उनके माता पिता वापिस लौटे तो यह देखकर हैरान हो गए कि उनकी पुत्रियां घर पर नही है । गाँव के लोगों को पता चला तो उन्होंने बुढ़िया से साथ जाने की घटना सुना दी । सभी को विश्वास हो गया कि वो बुढ़िया और कोई नही राक्षसी थी । जिसने उन सातो को खा लिया । लोगों ने रावी पर उन कन्याओं की तलाश शुरू की तो एक जगह हड्डियों के ढेर मिले । माता पिता को पूरा विश्वास हो गया कि उनकी पुत्रिया जीवित नही है । उनकी माँ बहुत परेशान हो गई । पिता भी कम परेशांन नही थे । माँ का हृदय कोमल होता है । वह रोज एक दूध का घड़ा हड्डियों के ढेर के पास एक बर्तन में उलट दिया करती थी ताकि उनकी पुत्रियां रात में आकर उसे पी जाएं । सुबह जब माँ वहां जाती तो सच मुच वह बर्तन खाली मिलता । इस पर माँ के हृदय को शांति मिलती कि उनकी बेटियां दूध पी जाती है । एक दिन उसने देखा कि जिस घड़े में वो दूध डाल जाती है सुबह स्वतः ही उसका ढक्कन खुला मिलता है । उसने सोचा कि उसके दूध को कोई चोर आकर पी जाता है । इस पर उसने कई दिनों तक दूध दिया ही नहीं । जब एक सप्ताह हुआ तो वे सातो बेटियां माँ के स्वप्न में आई और कहने लगी की हमे बहुत भूख लगी है । उन्होंने नाराजगी भी प्रकट भी की कि उनकी माता उन्हें दूध क्यों नही देती है । कुछ देर बाद छः बहिने तो चली गई लेकिन सबसे छोटी जो जालपा थी वहीँ रोने लग गई । वह यह कहकर रोती रही कि वह यहीं रहना चाहती है अपने ही गांव में क्योंकि अन्य बहिने दूर दूर बसने चली गई है । उसकी माँ जैसे ही उठी तो उसे आभास हुआ कि जालपा कमरे से बाहर भाग गई है । वह उसे रोकती हुई बाहर निकल गई । जब वो अदृश्य हो गई तो वह नदी की ओर रोती चिल्लाती भाग गई । गांव के लोगों ने जब उसे भागते देखा तो उसके पति सहित वे भी उसके पीछे भाग गए । उसे रोका और पहले की तरह दूध देने को कहा । अब उसके साथ गांव वाले भी नदी तट पर उस जगह के लिए साथ गए । वहां पहुचे तो देखा कि उस बर्तन पर वही ढक्कन लगा है । सभी ने बारी बारी उसे उठाना चाहा लेकिन वह न उठा । निराश होकर सभी घर चले गये ।
उसके बाद गांव के लोगों को उस नदी के किनारे कन्या मिलने लगी । यही नही उन ब्राह्मणों के घर पर भी रोज किसी व्यक्ति के साथ रहने का आभास होने लगा । एक दिन लोग एकत्रित हुए और देवी हिरमा के मंदिर चले गए । लोगों ने देवी के आगे पुकार की । तभी मंदिर से आवाज आई , ” ग्राम वासियों , उन सात कन्याओं को धोखे से राक्षसी ने खा लिया है । यह राक्षसी दूर मुझसे छुपती रही और मेरे बल से बच निकली । लेकिन ये साथ बहिनें अमर होंगी और देवियों के रूप में पूजी जाएँगी । ” इसी तरह ये सातों जगह जगह किसी न किसी रूप में प्रकट हुई जहाँ उन्हें देवियों के रूप में पूजा जाने लगा । सातों जगह इन देवियों के सुन्दर मंदिर निर्मित है । सबसे बड़ी बहिन भरमौर में चौरासी क्षेत्र में पैदा हुई जो आज भी वहां लक्षणा देवी के रूप में पूजी जाती है । दूसरी बहिन छतराड़ी गांव की श्री शक्ति देवी के रूप में पूजी जा रही है । मंदिर में स्थित तत्कालीन भव्य कांस्य प्रतिमा अपनी तरह की है जिसे देखते ही लोग अचंभित हो जाते है । तीसरी बहिन परोर गांव की देवी के रूप में प्रतिष्टित है । चम्बा की चामुंडा देवी चौथी बहिन है । बैरा नामक गांव में प्रतिष्टित देवी पांचवी बहिन मानी जाती है । काँगड़ा की श्री अम्बिका देवी ही छठी बहिन मानी जाती है और सातवी जालपा है जो वहीँ स्थापित हुई है जहाँ वह बर्तन रखा रहता था । उस बर्तन में पिंडी के रूप में जालपा ने जन्म लिया है ।
इस तरह चम्बा की सात प्रमुख दैवीयां यही साथ बहिने है जिन्हें देवी हिरमा के आशीर्वाद से जन्म मिला था और लोग जगह जगह स्थापित इन देवियों के मंदिर में बहुत समय से पूजा करते आये है । वर्ष भर में समय समय पर इन जगहों पर मेलों का आयोजन किया जाता है और हजारों लोग इन देवियों का आशीर्वाद प्राप्त करते है ।
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