खटीमा गोलीकांड: उत्तराखंड राज्य निर्माण की यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव
1990 का दशक उत्तराखंड राज्य निर्माण के संघर्ष का एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील दौर था। इस समय के दौरान, उत्तराखंड आंदोलन ने अपने चरम को छू लिया, और इस आंदोलन ने अपने साथ कई संघर्ष और बलिदानों की कहानियाँ जोड़ दीं। यह वह समय था जब पहाड़ की जनता ने "कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे" और "बाडी-मंडुआ खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे" जैसे नारे उठाए, जो यह दर्शाते थे कि वे किसी भी कीमत पर अलग राज्य की मांग से पीछे नहीं हटने वाले थे। लेकिन जैसे-जैसे आंदोलन ने गति पकड़ी, सरकारी दमन और निंदा भी बढ़ती गई, जिससे कई काले दिन आए, जिनमें से एक महत्वपूर्ण दिन था 1 सितंबर 1994, जब खटीमा गोलीकांड हुआ।
खटीमा गोलीकांड की घटना
1 सितंबर 1994 को उत्तराखंड के खटीमा में एक विशाल जनसभा आयोजित की गई थी, जिसमें बच्चे, बूढ़े, महिलाएं और पूर्व सैनिक शामिल थे। यह रैली खटीमा के रामलीला मैदान से शुरू हुई और जैसे-जैसे जुलूस कंजाबाग तिराहे की ओर बढ़ा, पुलिस ने पहले पथराव किया और फिर रबड़ की गोलियां चलाईं। इसके बाद, पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। इस गोलीबारी में सात आंदोलनकारी शहीद हो गए, जिनमें प्रताप सिंह, सलीम अहमद, भगवान सिंह सिरौला, धर्मानंद भट्ट, गोपी चंद, परमजीत सिंह और रामपाल शामिल थे। इसके अलावा, सैकड़ों लोग घायल हुए।
आंदोलन में परिवर्तन
खटीमा गोलीकांड ने उत्तराखंड आंदोलन को एक नई दिशा और ताकत प्रदान की। इस घटना के बाद, आंदोलन ने व्यापक जनसमर्थन प्राप्त किया और इसके परिणामस्वरूप आंदोलन की रफ्तार में इजाफा हुआ। 2 सितंबर 1994 को मसूरी में भी गोलीकांड की पुनरावृत्ति हुई, जिसने आंदोलन को एक बड़े जन आंदोलन का रूप दे दिया।
करीब छह साल बाद, 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। यह राज्य आंदोलकारियों के संघर्ष, बलिदान और समर्पण का परिणाम था।
पुलिस की बर्बरता और सच्चाई
खटीमा गोलीकांड के बाद जांच हुई और पता चला कि यह घटना एक षड्यंत्र के तहत अंजाम दी गई थी। पुलिस की वायरलेस रिकॉर्डिंग में कई झूठी बातें सामने आईं, जैसे कि पुलिस वालों पर फायरिंग की जा रही थी, जबकि किसी भी पुलिसवाले को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था और न ही आंदोलनकारियों की तरफ से कोई गोली चलाई गई थी।
पुलिस ने शहीद हुए 4 लोगों को छिपा कर थाने की कोठरी में रखा और देर रात उनके शव शारदा नदी में फेंक दिए। घटनास्थल पर सिर्फ 4 शव बरामद हुए। पुलिस ने अपने कुकृत्य को छिपाने की कोशिश की और शहीद हुए आंदोलनकारियों की संख्या 4 ही बताई।
खटीमा गोलीकांड ने उत्तराखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया। इस घटना ने स्थानीय जनता की आवाज़ को ऊंचा किया और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाई। विजय जोशी की नेतृत्वकारी भूमिका ने आंदोलन को एक नई दिशा दी और यह घटना उत्तराखंड के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर स्थायी छाप छोड़ गई।
शहीद आंदोलनकारियों की सूची
खटीमा गोलीकांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों के नाम निम्नलिखित हैं:
- प्रताप सिंह
- सलीम अहमद
- भगवान सिंह
- धर्मानंद भट्ट
- गोपीचंद
- परमजीत सिंह
- रामपाल
- भुवन सिंह
इस घटना के बाद, राज्य आंदोलन के इतिहास में खटीमा गोलीकांड एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में याद किया जाता है। इस घटना ने न केवल उत्तराखंड आंदोलन की दिशा को बदल दिया, बल्कि इसे एक बड़े जन आंदोलन का रूप भी दे दिया। 1994 के बाद, उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ और यह आंदोलनकारियों के बलिदान और संघर्ष का परिणाम था।
उत्तराखंड के इतिहास में 1 सितंबर 1994, काले दिवस के रूप में जाना जाता है, और खटीमा गोलीकांड की इस घटना ने यह साबित किया कि पहाड़ की जनता में अलग राज्य के लिए जोश और जुनून किस कदर था। आज भी खटीमा में इस बर्बरता के निशान मौजूद हैं, जो हमें याद दिलाते हैं कि राज्य की यह यात्रा कितनी कठिन और संघर्षपूर्ण थी।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले सभी शहीदों को बारामासा परिवार श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
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