हाँ दीदी हाँ: उत्तराखंड की लोक-कथा
उत्तराखंड की लोक-कथाएँ अपनी विशेषताओं और भावनात्मक गहराई के लिए प्रसिद्ध हैं। ये कथाएँ सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज के मानवीय पहलुओं और जीवन संघर्षों को भी उजागर करती हैं। "हाँ दीदी हाँ" एक ऐसी ही मार्मिक लोक-कथा है, जो भाई-बहन के प्रेम, त्याग और संघर्ष की दास्तान सुनाती है। इस कहानी के माध्यम से हम यह समझ सकते हैं कि एक भाई-बहन का रिश्ता कितना गहरा और महत्वपूर्ण होता है।
कहानी
किसी पहाड़ी गांव में एक निर्धन किसान का परिवार रहता था। किसान की एक बेटी और एक बेटा था। किसान की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। अपने दोनों बच्चों का लालन पोषण वह स्वयं करता था। समय के साथ साथ बच्चे बड़े हो गये। बेटी बड़ी थी सो किसान को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। उसने पाई पाई जोड़कर जैसे तैसे उसका विवाह कर दिया।
एक दो साल बाद किसान बिमार रहने लगा। और एक दिन उसकी मृत्यु हो गई । अब उसका बेटा अनाथ हो गया, उसकी दीदी को अब भाई की चिंता सताने लगी। क्योंकि उसका ससुराल भी ज्यादा सम्पन्न नहीं था तो वह अपने सास ससुर व पति से इस बारे में बात करने में संकोच होने लगा। परन्तु भाई की चिंता में उसने हिम्मत बांध के भाई को अपने ससुराल में ही रखने की बात ससुरालियों से की। ससुराल वाले बहू की बात मान तो ली परन्तु कुछ शर्तों के साथ। ये शर्तें थी -
(1) उसके भाई को भोजन में भूसे की रोटी और बिच्छू का साग (बिच्छू एक प्रकार की पहाड़ी घास होती है जो सब्जी बनाने के काम भी आती है)।
(2) उसे चक्की की ओट में सोना होगा,
(3) मवेशियों को चराने की जिम्मेदारी उसकी होगी।
बहन को ये बातें बिल्कुल भी उचित नहीं लगी परन्तु भाई प्रेम और उसकी अकेले रहने की चिंता में उसने यह शर्तें मान ली। भाई ने भी परिस्थिति के अनुसार मन पसीज के यह शर्तें मान ली। अब भाई अपनी बहन के ससुराल में रहने लगा।
धीरे धीरे भाई अब उस परिवेश में घुल मिल गया। वह दिन में मवेशियों को चराने जंगल जाता और रात को भोजन में मिली भूसे की रोटी और बिच्छू की सब्जी खाकर वहीं चक्की की ओट पर टाट बोरी बिछा के सो जाता। ऐसे ही वक्त बीतता गया।
एक दिन मवेशियों को जंगल में चराते चराते उसे एक अंजान व्यक्ति मिला। उस व्यक्ति ने उसे उसके साथ चलने को कहा। पहले तो उसने साथ आने से मना किया परन्तु जब उस अजनबी ने उसे अच्छा काम और अच्छे भविष्य का लोभ दिखाया तो वह सोचने लगा कि बहन के घर में बोझ बनने से अच्छा कहीं और काम करके धन कमाया जाये। उसने साथ चलने की हामी भर दी।
शाम को जब भाई नहीं लौटा तो बहन को चिंता होने लगी। गांव में भी बात फैल गई। उसकी खोजबीन की गई जब वह नहीं मिला तो सबने उसे मृत समझ लिया। बहन बहुत दुखी रहने लगी। उसे यकीन नहीं हुआ कि उसका भाई मर चुका है। खैर दिन महिने साल निकलते रहे। धीरे धीरे वह अपने भाई को भुलाती रही लेकिन तीज त्यौहारों में जब आस पड़ोस की औरतें अपने भाई से मिलने जाती या उनके भाई उनसे मिलने आते तो वह अपने भाई को याद करके आंसू बहाती। ऐसी समय निकलता रहा और एक दिन उसे उसके भाई का संदेश मिला, वह फूली नहीं समाई। जिसे वह मरा समझ चुकी थी वह जिंदा था। वह भाई से मिलने अपने मायके गई।
घर पहुंच कर उसे भाई की संपन्नता देखकर कर आश्चर्य हुआ। भाई ने उसे भूतकाल में जो भी हुआ सब बताया। दोनों एक दूसरे से मिलकर बहुत खुश हुये। भाई ने उपहार स्वरूप बहन को बहुत धन दिया लेकिन उसकी बहन ने यह कहकर मना कर दिया कि उसे उसका भाई मिल गया उसे अब कुछ नहीं चाहिये। जब उसने धन लेने से मना किया तो भाई ने उसे दो गायें और एक भैंस देनी चाही। तो बहन ने वह रख ली। भाई खुश हुआ कि बहन ने उसकी एक उपहार स्वीकार कर लिया। उसने गाय के गले में घंटी बांध दी और बहन के साथ भेज दिया।
बहन उन गायें और भैंस के साथ ससुराल को चल दी। सुनसान रास्ते में गाय के गले में बंधी घंटी का स्वर बहन को अच्छा लग रहा था। उसे लगा जैसे घंटी से आवाज आ रही हो-
भूसे की रोटी, सिंसूण की साग खाएगा - हाँ दीदी
चक्की की ओट में सोएगा - हाँ दीदी
झाड़ू की मार सहेगा - हाँ दीदी हाँ ।
घंटी मानो यहीं बाते बोल रही हो यह सोचकर वह जोर जोर से हंस पड़ी।
कथा का संदेश
इस कथा का मुख्य संदेश है कि संघर्ष और परिश्रम से इंसान अपने जीवन में कठिनाइयों को पार कर सकता है। भाई-बहन का प्रेम, एकता, और त्याग इस कहानी को और भी मार्मिक बना देता है।
निष्कर्ष
"हाँ दीदी हाँ" एक ऐसी लोक-कथा है जो भाई-बहन के अटूट प्रेम और संघर्ष की गहराई को बयां करती है। इस कहानी के माध्यम से हमें यह सीख मिलती है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, सच्चे रिश्तों की अहमियत कभी कम नहीं होती। यह उत्तराखंड की संस्कृति और जीवन के संघर्षों का प्रतीक है, जहाँ प्रेम, त्याग और परिवार सबसे महत्वपूर्ण होते हैं
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